ये रोटियां ही जन्म देती है “अपराध”को
01/05/2008
ये तूफान यू ही नहीं उठे होगे
कहीं पापी पेट की अगन से
क्षुब्ध हो कर कोई बिलखता
चुरा लाया होगा चंद “रोटियां”…!
और ठप्पा लगा दिया हम लोगों ने
उसके वजूद पर कि ये “चोर” है
कोई स्त्री यूँ ही नहीं बनी होगी
“तवायफ़” ये चंद रोटियां ही
ले आयी होंगी इन्हें तन बेचने
और तन ढकने,ये रह गयी वहां…””
वरना कब की मर चुकी होती
या मार दी जाती इस खोखले
समाज के ठेकेदारों के हाथों
अरे..यूं ही कोई नहीं बनता…??
बाहर खड़े कुत्तो से अच्छे तो
भीतर बंधे भेडि़ये है जो इन्हें
रोटी देंगे और तन ढकने को
वस्त्र किंतु बाहर सड़को पर…””
फिरते ये अवारा कुत्ते खुद की
भूख मिटा छोड़ आऐगें इन्हें
भूखे, निर्वस्त्र,निस्सहाय मरने…””
और हम जैसे खोखले इज्जतदार
उन्हें दे आए गालियाँ “वेश्या “की
कोई ऐसे ही फुटपाथ पर नहीं
सोया होगा, और न ही कोई
सड़क पर कटोरा लिए चल पड़ा
ये भी पेट की तूफान से घबरा के…!
छोड़ आए होंगे अपनी ग़ैरत को…””
उन टपरे से बनी बस्तियों में कहीं
और हाथ फैंलाये खड़े हो गये है
देखो न बेशर्मो की तरह ये तुम्हारे
गाड़ियों के सामने या स्टेशन पर…!
फिर भी किसी ने ज़हमत नहीं की
इनके सच को जानने की बस जो
देखा सुना आँख के अंधो की तरह
कान के कच्चें जैसे सही मान गये…!
और हम सबने ये कह नवाज दिया बड़े
गर्व से दुत्कार के “भिखारी” कही का…””!
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दिलशाद सैफी