द डायरी ऑफ के यंग गर्ल-ऐन फ़्रैंक
अनुवाद-नीलम भट्ट
समीक्षा- आरुषि
प्रकाशक-मंजुल पब्लिशिंग हाउस
डायरी पढ़ने का यह पहला मौका था। इस डायरी ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया, कई दिनों तक यह दिमाग मे घूमती रही और घूमती रही वो ‘ऐन फ़्रैंक’ एक प्यारी सी लड़की की बातें।
काश तुम कुछ और महीने जिंदा रह जाती ऐन फ़्रैंक तो तुम आजाद होती, कितनी जिजीविषा थी तुम्हारे अंदर।एक अज्ञातवास में भी तुम हर चीज़ को लेकर कितनी पॉजिटिव थी,कितनी उत्सुक थी हर उस चीज़ को लेकर जितनी तुम्हारे उम्र के हर बच्चे होते हैं।
पर अफसोस नियति ने तुम्हारे लिए कुछ और ही तय कर रखा था वो था ‘असमय मृत्यु’।
इस डायरी को किसी महान लेखक ने नहीं लिखा है, इसे लिखा है 13 वर्ष की एक प्यारी बच्ची ऐन फ़्रैंक ने और यह डायरी ने उन्हें दुनिया से उनके रुखसत के बाद उन्हें महान बना दिया।इसे मूलरूप से डच भाषा में लिखा गया है और अबतक सरसठ(67)भषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है तथा इसकी तीन करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं।
हर डायरी की तरह ही ऐन फ़्रैंक की डायरी भी एक दोस्त जैसी ही है वो बातें जिन्हें हम किसी से कह नहीं पाते, वो गुस्सा जो किसी पर उतारा नहीं जा सकता, कुछ रहस्य, कुछ सपने सब स्याही के रंग में शब्दों के साथ डायरी पर ऐन फ़्रैंक बहुत ही खूबसूरती से उतारती चली गई हैं। उन्होंने अपनी प्यारी सी डायरी का नाम ‘किट्टी’ रखा है।
कुछ बातें डायरी से अलग-
ऐन फ़्रैंक का जन्म जर्मनी के फ्रेंकफर्ट में एक यहूदी परिवार में 12 जून 1929 को हुआ था।उनके परिवार में उनके पिता ऑटो फ्रैंक, माँ एडिथ और बड़ी बहन मारगेट थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय एडॉल्फ हिटलर के तानाशाही रवैया के कारण उन्होंने अपनी जर्मनी की नागरिकता खो दी और उनका पूरा परिवार नीदरलैंड के एम्स्टर्डम में आ गया। कुछ समय पश्चात नाजियों में नीदरलैंड पर कब्जा कर लिया।
उनके तेरहवें जन्मदिन 12 जून 1942 को उनके जन्मदिन के तोहफे में अन्य तोहफों के साथ यह डायरी भी मिली। इस डायरी में ऐनी फ़्रैंक ने पहली बार कुछ लाइनें 12 जनवरी 1942 को ही लिखी हैं।
ठीक उसी दिन जर्मनी से एक चिट्ठी आती है। यह उनकी बड़ी बहन मारगेट के कॉल अप नोटिस था।परिवार का कोई सदस्य अपनी बेटी को यातना शिविर में नहीं भेजना चाहता था इसी लिए पूरा परिवार आनन फानन में मामूली जुगाड़ के साथ 9 जुलाई 1942 को अपने पिता के दफ्तर में गुप्त रूप बाध्य होकर रहने आ गया। इस जगह पर ऐन फ़्रैंक और उनके परिवार ने दो वर्ष एक महीना बिताया। इस अज्ञातवास में उन्होंने यह डायरी लिखा है।ओटो फ़्रैंक के दफ़्तर में बहुत कम लोग काम करते थे मि. कुगलर, मि. क्लेमन और बेप वुशकल जिनको यहां छिपने के बारे में जानकारी थी।यह जगह एक गोदाम जैसी थी और वहां दालचीनी, लौंग और कालीमिर्च पीसी जाती था।यहां छिपने का एकमात्र उद्देश्य था किसी भी तरह जिंदा रहना। अगर हम एक साथ जिंदा हैं तो अन्य कोई चीज़ विशेष मायने नहीं रखती।
ऐनी फ़्रैंक जब अपना घर छोड़ रही थीं तो मामूली सामान में उन्हें यह डायरी उनको अपने साथ ले जाना बहुत जरूरी लगा इसकी दो वजहें थीं। एक तो उनके कोई दोस्त नहीं थे और दूसरा वो मानती थीं कागजों में लोगों से ज्यादा धैर्य होता है।
