November 18, 2024

साहित्य वाचस्पति पं.लोचनप्रसाद पांडेय जी की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख

0

डाँ. बलदेव

पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय के दर्शन लाभ से मैं वंचित रहा । जब मैं साहित्य का ककहरा सीख रहा था , तब वे दिवंगत हो चुके थे । लेकिन बचपन से उनकी रचनाएं पढ़ता आ रहा हूं । उनके प्रशंसकों में अनपढ़ किसान से लेकर देश – विदेश के शीर्षस्थ विद्वान शामिल हैं । साहित्य और पुरातत्व जगत में अर्द्ध – शताब्दी तक उनका वर्चस्व था । इसीलिये प्रदेश के साहित्यिक आंदोलनों के वे भीष्मपिता कहे जाते हैं । ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवि उन्हें अपना अगुवा मानते थे । मात्र 23-24 वर्ष की उम्र में उनके द्वारा संपादित कविता कुसुम माला ‘ जैसे ऐतिहासिक महत्व का काव्य संकलन , इसका प्रमाण है । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तक पं . लोचन प्रसाद पांडेय का लोहा मानते थे । पांडेय जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उनकी लेखनी हिन्दी , उड़िया , अंग्रेजी , संस्कृत , ब्रज और छत्तीसगढ़ी में कई – कई नामों से चलती थीं । इन भाषाओं के अतिरिक्त वे बंगला , प्राकृत और गुप्त लिपियों के भी जानकार थे । अर्ध शताब्दी की शायद ही कोई श्रेष्ठ पत्र पत्रिकाए हों , जिनमें पाण्डेयजी की लेखनी न चली हो । न केवल वे साहित्यकार थे , पुरातत्ववेत्ता थे , या किसानों के हित में लड़ने वाले दुर्घर्ष योद्धा थे , अपितु सांसारिक राग द्वेषों स्पृहाओं से ऊपर उठे एक सतोगुण संपन्न महामानव थे । एक दिन सुयोग पाकर उनके अनुज , छायावाद के प्रवर्त्तक कवि और मेरे साहित्य गुरु पं . मुकुटधर पाण्डेय से मैने पूछा ‘ पंडितजी आप अपने भाई साहब के बारे में कुछ बतलाइये ‘ उन्होंने कहा – हिन्दी में एक शब्द है शील । भाई साहब उसके आगार थे । सचमुच पं . लोचनप्रसाद पाण्डेय शील सम्पन्न मेधावी पुरुष थे । उनमें बच्चों जैसे सारल्य , शिशुओं जैसी जिज्ञासा देखी जा सकती थी । पं . मुकुटधर पांडेय से उनके विषय में चर्चा करते हुए एक पारदर्शी व्यक्तित्व मेरी कल्पना के चौखटे पर खड़ा हो जाता है । गौर वर्ण , ऊंचा पूरा कद , उन्नत भव्य ललाट , स्नेह स्निग्ध आंखें , भरी हुई मूंछें , दीप्त मुख मंडल , गले में साफा , शरीर में खादी का धोती – कुर्ता , पांव मे चप्पलें और हाथ में छड़ी लिये , आतिथ्य सत्कार को आतुर पंडित लोचनप्रसाद पांडेय । सरस्वती , इंदु , माधुरी , विशाल भारत , हितकारिणी , कमला , आनंद कादम्बिनी , प्रभा , प्रताप जैसी दर्जनों पत्र – पत्रिकाओं की फाइल उलटते – पुलटते इस सौम्य मूर्ति का दर्शन जाता है । हृदय श्रद्धा से भर जाता है और आश्चर्य होता है , प्रचार – प्रसार की सुविधाओं से पिछड़े इस वनांचल में कोई ऐसा मनुष्य पैदा हुआ था , जिसने अपने त्रिकालदर्शी नेत्रों से यहां के पुरातन वैभव का शोधन कर यह बतलाया कि छत्तीसगढ़ साहित्य , कला और संस्कृति की दृष्टि से कभी गर्वोन्नत था , उसका गौरवशाली इतिहास है । यहां एक से बढ़ कर एक कवि , ऋषि और प्रतापी शासक पैदा हुए हैं । पांडेयजी ही सर्वप्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने छत्तीसगढ़ को पुरातत्व के क्षेत्र में विश्वविख्यात किया । पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय का जन्म बिलासपुर के बालपुर नामक गांव में 4 जनवरी 1886 को हुआ था । लेकिन पंचांग के आधार पर स्वयं की जन्मतिथि पंडितजी ने अपनी डायरी में 86 की जगह 87 लिखी है । उनके ज्येष्ठ पुत्र पंडित प्यारेलाल पांडेय का भी यही मत है । पांडेयजी के पितामह का नाम पं . शालिग्राम पांडेय था जो गौ , ब्राह्मण और अतिथि पूजक थे , उनकी पितामही कुसुमवती देवी धार्मिक महिला थीं । उनके पिता चिन्तामणि पांडेय साहित्य अभिरुचि के मेधावी पुरुष थे । उन्होंने शिक्षा के प्रचार के लिए इस क्षेत्र में काफी काम किया था । उनकी मां देवहुती भी धार्मिक महिला थीं और पूजा – पाठ में उनका अधिकांश समय व्यतीत होता था । इन सबके व्यक्तित्व का प्रभाव पांडेय जी पर शैशवावस्था में ही पड़ने लगा जो निरन्तर विकसित हुआ । पं . शालिग्राम पांडेय विद्या व्यसनी थे । उनके यहां एक छोटी सी घरेलू लायब्रेरी थी , जिसमें रामचरित मानस , ब्रजविलास , चौरासी वैष्णवों की वार्ता , सबलसिंह चौहान कृत महाभारत का हिन्दी पद्यानुवाद , मथुरा मंगल , उड़िया रामायण और उड़िया भागवत जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध थे । वे शिक्षा के विस्तार के लिए भी सजग थे । उन्हीं