दिन आए फिर
दिन आए फिर तरह- तरह से
ठंड भगाने के
आंख, नाक को छोड़
सभी अंग बंद कर जाने के
मन भरता ना चाहे अंगीठी
जितना भी हम तापें
हा बाबा इस कड़क ठंड में
बदन समूचा कांपे
सुबह- सुबह का अजी क्या कहना
गजब ठुनठुनी लाती
हवा जो आती पीन चुभाती
धूप गुनगुनी भाती
शॉल, कोट, जैकेट, स्वेटर और
मफलर, टोप, रजाई
कड़क ठंड से बचने सबने
ऐसी फौज जुटाई
डंके- डंके हुए दिन और
बांस- बांस भर रातें
और न कोई गरमी सा ही
कहे- दुपहरी काटें
पंखे, कूलर कुंभकर्ण से
मार रहे खर्राटे
और बेचारे कुल्फी वाले
नजर कहीं ना आते
रात जो आती करते आती
खिड़की, दरवाजे बंद
औ’ गलियों में भर सन्नाटे
कर देती है दंग
कमलेश चंद्राकर
( सर्वाधिकार सुरक्षित )