कविता : शरद अनगिनत रंग के फूलों …
– रूपम मिश्र
शरद अनगिनत रंग के फूलों को लेकर आ रहा है
अबकी भी तुम्हारे मखमुलहे मन को देखकर आधा ही न लौट जाये
अबकी हँसना ,देखना खरगोश की लाल आँखों जैसा सबेरा फिर उगेगा
कुछ मटमैले उदास चेहरे थोड़ा हँसेंगे
बच्चे काम पर कम स्कूल ज्यादा जायेगें
सड़कें कार बाइक के धुंवे से कम अटेगीं
सीटी बजाती हुई साइकिल चलाती लड़कियों से गुलज़ार होगीं
काम पर जाती स्त्रियां अवसाद की दवा कम खायेंगी
घर में अपनी बेटियों के साथ कांटो से खींच के आंचल गाने पर रोज घंटो नाचेगीं
घरेलू स्त्रियां सब्जी छौकती तेल के छीटे से जलने पर पहले जाकर बर्फ़ मलेंगी
वो चौराहे के पार बड़ी नाली पर बैठा बूढ़ा मोची कुछ कहकर हँसेगा
गाँव छोड़ शहर में बसा ठठेरा किसी ग्रामीण को चीन्ह देस का हाल पूछेगा
बूढ़े रिक्शेवाले के रिक्शे पर कुछ करुण मन की कोचिंग से लौटती लड़कियाँ बैठेगीं
और थोड़ी दूर जाकर अपने साथ उसे मौसम्बी का जूस पिलायेंगीं
अखबार में अबकी हत्या बलात्कार से ज्यादा लड़कियों के खेल की खबरें होगीं
देखना दुनिया थोड़ी – थोड़ी बदलेगी
दुःख चिंता और गलतियों से बने हमदोनों थोड़े और मनुष्य बनेंगे
तीसी के फूल अबकी बड़े चटक खिलेंगे
तिल के अधगुलाबी फूल भी उस हँसी का अलाप जोहते हैं
पगडंडी के सारे खेत शरद में कैसे हँसते थे
उनकी हँसी नीरफूल तुम्हारी हँसी जैसी होती थी
तुम्हारी हँसी है या खिलखिलाहटों का जादुई दर्पण
या किलकारियों से गूँथी गयीं उजासी श्रृंखला
एकदम गदबदी सरपत की सफ़ेद रेशमी कलियों जैसी चिकनी
लटपट बसंती हवा जैसी या गुदगुदाये जा रहे बच्चे की बेसम्भार हँसी
मैं इस हँसी को हथेली में भर कर आने वाले समय के लिए आस बो रही हूँ
देखना अन्न के साथ यहाँ फूल भी उगेंगे
सही अर्थ में मनुष्य के साथ तितलियों का झुंड यहाँ आएगा
तुम बस चलते हुए कभी मुड़कर मुझे हरकार देते रहना
मैं वो राह और वहाँ के वासियों को पहचान ही लूँगी
चीन्ह पर अब कुछ तो मेरा कस-बस हो ही गया है
क्योंकि मैंने तुम्हारा आँसुओं से भीजा चेहरा
चखा है।