कवि का पक्ष-प्रतिपक्ष
सच बताना हे कवि!
कोई सम्बन्ध तो नहीं तेरा
किसी राजनीतिक पार्टी/किसी धर्म/किसी जाति
किसी पशु विशेष से
या ओढ़े रहते हो हर समय मानववादी सोच का दुशाला
हे कवि! गूंगे-बहरों की बस्ती में
तेरी कविता जब बोलती है तो
किसके पक्ष में बोलती है
या मज़दूरों के या फिर पूँजी के हक़ में बोलती है
मैंने देखा है एक दिन तेरी कविता को बतियाते
ज़ख़्मी परिंदे से,
बूढ़ी गंगादेई का दुःख बाँटते,
आवारा कुत्तों से दुबके
खरगोश की सांसों की धुकधुकी को ढाढस बढ़ाते
हवा गर्म और आंधी तेज़ है
हे कवि !
कई दिनों से सूचनातंत्रों में ये चर्चा गर्म है कि
तेरी कविता को देखा गया
राजनीतिक खेमों की चौखटों पर माथा टेकते
सांझ के गलियारे में विलायती दारू गटकते
एक दिन तुम देखें गए
प्रगतिवाद और जनवाद का ढोल पीटते
राजनीति के गलियारों में गोटी फिट करते
और अंधेरी रात में पूंजीवाद के गीत गाते
सच सच बताना हे कवि!
आजकल तेरी कविता किसके पक्ष में खड़ी रही है
जबकि दिनभर खटने के बाद
दाल-भात पाने में गिड़गिड़ाता बच्चा दम तोड़ देता है
और तुम मेरे कवि सपनों की दुनिया के खोये रहते हो।
####
रमेश प्रजापति,24 अक्टूबर,2015