राजसत्ता के अधिष्ठाता भले हो
रंग भरने का हुनर तुममें कहाँ है।
तुम तो शोषित रक्त कर कामी बने हो।।
करुणा की लयबद्धता को भ्रंश करते।
भ्रंश जीवन के ही अनुगामी बने हो।।
गर्जना से पाप को कर पुण्य साबित।
तुम सहस्त्रों दोष के भागी बने हो।।
राजसत्ता के अधिष्ठाता भले हो।
संचयन के दोष के रागी बने हो।।
ताप को तुमने कहा है शीत कैसे।
शत्रु को तुमने कहा है मीत कैसे।।
टूटती जीवन की साँसे सामने ही।
तुम गरजकर मृत्यु को हो जीत कहते।।
क्या हृदय पाषाण होकर रह गया है।
अश्रु सारा सागरों में बह गया है।।
जो यहाँ है कल सभी इतिहास होंगे।
कौन है जो अमर होकर रह गया है।।
वरुण पाण्डेय