हँसी की भाषा
आज से करीब बीस वर्ष पहले लिखी एक कहानी
वे सिर्फ़ मेरे एक अकेले के मामा नहीं थे, बल्कि हमारे मोहल्ले के मेरी उम्र तथा मुझसे छोटे-बड़े सभी बच्चों के मामा थे। वे हमारे प्रिय मोहसिन मामा थे। उनका नाम हमारे गाँव में प्रचलित नामों से बेशक़ थोड़ा अलग था लेकिन हमें कभी नहीं लगा कि वे हमसे अलग हैं।
बचपन में पिताजी के अलावा मोहसिन मामा के कंधों पर ही मैं सबसे ज़्यादा चढ़ा, खेला और आकाश को छूने की कोशिश की। उनकी ही बाँहों का झूला मैंने सबसे अधिक झूला।
मोहसिन मामा कौन थे, कहाँ से आए थे, वे हमारे गाँव में कब से रह रहे थे, यह सब हम बच्चों को मालूम नहीं था। हमें यह सब जानने की ज़रूरत भी नहीं थी। माँ बताती हैं कि जब मैं एक-डेढ़ साल का था तब मोहसिन मामा अपनी वृद्धा माँ के साथ यहीं हमारे गाँव में रहने के लिए आए थे। उस समय उनकी उम्र यही कोई अठारह-उन्नीस बरस रही होगी।
जब वे हमारे गाँव में आए तब उनके रहने का कोई ठिकाना नहीं था। ऐसे में मेरे पिताजी ने उन्हें पनाह दी।
हमारा घर काफी बड़ा था। मोहसिन मामा हमारे घर के आख़िरी छोर पर बियारा में बने पाँच कमरों वाले लंबे-से घर के आख़िरी कमरे में रहते थे। शुरू के दो कमरे गाय-बैलों के कोठे थे। उसके बाद वाले कमरे में दाना-भूसी, खल्ली-चूनी रखते थे। अगले कमरे में खेत-खलिहान में काम आने वाले नांगर-बक्खर, टंगिया-कुल्हाड़ी और लकड़ी-लोहे के अन्य सामान रखते थे। आख़िरी वाला कमरा मोहसिन मामा को रहने के लिए दिया गया था।
मोहसिन मामा चूड़ियाँ बेचते थे। वे अपनी माँ के साथ गाँव के साप्ताहिक बाज़ार में पसरा लगाने के अलावा आसपास के गाँवों में घूम-घूमकर चूड़ियाँ बेचते और पहनाते थे। उस समय हमारे गाँव के अलावा आसपास के एक भी गाँव में बाज़ार नहीं लगता था।
वे सप्ताह में एक दिन शहर से चूड़ियाँ ख़रीदकर लाते थे और बाक़ी के छह दिन गाँवों में घूम-घूमकर बेचते थे। उस समय मोहसिन मामा के पास साइकिल नहीं थी। पिताजी ने उन्हें अपनी एक पुरानी साइकिल देने की कोशिश की थी लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। उनका कहना था कि गाँव की सड़कें ख़राब हैं। जगह-जगह गड्ढे हैं। ऐसे में उनकी चूड़ियों के टूटने का ख़तरा था।
मोहसिन मामा एक बड़े-से मोटे कपड़े में गट्ठर के रूप में चूड़ियाँ बाँधते थे और कंधे पर लटकाकर पैदल फेरी लगाते थे, जबकि उनकी माँ बाँस की एक गोल टोकरी में बोझा बनाती थीं और सिर पर बोहकर चलती थीं।
मोहसिन मामा की ज़िन्दगी अपनी माँ के साथ अच्छी-ख़ासी गुज़र रही थी, लेकिन उनके नसीब में शायद माँ का प्यार ज़्यादा दिनों के लिए नहीं लिखा था। एक बार जब मोहसिन मामा चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए शहर गए हुए थे तभी उनकी माँ अल्लाह को प्यारी हो गईं। उनके कफ़न-दफ़न में पिताजी सबसे आगे रहे। मोहल्लेवालों ने भी साथ दिया।
मोहसिन मामा चाहते तो अपने देश लौट सकते थे, लेकिन उन्हें हमारे घर और गाँववालों का ऐसा साथ और प्यार मिला कि वे यहीं के होकर रह गए। पिताजी ने सरपंच से मिलकर उनके लिए राशनकार्ड बनवा दिया था और विभिन्न चुनावों में वोट डालने के लिए मतदाता सूची में उनका नाम भी लिखवा दिया था। कुल मिलाकर मोहसिन मामा अब हमारे गाँव के ही निवासी हो गए थे। पिताजी ने उनके मकान बनाकर रहने के लिए आबादी ज़मीन की भी मांग की थी। सरपंच महोदय ने जगह की कमी होने का हवाला देते हुए फिलहाल मना कर दिया था। ऐसे में मेरे पिताजी ने बीच बस्ती में पड़ी हमारी ख़ाली ज़मीन में से क़रीब दो डिसमिल मोहसिन मामा को घर बनाकर रहने के लिए दे दी थी। मोहसिन मामा अपना ख़ुद का घर बनाने के लिए अपने ख़र्चों पर कटौती कर रुपए संग्रह कर रहे थे।
