राजधानी में सवाल उठ रहा है
राजधानी में सवाल उठ रहा है
कि किसानों ने धोती
क्यों नहीं पहन रखी है मैली-कुचैली,
क्यों नहीं है उनका गमछा तार-तार,
जैसा दिखता है किताबों में ?
सवाल है कि
उनके हाथों में लाठी क्यों नहीं है
और कंधों पर गठरी,
जैसी दिखती है किताबों में ?
क्यों नहीं वे पहुँचे यहाँ
याचक की तरह
जैसे फ़िल्मों में पहुँचते हैं
एक साहूकार के पास
सकुचाते-सहमते ?
एक काग़ज़ पर अँगूठा लगा देने के बाद
जैसे वे होते हैं कृतज्ञ एक महाजन के प्रति
वैसे क्यों नहीं हुए अहसानमंद
कि उन्हें राजधानी की सड़कों पर चलने दिया गया
पीने दिया गया यहाँ का पानी
यहाँ की हवा में साँस लेने दिया गया
क्यों नहीं उन्होंने डर-डरकर बहुमंज़िली
इमारतों को देखा
और थरथराते हुए सड़कें पार की
जैसे फ़िल्मों में करता है एक किसान गाँव से
शहर आकर ?
सवाल है कि ये किस तरह के किसान हैं
जो सीधा तनकर खड़े होते हैं और
हर किसी की आँख में आँखें डालकर बात
करते हैं ?
ये किस तरह के किसान हैं
ये किसान हैं भी या नहीं !
———— संजय कुंदन
(पृष्ट 99-100, ‘किसान आंदोलन: लहर भी, संघर्ष भी, जश्न भी’- संपा० बलवंत कौर, विभास वर्मा, नवारूण प्रकाशन) तस्वीर ग़ाज़ीपुर बॉर्डर की ट्विटर से