ले लूंगा संन्यास
बंदरिया आंटी साड़ी बदलती
नित – नित नई- नई
सारे दिन फिर घूमा करती
बाजार- हाट, डेहरी- डेहरी
पान चबाती, कमर झुलाती
चढ़ा के गागल, पहन घड़ी
बतियाते रहती लिए मोबाईल
रखे साथ में पर्स, छड़ी
सबको डर यूं बना ही रहता
जाने कब आ जाए
इस महंगाई में डेली उसको
काफी कौन पिलाए
खूब फेंकती बड़ी- बड़ी वह
बैठी निपट निठल्ली
दो दिन दिखी नहीं क्या कहती
हो आई मुंबई, दिल्ली
और ताव से अंकल जी से
खाना नित बनवाती
झाड़ू लगवाती, कपड़े धुलवाती
बर्तन भी मंजवाती
बंदर अंकल बोले एक दिन
बहुत सहा हरास
आगे और न सह पाऊंगा
ले लूंगा संन्यास
हाथ जोड़ बंदरिया आंटी
बोली- कर दो माफ
अब से मैं भी खो जाऊंगी
कामों में चुपचाप
कमलेश चंद्राकर
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
प्रतिष्ठित अखबार में प्रकाशित
पहली बाल कविता– 1990
94255 0119