November 17, 2024

वहां जारवा रहते हैं

0

वह अंडमान की यात्रा थी।

अंडमान की खूबसूरती के बारे में तो जितना भी कहा जाए कम है। उस पर तो शायद पूरी किताब लिखी जा सकती है। लेकिन वो बातें फिर कभी।

दिल्ली से जाते समय मुझे सबसे ज्यादा जिस बात का उत्साह था वह थी जारवा से मिलने की उम्मीद, नहीं नहीं.. जारवा को सिर्फ देख भर पाने की उम्मीद।

जारवा इंसानी वजूद की सबसे पुरानी निशानियों में से एक हैं। हजारों बरस पहले की आदिम जिंदगी जीते ये लोग हम जैसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।

लाइमस्टोन गुफाएं अंडमान के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक हैं, और वहां का रास्ता बारतांग के जंगलों से होकर जाता है।

वहां जारवा रहते हैं।

जो गाड़ी हमने पूरी ट्रिप के लिए हायर की थी, उसका ड्राइवर पंकज हमें सारी जानकारियां देता चल रहा था।

यहां आने के लिए स्पेशल परमिट की आवश्यकता होती है जो आपकी गाड़ी का ड्राइवर या एजेंट अरेंज करते हैं। सुबह छः बजे चेक पोस्ट से परमिट वाली गाड़ियां काफिले की तरह निकलती हैं।

हम छः बजे के पहले ही चेक पोस्ट पर पहुंच गए और वहां से भी समय से निकल लिए। रास्ते में गाड़ी को रोकना बिल्कुल मना था क्योंकि रोकने पर आदिवासियों द्वारा हमला किए जाने का खतरा था। वहां की सिक्योरिटी के स्पष्ट निर्देश थे कि गाड़ी को बीच रास्ते में कहीं भी न रोका जाए। साथ ही तस्वीरें लेने की भी सख़्त मनाही थी। कारण ये कि उन्हें अपने जीवन में कोई बाहरी दख़ल पसंद नहीं, और ऐसा कुछ हो तो वो हिंसक हो जाते हैं। कार पर हमला कर सकते हैं और आपके मोबाइल आदि छीन कर आपको नुकसान भी पहुंचा सकते हैं।

जारवा जनजाति भारत सरकार द्वारा संरक्षित है। ये आज भी करीब पचास हजार साल पुराने आदि मानव की तरह रहते हैं। वैसे ही पेड़ों पर बने मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालकर अपने भोजन में इस्तेमाल करते हैं। जंगल में उन्हें पेड़ पौधों
से भोजन मिलता है। साथ ही जानवरों का मांस खाते हैं। शिकार के लिए यह अब भी धनुष बाण और भाले का ही इस्तेमाल करते हैं। इतने घने जंगलों में भी शिकार करने के लिए आवाज सुनकर उसकी दिशा में बाण चलाना एक कला है।

पंकज लगातार जानकारी देता चल रहा था। उसकी बातें सुनते हुए सरपट भागती कार के भीतर मुझे बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि ईश्वर न करे लेकिन अगर किसी वजह से गाड़ी अचानक बंद हो जाए तो हमारा क्या होगा? पहले कभी किसी के साथ ऐसा हुआ होगा क्या? जारवा लोगों का जो वर्णन किया गया था उससे तो यह डर लगना लाजिमी था।

फिर भी, जिस से डर था उसी को देखने के लिए बेकरार थे हम लोग। निगाहें गाड़ी के शीशे के बाहर टिकी हुई थीं।

अचानक पंकज चिल्लाया, “वो देखिए, उस तरफ़” “किस तरफ़ किस तरफ़” हम सब अपनी सीट से उछल पड़े। हमारी पांचों इंद्रियां नैनों में समाहित हो गईं। लेकिन तब तक उन्हें पीछे छोड़ कर गाड़ी काफी आगे बढ़ चुकी थी। हम सब मायूस होकर बैठ गए मानो कोई खजाना हाथ आते-आते रह गया हो। इन जंगलों के उस पार लाइमस्टोन की गुफाएं और मड वॉल्केनो देखने जा रहे थे हम, लेकिन इस समय हमारा सारा ध्यान हजारों बरस पुराने इन जंगलों में हजारों बरस से ज़िंदगी बसर करते जारवा पर था। लग रहा था जैसे महज उन्हें न देख पाने से हमारी समूची अंडमान यात्रा अर्थहीन हो जाएगी।

