चश्मा
सुशांत सुप्रिय
” पापा , भगवानजी तो इन्सानों को बड़ी मेहनत से बनाते
होंगे । जब एक इंसान दूसरे इंसान को मार डालता है तो
भगवानजी की सारी मेहनत बेकार हो जाती होगी न ।”
— एक पाँच साल का बच्चा अपने पिता से ।
एक जलती हुई प्यास-सा था वह दिन । और मैं उसमें एक तड़पता हुआ प्यासा । मैंने विज्ञानेश्वर जी के बारे में जान-पहचान वालों से सुन रखा था कि वे एक लेखक थे जो अपने समय को डीकोड करने की कोशिश करते रहते थे । हालाँकि उनसे मिलने का मेरा मक़सद केवल उनका लेखन नहीं था । देर रात जब उनसे मिलने मैं उनके घर पहुँचा तब मैंने उनके भीतर से एक उदास रोशनी फूटती देखी जिसके साये तले बैठ कर वे अपना लेखन कर रहे थे । उनसे मिलने के बाद मुझे समय के कोने उतने तीखे और चुभने वाले नहीं लगे । सच बताऊँ तो वे मुझे अपने उदास समय के इकलौते वारिस लगे ।
उन्हें प्रणाम करके मैं उनके पास बैठ गया । वह फ़्यूज जुगनुओं वाली एक भोरहीन भारी रात थी ।
” मैं आप की कहानियों का प्रशंसक हूँ । चाहे आपकी कहानी ‘ बंजर आकाश ‘ हो या ‘ सूखी नदी ‘ हो , आप जीवन की बारीकियों को बड़ी कुशलता से पकड़ते हैं । हमारे जीवन में व्याप्त असुरक्षा और मृत्यु के भय को आपकी कहानियाँ बड़ी बारीकी से उकेरती हैं । कई बार ऐसा लगता है जैसे आपकी कहानियाँ कहानियाँ न होकर कविता का विस्तार हों । आपकी कहानियों में शिल्प के प्रयोग के साथ एक सजल संवेदना बहती है । ” मैंने कहा ।
वे एक सूखी हँसी हँसे । उसमें आकाश के कई सितारों के टूटकर गिर जाने का दर्द था । उनकी आँखों में कोई मुस्कान नहीं थी । वहाँ भय का अजगर कुंडली मारे बैठा था । भूरा और मटमैला भय ।
” लेकिन आज आपसे मिलने आने का मेरा मक़सद दूसरा है । मैं आपसे उस चश्मे के बारे में जानना चाहता हूँ जो आपके परिवार के पास कई पीढ़ियों से है । यदि आपको ऐतराज़ न हो तो ।” मैं बोला ।
थोड़ी देर हमारे बीच एक स्याह ख़ामोशी बिखरी रही ।
” कहाँ से शुरू करूँ ?” आख़िर ख़ुद को सहेजते हुए वे बोले — ” 1850 के आस-पास मेरे एक पूर्वज को एक कबाड़ी वाले की दुकान से यह चश्मा मिला । वे उन दिनों दिल्ली के चाँदनी चौक इलाक़े में रहते थे । उन्हें पुरानी और अजीब चीज़ों को इकट्ठा करने का शौक़ था । कबाड़ी वाले से ले लेने के बाद साल-छह महीने यह चश्मा यूँ ही कहीं दबा पड़ा रह गया । एक दिन कुछ ढूँढ़ते हुए मेरे इस पूर्वज को यह चश्मा दोबारा मिल गया । उसे साफ़ करके जब उन्होंने अपनी आँखों पर लगाया तो तो वे दंग रह गये । यह कोई साधारण चश्मा नहीं था । इसे पहन कर उन्हें अजीब-अजीब दृश्य और छवियाँ दिखती थीं । मानो वे ख़ून-ख़राबे या मार-काट वाली कोई फ़िल्म देख रहे हों । हालाँकि उस समय फ़िल्म जैसी कोई कोई चीज़ ईजाद नहीं हुई थी । इस चश्मे से दिखने वाले कई दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले थे ।
” मेरे यह पूर्वज ठीक से समझ नहीं पाए कि आख़िर माजरा क्या है ।
हालाँकि बाद में 1857 की क्रांति के समय जो दर्दनाक घटनाएँ घटीं उन से जोड़ कर देखने पर उन्होंने पाया कि उनका चश्मा उन्हें ये दृश्य तो कई साल पहले दिखा चुका था । और तब जा कर वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यह चश्मा भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में बताता था ।