मोहसिन मामा पिताजी का लिहाज़ करते थे और माँ से संकोच करते थे जबकि माँ उन्हें अपना छोटा भाई मानती थीं। सिर्फ माँ ही नहीं बल्कि मोहल्ले की सारी औरतें उन्हें अपना भाई मानती थीं। इसीलिए वे हम सबके लिए मामा थे।
मामा ज़्यादा बोलते नहीं थे। माँ बताती हैं कि शुरू-शुरू में मामा को छत्तीसगढ़ी तो दूर, ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं आता था। यही हाल उनकी माताजी का भी था। धीरे-धीरे करके सीखे। उनके कम बोलने की यह भी एक वज़ह थी। हम बच्चे उनके मुँह से सिर्फ़ यही सुनते थे जब वे गाँव में फेरी लगाते थे—अम्मा… चूड़ियाँ….बहना…रंग-बिरंगी चूड़ियाँ…
मोहसिन मामा इसे एक लय में बोलते थे। उस लय की हम बच्चे नकल किया करते थे और उसी लहज़े में हम भी कहते थे– अम्मा… चूड़ियाँ….बहना…रंग-बिरंगी चूड़ियाँ…
दरअसल हमें लगता था कि मोहसिन मामा को इससे ज़्यादा और कुछ बोलना ही नहीं आता।
मोहसिन मामा हमारी इस नकल से कभी नाराज़ नहीं होते थे बल्कि मुस्कुरा देते थे। कभी-कभी खिलखिलाकर हँस देते थे। यही मुस्कुराहट और हँसी उनकी असली भाषा थी। इसी भाषा में वे हमसे बातें किया करते थे। मैं जब यह बात अपनी माँ को बताता था तब वे कहती थीं कि मुस्कुराहट और हँसी दुनिया की सबसे सरल भाषा है जिसे हर कोई आसानी से सीख सकता है और बोल सकता है।
मोहसिन मामा का चूड़ियाँ पहनाना हमारे गाँव की पौनी-पसारी में शामिल हो गया था। हमारे गाँव में उन्हें चूड़ियाँ पहनाने के एवज़ में नगद बहुत कम मिलता था। धान ही ज़्यादा मिलता था। किसी के घर से दाल-चावल, किसी के घर की बाड़ी से साग-सब्ज़ी तो किसी के घर से ज़रूरत की अन्य चीज़ें। मोहसिन मामा को किराना दुकान से नमक, केरोसिन तथा साबुन-सोडे के अलावा और ज़्यादा कुछ ख़रीदते हुए कभी नहीं देखा। वे खाना भी बहुत कम बनाते थे। वे गांव में जिस किसी के घर भी चूड़ियाँ पहनाने के लिए जाते थे तो वहाँ उन्हें चाय-नाश्ता और भोजन अवश्य ही मिल जाता था।
त्यौहार के दिनों में कई घरों से उन्हें निमंत्रण मिलता था। मीठे पकवान और रोटियाँ इतनी मिलती थीं कि वे खा नहीं पाते थे। थैलियाँ भर-भर उन्हें रोटियां मिलती थीं, जिसे वे चार-पाँच दिनों तक खाते तब भी ख़त्म नहीं होती थीं। वे हम बच्चों को बुला-बुलाकर खिलाते थे।
हर त्यौहार के अवसर पर हमारे घर के आँगन में ही लड़कियां और महिलाएँ चूड़ियाँ पहनने के लिए इकट्ठा होती थीं। कई बार तो दूसरे गाँव की महिलाएं भी सुबह-सुबह हमारे घर धमक जाती थीं। मोहसिन मामा चूड़ियाँ इतने सलीक़े से पहनाते थे कि सारी महिलाएँ उनसे ख़ुश रहती थीं। पहनाते समय न तो चूड़ियाँ ज़्यादा टूटती थीं और न ही महिलाओं की कलाइयाँ चुभती थीं।
एक बार ऐसा हुआ कि मोहसिन मामा करीब पँद्रह दिनों के लिए गाँव से ग़ायब हो गए। हम सब बच्चे हैरान ! पूछने पर कोई ठीक से बताता ही नहीं था। पिताजी से संकोच और डर के कारण पूछ नहीं पाते थे। माँ से पूछते तो वह सिर्फ़ इतना बतातीं कि वे अपने ‘देश’ चले गए हैं। ‘देश’ का ठीक-ठीक अर्थ हमें तब मालूम ही नहीं था। गाँव-शहर की बात होती तो समझ भी जाते लेकिन यह ‘देश’ क्या बला है, जानते ही नहीं थे।
इससे पहले कि हम बच्चे उन्हें भूल जाते, मोहसिन मामा लौटकर आ गए थे। लेकिन वे अकेले नहीं आए थे, बल्कि साथ में अपनी पत्नी भी लाए थे। तब हमें पता चला कि मोहसिन मामा विवाह करने के लिए ही अपने ‘देश’ गए थे और तभी हमें यह भी पता चला कि उनका ‘देश’ कोई अरब-अमीरात नहीं बल्कि गुजरात का कोई सरहदी इलाका था।