यूं तो पंकज खुद ही अलर्ट था लेकिन हम हर पांच मिनट पर उसे याद दिलाते चल रहे थे, “पंकज भूलना मत। ध्यान दिए रहना।” और पंकज एक ही जवाब देता चल रहा था, “अरे, दिखेंगे दिखेंगे। आप निश्चिंत रहिए।”

बारतांग के जंगल बहुत ही घने हैं। इन घने जंगलों में बनी काली सर्पीली सड़क पर हमारी कार दौड़ रही थी। मैं खिड़की के उस पार पीछे छूटते जा रहे पेड़ों को देख रही थी। इन घने जंगलों में ही कहीं होंगे जारवा। कैसे दिखते होंगे, कहां रहते होंगे, कैसे होते होंगे उनके घर?

ना जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे अगर इन जंगलों के भीतर जा सकते, उनकी छोटी-छोटी झोपड़ियों को देख सकते, उनकी रसोई में पकते खाने की खुशबू हमारी नासिका तक पहुंच सकती तो कैसा होता। इस समय क्या कर रहे होंगे वे लोग? हम शाम तक अपने होटल पहुंचेंगे और लाइट जला कर अपने काम में लग जाएंगे। यहां जंगल में तो लाइट नहीं है, तो अंधेरा होने के बाद उनकी जिंदगी कैसी होती होगी? यहां माएं अपने बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए तो नहीं कहती होंगी। बच्चे कैसी शरारतें करते होंगे? उन्हें हमारी तरह तमाम दुनिया का इल्म नहीं, उन्हें तो यह भी नहीं पता कि वे भारत देश में रहते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यूजीलैंड इन सब से उन्हें कुछ मतलब नहीं। हमारी तरह घड़ी की सुई पर टिकी जिंदगी नहीं उनकी…. अरे हां, उनके पास तो घड़ी ही नहीं है। तो फिर कैसे बीतते होंगे उनके दिन-रात सुबह-शाम? उनकी जिंदगी खुश-खुश होगी या हैरान-परेशान…..

“देखिए उधर राइट साइड में” पंकज फिर से चिल्लाया। हम सब फिर से उछले, और फिर से मायूस होकर बैठ गए।
कार की रफ्तार इतनी तेज थी कि जारवा की एक झलक देखना भी नामुमकिन लग रहा था।

“क्या पंकज, लगता है हमें कुछ नहीं दिखेगा। कितनी तेज चल रही है गाड़ी। इसमें तो नामुमकिन लगता है।” हम सब मुंह लटका कर चुपचाप बैठ गए। हालांकि जंगल बहुत खूबसूरत था और हम सब अब भी जंगल के भीतर अपनी आंखों को एक्स-रे की तरह से गड़ा गड़ा कर देखने की कोशिश कर रहे थे कि शायद किसी पेड़ पर कोई जारवा चढ़ा हुआ दिख जाए। शायद कहीं उनके बच्चे पेड़ों के नीचे खेल रहे हों। शायद कोई दिख जाए…. ‘प्लीज दिख जाओ, प्लीज दिख जाओ।’ ऊपर से हम लोग उदासीन बनकर भले ही बैठ गए हों, पर अंदर से रोम-रोम यही पुकार रहा था। वो संत कबीर के दोहे की पंक्ति है न, “अंखड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि निहारि” वही याद आ रही थी। शायद आप को पढ़कर हँसी आ रही हो और अजीब लग रहा हो, पर सच में ऐसा ही था।

पंकज ड्राइवर-कम-गाइड का काम करता जा रहा था और मैं अपने मन की आंखों से जंगल के भीतर बने उनके घरों में झांकने की कोशिश कर रही थी। जारवा बच्चे अपनी मां से क्या फरमाइश करते होंगे? क्या खाते-पीते होंगे? उनकी भाषा कैसी होगी? दिनचर्या कैसी होगी? क्या उन्हें पता होगा कि वे किस देश में रहते हैं?

