November 18, 2024

अब नहीं मिलते शब्द
जिनमें भरी हो आग
या रोशनी
मैं दीवानाबार टकराती हूं सिर
उस आसमान से
जिसके पास कोई सूरज नहीं
ना ही सफेदी का चौंधयाता उजाला

उबलता आग का दरिया
कैसे हहराता चला आता है
निगलने
शेष रही कुछ हरियाली

मेरे ठंडी पड़ चुकी देह पर
शोक प्रकट करने आई है दिशाएंँ
बुलबुलों की शक्ल में

हवा के बगूले उठा लाए हैं
कुछ सूखी पत्तियांँ
और पारदर्शी
धूल की दीवार

मैंने रंग तलाशे
जिनकी खो गई है पहचान

ना पेड़ हरे रहे
ना आसमान नीला
सुबह की धूप
अब नहीं पिघलती सोने सी
धुंध की हथेलियों में
अब नहीं दिखाई देती
चित्तीदार कोई काली पीली
तितली

सब कुछ वैसा ही है
जैसा इतिहास के पन्नों से झांकता
दिखाई देता है
फिर भी नहीं बचा
कोई कोरा कागज
जिस पर बनाई जा सकें
कुछ शक्लें
जानवरों की
मोरों की
खिले जंगली फूल और
टपकते महकते हुए महुए की

मैंने रेत को पिघलते देखा है
आज की रात
दूधिया ख़ामोशी में
डूबी है हर सांस

अंगड़ाई लेकर जाग गए हैं
आग के पहाड़
और थरथरा रहा है
पारे की मानिंद
मेरे सब्र का इम्तिहान!
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[मेरे संग्रह “शब्द की हथेलियों में” से]
©–पद्मासिंह

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