खिल उठती हूं “मैं”
11/09/2021
अतीत के स्मृति सागर में
जब -जब लगाती हूँ गोतें
तब -तब खिल उठती हूँ मैं
ले आती हूँ अमोल मोती
थिरक उठते हैं अधर मेरे
एक स्मित मुस्कान लिए
मौन अब भी है होंठों पे
मेरी मूक संकेतों की भाषा
ज्ञात है समझ जाओगे तुम
प्रेम तो हमारा शाश्वत था
फिर क्यों भटकता रहा
खाता रहा जीवन सरिता
में बिन पतवार के गोते
ये मिलन हमारा संयोग था
हां कुछ पल का वियोग था
देख क्यों हुआ प्रस्फुटित
ह्रदय में प्रेम का ये बीज
ह्रदय की धरा में होने लगी
जब से तेरे प्रेम की वृष्टि
हां तुमने ही सिखाया मुझे
भावों के लहरों में तिरना
नदियों की तरह शांत बहना
सागर सा विशाल बन जाना
पर्वत सा धैर्य सदा रखना
जीवन पथ पे अटल रहना
देखो नैनों में स्वर्णिम ज्योति
चमक उठती है अब भी मेरे
याद कर मिलन के वो क्षण
तुम्हारा वो प्रथम आलिंगन
जिससे पुन:खिल उठती हूँ मैं
नाम – दिलशाद सैफी
रायपुर, छत्तीसगढ़