ऐसे तमाम सवाल लिए मैं बाहर निहारती जा रही थी कि तभी अचानक पंकज ने गाड़ी में जोर से ब्रेक लगाया। झटके से गाड़ी रुक गई। सामने दूसरी ओर से आता आर्मी का छोटा ट्रक रुका हुआ था। मैंने पता नहीं किस बेखयाली में कार की खिड़की का शीशा खोल दिया। शीशा खोलते ही किसी पेड़ की मोटी सी वजनदार टहनी तीर की तरह बाहर से आई और मेरी गोद में धपाक से गिर गई। अचानक हुए इस प्रकार से हम सब हतप्रभ रह गए। कुछ समझ में नहीं आया। तभी देखा, कार की सभी खिड़कियों पर दस-पंद्रह जारवा आकर जमा हो गए थे और अपनी बोली में चिल्ला रहे थे। काफ़ी गहरे और चमकदार रंग के उन लोगों के सिर पर पत्ते या कपड़े जैसा कुछ बंधा था। इससे ज्यादा कुछ देख न पाए हम लोग।

“मैडम शीशा चढ़ाइए।” पंकज जोर से चिल्लाया तब जाकर मैं होश में आई। घबराहट में शीशा ऊपर करने का बटन भी नजर नहीं आ रहा था। वो लोग कार के भीतर हाथ डालने की कोशिश कर रहे थे। पंकज ने गाड़ी तेज की और मैंने शीशा चढ़ा दिया। दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि क्या बताऊं। मुड़कर देखा तो वो शोर मचाते हुए दौड़ कार के पीछे रहे थे।

मेरी आंखों के सामने हिंदी फिल्मों के दृश्य घूम गए जिनमें आदिवासी किसी को पकड़कर पेड़ से बांध देते हैं और उसके चारों तरफ हू हा हू हा और झिंगालाला करते हुए गाना गाते हैं। पेड़ से खुद को बंधा हुआ सोचने की कल्पना से ही मुझे झुरझुरी हो आई। काफ़ी देर तक हम सब अपने दिल की बढ़ी धड़कन को संभालते रहे। जब थोड़ा नॉर्मल हुए तब गौर किया कि हमारी मनोकामना पूरी हुई है, और बड़े एडवेंचरस तरीके से पूरी हुई है।

“आहा, आखिर देख लिया जारवा को। उन्होंने हमसे अपनी बोली में बात भी की और इतना सुंदर तोहफा भी दिया।” मैंने अपनी गोद में पड़ी टहनी को उठाकर हँसते हुए कहा। “अब तो वापस जाकर सबको यही बताएंगे कि हमसे बात की जारवा लोगों ने।”

अचानक बेमौसम बरसात की तरह मुझे एक शेर याद आया,

“वो मुखातिब भी हैं करीब भी,
उनको देखें कि उनसे बात करें।”

तो जिनसे मिलने की तमन्ना लेकर चले थे,वो मुखातिब भी थे और करीब भी, लेकिन उनके सामने आने पर हमारी सिट्टी-पिट्टी ऐसी गुम हुई कि उनके तोहफे के बदले कोई रिटर्न गिफ्ट भी न दे पाए।

जंगल के उस पार कार से उतर कर और बोट का सफर करके लाइमस्टोन केव्स तक जाना था। उसकी कहानी फिर कभी।
.
.
.
.
.
.
लाइमस्टोन केव्स देखने के बाद हम फिर से उन्हीं बारतांग के जंगलों से गुजर रहे थे अपनी वापसी के रास्ते पर। पता नहीं क्यों इस वक्त मन कुछ खाली खाली सा लग रहा था। हम सब चुपचाप बैठे हुए थे। कुछ तो थकान भी हो गई थी। बीच-बीच में थोड़ी बहुत बातें कर लेते, हालांकि पापा अभी भी काफी उत्साह में थे।

जारवा की रिहाइश इन बारतांग जंगलों से तो फिर भी हम गुजर जाते हैं। लेकिन पोर्ट ब्लेयर जैसे बसे बसाए शहर से महज करीब पचास किलोमीटर की दूरी पर नॉर्थ सेंटिनल आईलैंड की तरफ जाने के बारे में तो सोच भी नहीं सकते।, जहां रहने वाले नॉर्थ सेंटिनलीज़ जारवा से भी अधिक कट्टर हैं। जारवा की तरह वे भी तकरीबन पचास हजार सालों से इस द्वीप पर प्रागैतिहासिक मानव की तरह ही रह रहे हैं। उनके द्वीप में किसी का भी प्रवेश पूर्णतया वर्जित है, किसी का भी मतलब किसी का भी। बहुत गंभीरता से सोचूं तो यह अविश्वसनीय सा लगता है मुझे कि पोर्ट ब्लेयर से इतनी नजदीक ऐसे आदिमानव रहते हैं जिनके बारे में हम सिर्फ किताबों में पढ़ा करते हैं।