धीरे धीरे गोदाम में एक दो परिवार और रहने आ गए। दो साल एके महीना बिना खिड़की खोले, बिना खुले हवा और धूप के भी कोई इतना खुशदिल कैसे रह सकता है इस डायरी में लिखा गया है। उम्मीद की एक लौ हर मुसीबत पर भारी पड़ती है कि एक दिन हम आजाद हो जाएंगे।
रोज के खाने के बारे में जिक्र से लेकर अज्ञातवास में होनेवाली आम दिक्कतें, अपनी माँ-पिता के साथ उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध हर विषय के बारे में ऐनी फ़्रैंक ने लिखा है।उनके लेखन से ऐसा लगता है वो अपने पिता के ज्यादा करीब रहीं अपनी माँ के अपेक्षा। कहीं कहीं तो अपनी डायरी में स्त्रियोचित बातों पर खुलकर चर्चा की हैं अपनी अज्ञानता, अपनी शंकाएं अपने हम उम्र दोस्त से उस विषय पर चर्चाओं का बखूबी बयान किया है।इसे पढ़कर एक बार को ऐसा लगता है कि उम्र के एक दौर में हर मष्तिष्क में एक प्रकार की ही शंकाएं होती हैं और बच्चे इस उम्मीद में रहते हैं कि उनके माता पिता इस विषय पर खुल के बात करें, अगर उनको अपने माता पिता से कोई जानकारी नहीं मिलती तो कहीं न कहीं से उस विषय के बारे में वो उसे बस जानने की चाह रखते हैं।
अज्ञातवास में ऐसा भी समय आता है जब रोज एक ही प्रकार का खाना मिलता है , किसी दिन इतना कम की केवल काम चलाया जा सके।सँग्रह की चिंता, हमारे पास कितना भोजन बचा है?ये और कितना दिन चल सकता है ?उसके बाद क्या होगा?
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डायरी के पन्ने बदलते चले जाते हैं उम्र बढ़ती जाती है और डायरी 1 अगस्त 1944 को अंतिम बार लिखी जाती है।
4 अगस्त 1944 को उन आठ लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता है और उन्हें एम्स्टर्डम की जेल में लाया जाता है फिर उन्हें वेस्टरबोर्क के शरणार्थी शिविर में भेज दिया जाता है। उसके बाद उन आठ लोगों में से किसी को विषैली गैस चैंबर में मार दिया जाता है तो किसी को मौत के परेड में जबरदस्ती हिस्सा लेने के लिए विवश किया जाता है, किसी को बंदी शिविर ले जाया जाता है, कुछ की मौत भूख और थकावट से हो जाती है।मार्गोट और ऐन को बेगर्न बेल्सन शिविर ले जाया गया जहां सर्दियों में गंदगी और टाइफस से उनकी मृत्यु हो गई। 12 अप्रैल 1945 में ब्रिटिश टुकड़ी ने इस शिविर के अन्य लोगों को मुक्त करा लिया।
आठ लोगों में अगर कोई एक व्यक्ति जीवित बचा तो वो थे ऐन फ़्रैंक के पिता ओटो फ़्रैंक।मीप ने उनकी बेटी की डायरी को सुरक्षित रखा था और ऐन के मरने के बाद जब ऑटो की वापसी हुई तो उन्होंने उनकी बेटी की डायरी उनको सौंप दी।उनके पिता ने इस डायरी को छपावने का निश्चय किया और अब तो यह डायरी करोड़ो पाठकों तक यात्रा कर चुकी है।
यह डायरी एक तरह से अनुभवों का दस्तावेज है कि हिटलर ने द्वितीय विषयुद्ध के समय नाजियों से यहूदियों पर कितना अत्याचार करवाया, नरसंहार किया, केवल इसलिए कि वे एक विशेष जाति से सम्बन्ध रखते थे,उनका गुनाह था कि वो यहूदी थे।युद्ध के छः साल के दौरान साठ लाख यहूदियों को मारा गया था जिनमें 15 लाख बच्चे थे और ऐन फ़्रैंक उन पन्द्रह लाख बच्चों में से एक और यह आबादी उस समय की 1/3यहूदी आबादी थी जिनको मारा गया।
(इस डायरी को किंडल पर पढ़ा गया है।)