“लोकभाषा से उपजी सान्द्र संवेदना के नवगीत”
लोकप्रिय व्हाट्सएप नवगीत समूह ‘संवेदनात्मक आलोक’ के पाक्षिक आयोजन में इस बार- ‘नवीन/पुनर्पाठ अंक’-3, के वरिष्ठ नवगीत कवि आनंद तिवारी जी के नवगीतों पर विमर्श दौरान समूह में साझा की गईं समीक्षाओं में ‘संचालन समिति’ द्वारा चयनित सर्वश्रेष्ठ समीक्षा क्रमांक-1
समीक्षक : – राजेन्द्र वर्मा
आनंद तिवारी जी के नवगीतों से गुजरने का मौक़ा मिला। कथ्य और सरोकार की दृष्टि से इन गीतों का कोई जवाब नहीं। समाज के दबे-कुचले वर्ग को केंद्र में रखकर गीत रचे गए हैं। भावों की गहनता और गीतों की कसावट बाँधती चलती है। आम आदमी, विशेषतः शोषित मजदूर-किसान का अभावग्रस्त जीवन, उसकी अभावग्रस्तता, टूटन, सतत- संघर्ष, स्वाभिमान और आशावादिता- इन गीतों की पहचान है। सहज संवेदना से भरी इनकी तमाम दृश्यात्मक उक्तियाँ पाठक को भाव-पाश में बाँध लेती हैं और उसे सोचने पर मजबूर कर देती हैं, जैसे- “घर में भूँजी भाँग नहीं है/कैसे काम चले/जीवन से/दुर्भाग्य निगोड़ा/पल भर नहीं टले।”….”टोकरियों में अपने- अपने/शिशुओं को पौढ़ाए/देखा मैंने/कर्म में रत हैं/स्वेद से बदन नहाए/इतने पर भी/कजरी गातीं रंग-रँगी अलबेली/प्रतिक्षण के/श्रम से केवल/सूखी रोटी मिल पाए/इनके ऊपर रहते हैं/निशि- दिन अभाव के साए/खोजे समाधान न मिलता/जीवन लगे पहेली।”….”वर्षा के पानी में/टिपिर-टिपिर चूते हैं/अरहर की टाटी के/झोपड़े तमाम/दिन भर मेहनत का/मूल्य टूक रोटी का/मिलता है कैसे/जाने बस! राम।”….”महँगाई के बियाबान में/पल-पल लगे महीना/सिर पर लदा/बोझ लकड़ी का/टप-टप गिरे पसीना।”….”थिरक रहे मादल की धुन पर/मन में जड़े नगीना।”
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“पूँछ हिलाते हुए जीविका/पाना न आया/औरों की दी हुई नसेनी/चढ़ना न भाया/इसीलिए भीतर-ही-भीतर/होता रहा हवन।”…..”जोड़ रहे हम/फिर से इन टूटी साँसों को/ज़ोर-जुगत से/काढ़ रहे अटकी फाँसों को/नहीं चाहिए सौगातें या कोई छूटें।”
जीवन की ये स्थितियाँ और भी दुर्वह हो जाती हैं, जब झूठे रिश्ते-नातों के चलते असहायता और निरुपायता का शिकंजा कसता चला जाता है और सत्ता-व्यवस्था भी शोषकों के साथ खड़ी नज़र आती है- “सब-के-सब स्वार्थ के/बाजीगर मिलते हैं/फुद्द-फुद्द रिश्तों के/कठपुतले हिलते हैं/पंखनुची चेतन की/चिड़ी बौखलाई।”.….”बंजर में बो-बोकर/ बीज चुक गए/नद-निर्झर जाने किस/देश रुक गए/कौन मंत्र फूँकूँ/फिर फेंकूँ यह राई।”….”ददुआ का बबुआ/बालू पर क़ब्ज़ा किए हुए/बुनियादी अधिकारों पर/अवरोधक लगे हुए/आयातित की गई समस्याएँ/हैं शीश लदी।… परिवर्तन के पाँवों की/गति इतनी धीमी है/जाने कब आएगा/सुख का पैग़ाम?”….”कोरे नारे-आश्वासन हैं/डीगें हाँक रहे/अपनी टेंट न देखें भइए/उनकी झाँक रहे/चीन्ह-चीन्ह कर बँटें रेवड़ी/छूटा अपना टोला।”…. “ग़लत आँकड़े भेज रही/लिख-लिख अफसरशाही/वाज़िब हक़ पर/फेर-फार मक्करी की स्याही/ कुछ भी नहीं बदल पाया है/बदल गया है चोला।” (अंतिम पंक्ति में मारक श्लेष है- “चोला बदलने वाली बात सीधे-सीधे सरकारी तंत्र पर तो लागू होती ही है जो कथ्य का विस्तारित हिस्सा है। यानी- तन्त्र को चलाने वालों के चेहरे बदलते रहते हैं, चरित्र नहीं। साथ-ही- चोला का आशय पीड़ित की दैहिकता से भी है। पीड़ित जन्म-जन्म से सत्ताजनित दु:ख से परेशान है और स्थितियाँ बदलने को नहीं आतीं।)