” एक बात और । मेरे यह पूर्वज जब भी यह चश्मा पहनते, उसके बाद कई दिनों तक उनकी आँखों में असह्य दर्द रहता और उनकी आँखों से ख़ून गिरता रहता । ”
वह तवे पर जल गई रोटी-सी काली रात थी जब मैंने उनसे पूछा — ” क्या आपके इस पूर्वज ने किसी को इस चश्मे का सच बताने की कोशिश नहीं
की ? ”
” कई बार की । लेकिन लोग उन्हें सनकी और पागल समझने लगे । लोग कहने लगे कि बुड्ढा सठिया गया है । उनका पूरा जीवन एक लम्बा सिर-दर्द बन गया । हार कर उन्होंने इस चश्मे की सच्चाई दूसरों को बताने की बात मन से निकाल दी । उन्होंने इस चश्मे को एक पेटी में बंद करके अँधेरी कोठरी में डाल दिया ।”
” लेकिन … ।” मैंने कुछ कहना चाहा ।
” मुझे बीच में ही टोकते हुए वे बोले — ” आप ही बताइए , वे और क्या करते ? उस ज़माने में यदि कोई आप से कहता कि उसके पास भविष्य देखने वाला चश्मा है तो क्या आप भी उसे सिरफिरा नहीं कहते ?”
मैंने हाँ में सिर हिलाया । वह ठंड में हो रही बारिश में भीगते कुत्ते-सी बेचारी रात थी जब उन्होंने अपनी बात दोबारा शुरू की — ” आख़िर अपनी मृत्यु-शय्या पर पड़े मेरे इस पूर्वज ने उस चश्मे का राज अपने बेटे यानी मेरे परदादा जी को बताया । यह चश्मा पा कर परदादाजी की मुसीबतें भी बढ़ गईं । उनके पास एक ऐसा राज़ आ गया है जिस पर किसी को यक़ीन नहीं था ।
” मेरे परदादा जी ने एक काम किया । उन्होंने अपने यार-दोस्तों को बुलाया और उन्हें वह चश्मा पहना कर अपनी बात को प्रमाणित करने की कोशिश की । लेकिन विधि को कुछ और ही मंज़ूर था । उनके किसी भी दोस्त को चश्मा पहनने पर भी कुछ भी अजीब नहीं दिखा । परदादाजी की परेशानी बढ़ गई ।
” उन्हीं दिनों एक दिन परदादाजी के पाँच साल के बेटे यानी मेरे दादाजी
और उनके नन्हे दोस्तों ने यह चश्मा चुरा कर कौतूहलवश उसे पहन लिया । उन बच्चों को वे सारे दृश्य और छवियाँ दिखने लगीं जो भविष्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित थीं । पाँच साल के मेरे दादाजी और उनके साथी चकित हो गए । उन्होंने वह चश्मा ला कर परदादाजी को वापस कर दिया और उन्हें सारी बात बताई । बच्चों ने मार-काट वाले दृश्यों की निंदा की ।
” परदादाजी सोच में पड़ गए । भविष्य में होनेवाली घटनाओं के दृश्य बच्चों को तो नज़र आए किंतु परदादाजी के मित्रों को ऐसा कुछ भी नहीं दिखा । इसके पीछे क्या राज़ था ? अंत में परदादाजी ने इस रहस्य की गुत्थी ख़ुद ही सुलझा ली । बार-बार बच्चों और बड़े लोगों पर इस चश्मे का प्रयोग करके वे इस नतीजे पर पहुँचे कि इस चश्मे से केवल उसी व्यक्ति को भविष्य दिखता था जिसका अन्तर्मन साफ़ होता था । कलुषित और कलंकित हृदय वाले लोगों को यह चश्मा पहन कर भी कुछ भी नज़र नहीं आता था । क्योंकि बच्चे मासूम और निश्छल होते हैं इसलिए उन्हें यह चश्मा पहनने पर भविष्य में घटने वाली घटनाओं के दृश्य साफ़ नज़र आने लगते थे ।”
” फिर क्या हुआ ? ” मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी ।
” मरते समय परदादाजी वह चश्मा दादाजी को सौंप गए । 1915 के आस-पास एक बार दादाजी को वह चश्मा पहनने पर नर-संहार के कुछ भयावह दृश्य दिखे जिस में अंग्रेज़ सैनिक किसी बाग़ में इकट्ठे हुए हिन्दुस्तानियों को गोलियों से भूनते हुए नज़र आए । दादाजी की रूह काँप गई । ज़ाहिर था कि वह निहत्थी भीड़