हमारे मोहल्ले के लोगों को जैसे ही पता चला कि मोहसिन मामा अपने साथ दुल्हनिया लाए हैं तो उसे देखने और बधाई देने के लिए हमारे घर में मजमा लग गया। ख़ासकर महिलाओं और बच्चों की भीड़ लग गई।
मोहसिन मामा जो गोलमटोल और गोरी मामी लाए थे, उसका नाम कुलसुम बानो था। यह नाम हम बच्चों को बड़ा विचित्र लगता था। भला यह भी कोई नाम है ! कुलसुम-कुलसुम… गुमसुम-गुमसुम…इसे एक गीत की तरह गाकर हम कुलसुम मामी को चिढ़ाते थे लेकिन वे बुरा नहीं मानती थीं। वह भी मोहसिन मामा की तरह मुस्कुरा देती थीं।
हमेशा चुप रहने वाले मामा के कमरे से अब देर रात तक हँसी की आवाज़ें आने लगीं। घर में सबसे छोटा और लाडला होने के कारण मैं सबका चहेता तो था ही, अब कुलसुम मामी की भी आँख का तारा बन गया। यहाँ तक कि स्कूल से मिला होमवर्क भी सुबह और शाम मैं मामी के कमरे में जाकर करने लगा।
मोहसिन मामा और कुलसुम मामी आपस में जिस भाषा में बातें करते थे, वह हमारे पल्ले नहीं पड़ती थी। एकमात्र हँसी की भाषा ही मुझे समझ में आती थी।
शुरू के मात्र एक महीने ही कुलसुम मामी घर में रहीं। बाद में वे भी मामा के साथ चूड़ियाँ पहनाने के लिए जाने लगीं।
कुलसुम मामी के आने के बाद ही हमें पता चला कि ईद-बकरीद और नमाज़ क्या होती है ? मोहसिन मामा को नमाज़ पढ़ते कभी नहीं देखा था। कुँवार नवरात्रि में माँ ने जब उन दोनों की सलामती के लिए गाँव के शीतला मंदिर में घी के ज्योत जलवाए तो कुलसुम मामी माँ से लिपटकर फफक-फफककर रोने लगीं। इतनी ख़ुश हुईं कि उस दिन सेवई बनाकर मोहल्लेभर में बांटा।
क़रीब सालभर बाद ही कुलसुम मामी के शरीर पर अचानक परिवर्तन आने लगा। वे गोलमटोल तो थीं ही, उनकी देह और फूलने लगी थी। इस बदलाव से जहाँ हम बच्चे हैरान-परेशान थे वहीं कुलसुम मामी सहित माँ और मोहल्ले की महिलाएं ख़ुश थीं।
छह-सात महीने के बाद जब कुलसुम मामी का शरीर बहुत ज़्यादा भारी हो गया तब उन्होंने दूसरे गाँवों में चूड़ियाँ पहनाने के लिए जाना बंद कर दिया। एक समय ऐसा भी आया जब मामी को घर का कामकाज करने में भी परेशानी होने लगी। ऐसे में उन दोनों ने फिर से अपने ‘देश’ जाने की ठान ली। माँ ने उन्हें काफी समझाया कि यहीं रहो, सबकुछ अच्छे-से निपट जाएगा, देखरेख में कोई कमी नहीं आएगी। फिर भी मोहसिन मामा नहीं माने। बोले कि मामी के हल्का हो जाने के सप्ताह-दस दिन बाद ज़रूर लौट आएंगे। हाँ, इतना वादा किया कि ख़ुशख़बर देने तार ज़रूर भेजेंगे।
क़रीब पंद्रह दिन बाद मोहसिन मामा का तार तो नहीं आया, अलबत्ता एक लिफ़ाफ़ा ज़रूर आया जिसमें उन्होंने घर में नए मेहमान के रूप में बेटी आने का संदेशा लिखा था और साथ में यह भी लिखा था कि अगले पंद्रह दिनों में वे तीनों फिर लौट रहे हैं।
तब उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि उस समय का माहौल किसी बात को लेकर तनावभरा है। वे तीनों गाँव लौटने के लिए ट्रेन में सवार हो गए। बीच रास्ते में ही भोपाल के आसपास पूरी ट्रेन दंगाइयों का शिकार हो गई।
मोहसिन मामा अकेले लौटे। उनकी पूरी दुनिया लुट चुकी थी। तीन-चार दिनों तक वे बिना कुछ खाए-पीये गुमसुम-गुमसुम अपने कमरे में ही पड़े रहे। फिर अचानक अगली सुबह जब हम सब सोकर उठे भी नहीं थे कि मोहसिन मामा कभी न लौटने के लिए कहीं चले गए। उनके जाने के साथ ही उनकी हँसी की वह भाषा भी चली गई…
किशन लाल