एक गीत का कारुणिक चित्र- निराला की ‘भिक्षुक’ कविता की याद दिलाती है- “पके बाल बूढ़ा तन जर्जर/जीवन हीच रहा/चुए पसीना/इस सर्दी में ठिलिया खींच रहा।”….”फटेहाल चिथड़ों से लिपटा/नंगे पाँव चले/फूल रहा दम/बोझा ढोए/तब परिवार चले/धुँधरुक दिखे/सपाटे भर-भर आँखें मीच रहा।”
यों तो इन गीतों की टटकी बिम्ब-योजना मोहित करने वाली है, जो लोक के शब्दों को आत्मसात कर व्यंजना को और भी गहरा देती है। पर गीतकार के हाथ से छंद छूट गया है। कहीं मात्राएँ कम-ज़्यादा हो गयी हैं तो कहीं लय में लाने के लिए शब्दों को अप्रचलित ढंग से पढ़ना पड़ता है। कुछ उदाहरण- पहले गीत का मुखड़ा बड़ा है। इसके पहले हिस्से में 20-12-10 (42) मात्राएँ हैं, जबकि उसके दूसरे हिस्से में 18-18-10 (46) मात्राएँ हैं। पहला अंतरा 23-24 का मात्रा है, जबकि दूसरा 20 मात्राओं का है। हाँ! दोनों बंध 12-10 के हैं। हालांकि पहले अंतरे के पहले हिस्से में ‘स्वार्थ’ को ‘स्वारथ’ कर देने से दोनों हिस्सों की मात्राएँ 24-24 हो जाएँगी। गीत में छंद का ऐसा घालमेल उसे मुक्तछंद कविता की ओर धकेल रहा है। छंद के मामले में नवगीत को क्या इतनी छूट लेनी चाहिए?
गीत संख्या- 2 का मुखड़ा, उसके पहले-तीसरे अंतरे और सभी बंध 16-10 मात्राओं के हैं, जबकि उसका दूसरा अंतरा 16-12 का है। भाषा की दृष्टि से तीसरे अंतरे में प्रयुक्त ‘न’ को छंदपूर्ति अथवा लय में लाने के लिए ‘ना’ पढ़ना पड़ रहा है। इसी तरह गीत संख्या-5 का मुखड़ा और उसके अंतरे व बंध 16-12 मात्राओं के हैं, जो मात्रिक छंद-विधान के ही हैं, पर! उसके पहले अंतरे के दूसरे हिस्से में दो स्थलों पर मात्राएँ गिर रही हैं- “देखा मैंने कर्म में रत हैं/स्वेद से बदन नहाए।” इस पंक्ति में, ‘में’ और ‘से’ पर मात्रा-पतन हो रहा है। ऐसी स्थिति में लय तो बिगड़ती ही है, कथ्य की गम्भीरता भी कम हो जाती है।
गीत संख्या- 6 का मुखड़ा 16-12 मात्राओं का है, लेकिन इसका पहला अंतरा 16-11 का और दूसरा अंतरा 16-10 का है। दूसरा बंध भी इसी मात्रिक व्यवस्था में है, जबकि तीसरा अंतरा 16-8 का है। ‘सार’ से शुरू होकर छंद कहीं ‘सरसी’ हो जाता है, तो कहीं ‘विष्णुपद’ या, कोई और। ‘उमर बीत गई’ पद में ‘गई’ को ‘गइ’ या ‘गै’ पढ़ना पड़ रहा है। इसी गीत में एक पद प्रयुक्त हुआ है- “निहुरे-निहुरे ऐसे चलतीं,/जैसे चले शृगाल।” यों तो दृश्य अतिशय संवेदना उपजाने वाला है, लेकिन- ‘शृगाल’ की उपमा दो कारणों से खटकती है- एक तो वह पुल्लिंग है जिसकी उपमा स्त्रीलिंग से की गयी है, दूसरे उसकी संपृक्ति संवेदनाजनित नहीं होती, क्योंकि वह खल का प्रतीक है।