अचानक एक दुर्दम्य इच्छा उठी मन में….. कार का दरवाजा खोलूं और इन जंगलों के भीतर चल पड़ूं। देखूं क्या होता है? क्या सचमुच वो लोग मुझे पेड़ से बांध देंगे? या फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे? अगर मैं यहां से न निकल पाई तो? ऐसे अनेक खयालों में ऊब-डूब हो रहा था मन।

तभी एक जारवा की हल्की सी झलक दिखी, जिसने सिर पर कपड़ा बांध रखा था। मुझे लगा कि मेरा वहम हो शायद। आखिर उनके पास हमारे जैसे कपड़े कहां से आएंगे। पंकज से पूछा तो वो बताने लगा कि सरकार की कोशिशें हो रही हैं कि इन्हें भी मुख्यधारा से जोड़ा जाए। थोड़ी बहुत सफलता भी मिलती दीख रही है।

मैं सोचने लगी, मुख्यधारा तो असल में प्रकृति थी। हमने उसके आस पास बहुत सी धाराएं बनाई और उन्हें मुख्यधारा का नाम दे दिया। पता नहीं जंगलों के इन सहचरों को हमारी वाली मुख्यधारा का हिस्सा बनने में कोई रुचि है भी या नहीं। वे जैसे हैं, उन्हें वैसे ही क्यों न रहने दिया जाए। सच कहूं तो जिनके लिए आजीविका, मनोरंजन, प्रार्थना, दिनचर्या, विद्या और वैद्य सब कुछ प्रकृति ही है, उन्हें उनकी दुनिया में खुश रहने देना ठीक होगा शायद।

पंकज बता रहा था कि ये जोड़ने की कोशिश कई बार उनके लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। कुछ तुच्छ वस्तुओं का लालच देकर उनका या उनकी स्त्रियों का शोषण करने के मामले भी कभी सामने आए हैं। उसने और भी कुछ बातें बताई इस बारे में। सुन कर मेरा मन अजीब सा हो उठा। प्रकृति में जीने वाले जारवा इस शोषण को समझ पाते होंगे क्या? हम अगर उनकी दुनिया में यूं अनाधिकार प्रवेश न करते, उन्हें यूं लालच न देते तो वे ज्यादा सुरक्षित होते शायद। मेरे मन में कुछ देर पहले उनके घरों और दिनचर्या को देखने की जो इच्छा जागृत हुई थी, वो अब दम तोड़ चुकी थी।

.
.
.
.
.
हमारी कार जंगलों को पार करने के करीब थी। मैं अपनी सभ्य और सुसंस्कृत दुनिया में वापस लौट रही थी। कुछ देर में हम सब अपने होटल पहुंच जाएंगे और अगले दिन के प्रोग्राम की प्लानिंग करने लगेंगे। बारतांग और नॉर्थ सेंटिनल के बाशिंदे अपनी दुनिया में खुश होंगे। उन्हें पता भी नहीं होगा कि कोई इस वक्त उनके बारे में इतनी गहराई से सोच रहा है। जारवा खुश हैं अपने जंगलों में। सेंटिनल के रहवासी भी खुश हैं।

कार चेक पोस्ट पर पहुंच चुकी थी। मैंने पलट कर उस रहगुजर को देखा जिससे अभी गुजर कर आई थी। महसूस हुआ जैसे जंगल के मेजबान हमें विदाई दे रहे हैं। मैंने भी उन अनचीन्हे अनजाने बंधुओं से विदा ली, ‘चलते हैं दोस्तों, खुश रहना।’

तीन बरस बीत चुके हैं, लेकिन वो सफर और वो एडवेंचरस मुलाक़ात मेरे जेहन में उतनी ही तरोताज़ा है। लेकिन सच कहूं तो कभी कभी लगता है जैसे हम सब अपने एडवेंचर के लिए उनकी निजता को सार्वजनिक कर रहे हैं। दोबारा अंडमान गई अगर, तो शायद उस रहगुजर से फिर गुजरने से पहले कई बार सोचूंगी।

इस वक्त घड़ी में रात के आठ बजे हैं। मैं कल्पना कर रही हूं, जंगलों के भीतर जारवा की दुनिया में, सेंटिनेल्स की दुनिया में इस वक्त क्या हो रहा होगा। आपको क्या लगता है?

-हर्षा श्री

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *