दिल में उम्मीद का दिया जलाए रखिए…
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत की मिट्टी के कण कण में उत्सवधर्मिता की प्रतिध्वनियां हैं, जिनसे राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव के स्वर मुखरित होते हैं। सत्य, संयम, अहिंसा और त्याग इन चार स्तम्भों पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है। यही हमारे अस्तित्व की आत्मा है। भारतीय सभ्यता मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानती है और भारतीय संस्कृति उसको मानव बनने का मार्गदर्शन कराती है। भारतीय संस्कृति आस्थाशील संस्कृति है। हमारी संस्कृति पर अनेक प्रकार के प्रभाव पड़े हैं और आघात भी पहुंचे हैं, परन्तु वे उसके प्रवाह को तोड़ने में सफल नहीं हुए हैं।वर्तमान दौर में चहुँऔर जातीय उन्माद, साम्प्रदायिक तनाव, असामाजिक वातावरण, अनैतिकता, शोषण, हिंसा, दुराचार और अशांति के कारण हमारी युगों पुरानी परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को भारी चोट सहनी पड़ रही है। इस विरासत को कोरोना त्रासदी ने भी खासा नुकसान पहुंचाया है।
भारत कितना भी विपन्न रहा हो लेकिन उसकी समस्त सांस्कृतिक परम्पराएं, धर्मग्रन्थ सभी प्रकाश को ही समर्पित है। दीपक प्रकाश का पर्याय है। मनुष्य ने प्रकाश का यह विकल्प अपने अंदर के प्रकाश की प्रज्ञा से खोजा है। कोई भी शुभ कार्य हमारे यहां बिना दीप प्रज्ज्वलन पूर्ण नहीं होता है। दीपक मनुष्य की प्रकाश चेतना का ही प्रतीक है। दीप हमारा लोक भी है, आत्मलोक भी और परलोक के प्रति प्रकाश की कामना भी। दीप चाहे आंतरिक हो या लौकिक, हमारे जीवन का प्रथम प्रकाश भी वही है। भारतीय परंपरा में तो दीपावली को प्रकाश-पर्व कहा गया है। दीप पर्व, याने प्रकाश की अद्भुत छटा। विजयदशमी के जाते ही दीपावली की दस्तक मन मस्तिष्क में होने लगती है। कोरोना त्रासदी के कारण यह दस्तक कमजोर-सी लगने लगी है। मन में अनिश्चय भरी उदासी घर कर गई है। महामारी जन्य बेरोजगारी ने हमारी उत्सवधर्मी प्रकृति पर ग्रहण लगा दिया है।लगता है हमारे दिलों में अजब-सा सन्नाटा भरा अंधेरा छाया हुआ है। हमारे सामने प्रकाश-पर्व दीपावली उपस्थित होकर सभी तरफ प्रकाश फैलाने की प्रेरणा दे रहा है। अंधकार वेदना है, प्रकाश आनन्द है। तभी कहा गया है – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ तो कभी ‘अप्प दीपो भव:’। दीपपर्व दीपावली केवल धन की चमक-दमक ही नही है, ज्ञान की रोशनी, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सौहार्द्र के साथ ही पर्यावरण का प्रकाश और रिश्तों की चमक भी हैं। यह सन्देश देता है कि अब हमें संकल्प करना होगा कि कैसा भी विचलन आये, मन की शक्ति को कमजोर नहीं, संकल्पित करना होगा कि मन की एकाग्रता और हृदय की तन्मयता न टूटे, संकल्प करना होगा कि उम्मीद का नन्हा-सा दिया कभी बुझने न पाए। इस दीपावली अपने घर-आंगन के साथ तन-मन-जीवन और जन-जन को भी आलोकित करें। हमारी अस्मिता पर लगे जातीय उन्माद, साम्प्रदायिक तनाव, असामाजिक वातावरण, अनैतिकता, अशांति, हिंसा रूपी ग्रहण से हमारा राष्ट्र और समाज मुक्त हो जाये। हम सबको उजाले बांटकर इस पर्व को सार्थक बनाएं।
दुनिया में कुछ ऐसे बुनियादी परिवर्तन हो रहे हैं, जिन्हें समझना मुश्किल है। शायद यह कि सभ्यतागत परिवर्तन तो होंगे, पर जिंदगी वैसी ही रहेगी। उसके सुख-दुःख और संवेदनाएं नहीं बदलेगी। जीवन को समता, समानता, स्वतंत्रता की बुनियादों पर खुद को ही रचना होगा। सदियों से यह परम्परा रही है कि सभ्यता की विकास यात्रा को मनुष्य और प्रकृति के संघर्ष और प्रकृति पर मनुष्य की विजय के रूप में जाना-समझा जाता रहा है। यह गलत सोच थी। मनुष्य ने प्रकृति से कभी संघर्ष नहीं किया, वह प्रकृति से कभी जीता भी नहीं। पर प्रकृति के साथ जब-जब भी मनुष्य ने अलगाव किया, मनुष्य परास्त ही हुआ। प्रकृति से लड़ा नहीं जा सकता। केवल उसके साथ मित्रवत रहकर ही हम अपना अस्तित्व बचा सकते हैं। हम अपने प्रकाश को फैलाना चाहते हैं तो हमें पहले तपना पड़ेगा। प्रकाश पैदा करने के लिए हमारे भीतर चिंगारी होना चाहिए, यदि नहीं है तो देश व समाज हमें याद नहीं रखेगा।
मनुष्य ही नहीं, प्राणी मात्र को अंधेरा रास नहीं आता। वह प्रकाश के लिए छटपटाता है। गहरी स्याह काली अमावस्या के दिन दीपावली होती है। इस शुभ दिन सब पुरुषार्थ रूपी रोशनी का दीपक जलाकर घर-द्वार, आंगन ही नहीं अपने अंतर्मन में भी उजाला भरें।शरीर, मन , बुद्धि का कौशल वर्षभर दिखाते रहें। दीप-पर्व पर यह तैयारी मानव सभ्यता की ही नहीं, मानवीयता के विकास की भी गाथा है। चेतना जब जागृत होगी तो यह भाव प्रकाशित होगा कि स्वयं को प्रकाशित कर लेना काफी नहीं, अपने समाज, अपने देश को प्रकाशित करना होगा। हमारी शक्ति, हमारा सामर्थ्य जब पूरे समाज मे अवतरित होगा तभी सामूहिक जीवन में हम रोशनी भर पाएंगे। राष्ट्र का निर्माण ऐसी ही उद्भासित चेतनाओं से होता है और राष्ट्रों की सामूहिक चेतना ही विकसित होकर विश्व को एक सुखद नीड़ बना देगी ; तभी हम समझ सकेंगे कि विनाश और विकास, संहार और सृजन की निरंतरता और शाश्वतता। अंधेरा जितना घना होता है, उजाले की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है। हम सब मिलकर इन संभावनाओं को तलाशें। अपने भीतर दबी-सोई अन्नंत उम्मीदों को जगायें। आइए, इस दिवाली हम उम्मीदों के दिये जलाएं !!!
◆ राजकुमार जैन राजन
चित्रा प्रकाशन
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