गीत संख्या- 7 का मुखड़ा 16-12 का है जबकि उसके अंतरे 16-14 के हैं। कोई बात नहीं, बशर्ते बंध मुखड़े के हिसाब से हों, हालांकि पहला बंध 16-14 का है, तो दूसरा 16-10 का है। लेकिन इसका कथ्य बहुत अच्छा है- “उनका हृदय विराट नहीं है/मन भी नाटा है।” पहले अंतरे का विधान 16-14 का है, लेकिन उसका पहला हिस्सा है- “आशा की दरकी दीवारें/उम्र शाम ढली लगे।” इसके दूसरे चरण को हम अगर- “उम्र शाम की ढली लगे” कर दें, तो पंक्ति लय में आ जाएगी और मात्राएँ भी ठीक हो जाएँगी। इसका दूसरा हिस्सा है- “जीवन की गुड़िया/साबुन की बट्टी/जैसी गली लगे।” बट्टी जैसा गलना में नवता और अनूठापन है, लेकिन! ‘जीवन की गुड़िया’ पद मज़ा नहीं दे रहा है ‘गुड़िया’ को अगर ‘इच्छा’ कर दिया जाए, तो मुझे लगता है कि बात बन सकती है। वैसे गीतकार स्वयं समर्थ है, वह कुछ और अच्छा विकल्प ला सकता है। इस गीत में एक स्थल पर आया है- “उनने हमको बाँटा है।” मुझे लगता है- उनने का प्रयोग ठीक नहीं। इसकी जगह “हमें उन्होंने बाँटा है” कहकर काम चलाया जा सकता है।
अंतिम गीत का मुखड़ा 22-21 का है और इसका पहला बंध भी इसी मात्रिक-विधान में है। पर! दूसरा बंध 26-21 का हो गया है। पहले अंतरे का पहला हिस्सा 24-21 का है तो उसका दूसरा हिस्सा 24-19 का है। इसके अलावा, पहले अंतरे के तुकांत मुखड़े से मिलते हैं। इस प्रकार, मुखड़ा, पहला अंतरा और पहला बंध- सबके तुकांत एक जैसे हैं। मर्मज्ञ पाठक समझ नहीं पाता कि गीत का शिल्प- विधान क्या है? गीतकार ने ‘इस’ शब्द का प्रयोग कई जगह पर किया है। जैसे- पहले ही गीत में वह कहता है- “मन के इस भँवर जाल में…।” सहज ही प्रश्न उत्पन्न होता है कि किस जाल में? जो अनुत्तरित ही रहता है। इसी प्रकार- गीत संख्या-9 में एक पंक्ति है- “चुए पसीना इस सर्दी में/ठिलिया खींच रहा।” यहाँ भी ‘इस’ का आशय स्पष्ट नहीं है। इससे बेहतर होता कि कवि यही कह देता- “चुए पसीना सर्दी में भी…।”
तुकांत की दृष्टि से गीतों में कई जगह समझौता किया गया है। नमूने के तौर पर दूसरे गीत के तुकांत हैं- जीवन, उपवन, अगन, हवन। यहाँ- उपवन को बदलने की ज़रूरत है ताकि तुकांत दोष से बचा जा सके। गीत संख्या-9 में ‘हीच’ के तुकांत हैं- खींच, मीच, फींच। यह समझौतावादी स्थिति है। गीतकार को इससे बचने की ज़रूरत है।
छांदस अनुशासन को यदि नज़रअंदाज़ किया जाए तो आनंद तिवारी के गीत लोकभाषा से उपजी सान्द्र संवेदना और टटके बिम्ब अद्भुत अनुभूति कराते हैं। कथ्य के मामले में भी वे चर्चितचर्वण से बचे हैं। निष्कर्षतः ये नवगीत आज के कठिन समय की विद्रूपताओं और विडंबनाओं की जिस ख़ूबी से प्रस्तुत करते हैं, वह निस्संदेह विरल है। एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं।
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