स्वतंत्रता-संग्रामियों की थी । लेकिन यह बर्बर हत्या-कांड कहाँ और कब होने वाला था ? दादाजी के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई । उन्होंने स्वाधीनता-आंदोलन से जुड़े कुछ नेताओं से इस बारे में बात की । लेकिन उन नेताओं ने सोचा कि दादाजी उनसे मज़ाक कर रहे हैं । कोई भविष्य में घटने वाली किसी घटना के बारे में पहले से जान सकता है , यह मानने के लिए वे लोग तैयार ही नहीं हुए ।
” आख़िर 14 अप्रैल , 1919 के काले दिन अमृतसर में जालियाँवाला बाग़ का नृशंस हत्या-कांड घटित हो गया । अंग्रेज़ों ने सैकड़ों निहत्थे हिंदुस्तानियों को गोलियों से भून दिया । अँधेरे ने रोशनी में सेंध लगा दी थी । दादाजी स्तब्ध रह गए । सबसे ज़्यादा दुख उन्हें इस बात का था कि इस नरसंहार के बारे में दी गई उनकी चेतावनी पर किसी ने भी यक़ीन नहीं किया था । मरते दम तक दादाजी को इस बात का मलाल रहा । वे अपनी बात का प्रचार करने के लिए अख़बारों के दफ़्तरों में भी गए किंतु अख़बार वालों ने भी उन्हें कोई ‘ हिला हुआ ‘ बूढ़ा मान लिया । संपादकों और संवाददाताओं ने उनके चश्मे को पहना पर दुर्भाग्य से उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया । एक-दो अख़बारों ने उन्हें एक ‘ खिसका हुआ ‘ बूढ़ा क़रार दिया और उनके चश्मे की बात को एक अप्रैल का झूठा मज़ाक कहा । ज़ाहिर है , इस सब से दादाजी बेहद आहत हुए ।
” दादाजी की मौत के बाद वह चश्मा पिताजी के पास आ गया । पिताजी ने भी उस चश्मे को ऐसे सहेज कर रखा जैसे वह चश्मा उनकी धरोहर हो । विरासत में मिली चीज़ को आप कितना सँभाल कर रखते हैं । वही हाल पिताजी का था । वे बड़े उथल-पुथल से भरे वर्ष थे । स्वाधीनता-संग्राम अपनी चरम सीमा पर था । अंग्रेज़ उसे कुचलने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे । पिताजी जब भी यह चश्मा पहनते , उन्हें पुलिस-बर्बरता के दृश्य दिखाई देते । लेकिन उस से भी भयानक वे वहशियाना दृश्य थे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे हो रहे होते । दरिंदे निर्दोष लोगों को मार-काट रहे होते । औरतों की इज़्ज़त लूटी जा रही होती । व्यापक स्तर पर आगज़नी और लूट-मार हो रही होती ।
” भविष्य में घटने वाले ये भयानक दृश्य देख कर पिताजी सन्न रह जाते । कई-कई दिनों तक उनकी आँखों से लगातार ख़ून गिरता रहता और उन्हें रात में नींद नहीं आती । ऐसी मन:स्थिति में उन्होंने सोचा कि वे गाँधीजी या नेहरूजी से मिल कर उन्हें इस बारे में आगाह करेंगे । पता नहीं , पिताजी गाँधीजी या नेहरूजी से मिल पाए या नहीं । इतिहास की किसी किताब में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता । उस ज़माने के समाचार-पत्र भी ऐसी किसी घटना के बारे में ख़ामोश हैं । यदि पिताजी समय रहते गाँधीजी या नेहरूजी से नहीं मिल पाए तो इसका क्या कारण रहा, यह बात अब हम कभी नहीं जान पाएँगे ।
” हम सब अब यह तो जानते ही हैं कि देश की आज़ादी और विभाजन के समय लाखों बेगुनाह लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे । लाखों औरतें विधवा हुई