“हिन्दी जिस ठाँव उस ठाँव में रहूँगा!”
संवाद के क्षण
मुझे भान होता है
कि मैं ज़िंदा हूँ…
मुझे ज़िंदा होने का
अहसास दिलाती है भाषा!
मेरी मातृभाषा!!
मैं जब-जब शब्दों के तहों में
पसरता हूँ,
उतरता हूँ अर्थों की गहराइयों में
पाता हूँ कि हिन्दी ही श्रेष्ठ है ,
समृद्ध है,गौरवशाली है।
मैं जब-जब चिह्नों की
ध्वन्यार्थाभिव्यक्ति पर चिंतन करता हूँ,
पाता हूँ कि देवनागरी ही उत्कृष्ट है,
संशुद्ध है,वैभवशाली है ।
हिन्दी को वैज्ञानिक भाषा के क्रम में
ले जाती देवनागरी,
जो इसकी दैवीय-पोशाक है,
अपने आँचल में ममत्व का स्पर्श देती है
ध्वनि का करती है निज-शिशु-सा पोषण…
‘हिन्दी’ नागरी का ऊँगली थाम
जितनी दूर-तलक जाएगी
सच कहता हूँ क्षितिज के दोनों ओर
सभ्यता खिलखिलाएगी ।
जीवन में सीख लूँ जितनी ही भाषाएँ-
भाषा-सभ्यताओं से प्राण(तत्त्व) ले-लेकर…
मैं जब तक ज़िंदा हूँ,
हिन्दी की छाँव में रहूँगा!
मैं जब तक ज़िंदा हूँ,
हिन्दी जिस ठाँव उस ठाँव में रहूँगा ।।
©निमाई प्रधान’क्षितिज’
रायगढ़,छत्तीसगढ़