की प्रेरणा से उनके पुत्र पं . चिन्तामणि पांडेय ने 1887 में प्राथमिक शाला की स्थापना की थी । इसी पाठशाला में खड़ी बोली के कवि अनन्तराम पांडेय ने शिक्षा प्राप्त की थी , जो कि पं . लोचनप्रसाद पांडेय के रिश्ते में मामा लगते थे । इसी पाठशाला में पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय और अनुज विद्याधर पाण्डेय , बंशीधर , मुरलीधर और मुकुटधर पांडेय की प्राथमिक शिक्षा पूर्ण हुई थी । पं . शालिग्राम पांडेय आधुनिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे । इसीलिए उन्होंने एक मद्रासी श्री रामदासजी को अंग्रेजी की शिक्षा के लिए नियुक्त किया था । पं . लोचनप्रसाद पांडेय ने मंत्रमूर्ति श्री रामदासजी से अंग्रेजी भाषा अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी । पं . लोचनप्रसाद पांडेय ने 1898 में प्रायमरी और 1902 में सम्बलपुर हाईस्कूल से मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी । 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होने प्रवेशिका पास की । इसके बाद वे सेन्ट्रल हिन्दू कालेज काशी चले गये , जहां उनका परिचय एनी बेसेन्ट , अयोध्यासिंह उपाध्याय आदि से हुआ । लेकिन वे वहां अपनी विद्यालयीन शिक्षा पूरी नहीं कर पाये । उनकी दादी कुसुमदेवी उन्हें अकेले छोड़ना नहीं चाहती थीं । इसलिये उन्हें आदमी भेज कर बुला लिया गया । लेकिन उन्होंने अपने घर पर ही ऐसी शिक्षा प्राप्त की कि वह विद्यालयों के लिए दुर्लभ ही था । पं . लोचनप्रसाद पांडेय ने 1903 से ही लिखना शुरू कर दिया था । उनके अग्रज पं . पुरुषोत्तम प्रसाद पाण्डेय , मामा अनन्तराम पाण्डेय के सहयोगी थे , और उनके साथ वे भी लिखा करते थे । पाण्डेयजी को साहित्य की प्रेरणा इन्हीं दो व्यक्तियों से मिली । वे अपने बड़े भाई के साथ 1904 से ही पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे । कभी – कभी संयुक्त रूप से दोनों भाइयों का नाम प्रकाशित होता था । पं . लोचनप्रसाद पाण्डेय विलक्षण प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे । वे खूब लिखा करते थे और कई नामों से लिखा करते थे । 1906 में उनका प्रथम उपन्यास दो मित्र प्रकाशित हुआ । 1909 तक प्रवासी , नीति कविता , बालिका विनोद जैसी शिक्षाप्रद पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं । उनकी इस प्रतिभा को देखते हुये उन्हें 1909 में मारवाड़ी ( नागपुर ) जैसी पत्रिका के संपादन विभाग में रखा गया था । 1910 साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से उनका सर्वाधिक उत्कर्ष का काल था । इस वर्ष उन्होने जैसा कि पूर्व में ही बताया गया है , ब्रज और हिन्दी के नये पुराने प्रतिनिधि कवियों का काव्य संकलन कविता कुसुम माला शीर्षक से प्रकाशित कराया । इसमें श्रीधर पाठक से लेकर नवोदित कवि जयशंकर प्रसाद तक की रचनाएं शामिल थीं । इस पूर्व हिन्दी का इतना वृहद और महत्वपूर्ण प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था । इस संकलन का महत्व इन्हीं बातों से सिद्ध होता है कि 20-22 वर्षों में पांच – पांच संकलन निकले , जिसमें महादेवी वर्मा , रामकुमार वर्मा जैसे नये कवियों को भी समयानुसार शामिल किया गया था । इसके पूर्व प्रकाशित हिन्दी कोविद रत्नमाला में नये कवियों को बिलकुल स्थान नहीं दिया गया था । पं . लोचनप्रसाद पांडेय के पथ प्रदर्शक थे आचार्य जगन्नाथ भानु , अनन्तराम पाण्डेय और माधवराव सप्रे । उनके सहयोगी थे , पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय , मालिकराम भोगहा और शुकलाल प्रसाद पांडेय । इन नये पुराने कवियों ने खड़ी बोली को छत्तीसगढ़ में चलना सिखलाया था । लेकिन कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण मध्यप्रदेश । पं . लोचनप्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ के पुराने कवि , छत्तीसगढ़ के हिन्दी कवि और अनके उपेक्षित कवि और उनके महत्वपूर्ण ग्रंथों पर लेख प्रकाशित कर इस क्षेत्र में हिन्दी का नेतृत्व किया । पं . लोचनप्रसाद पाण्डेय राष्ट्रभाषा के अनन्य सेवक थे । उन्होंने 1905 में कलकत्ता में दादाभाई नौरोजी के सभापतित्व में होने वाले अधिवेशन में भाग लिया था । यहां पंडितजी की प्रेरणा से राजा भूपदेव सिंह ने अपने दरबार में भानु कवि को आदर देकर बुलाया एवं उन्हें साहित्याचार्य की उपाधि से अलंकृत किया । श्री शारदा साहित्य भवन जबलपुर और मध्यप्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन 1916 के लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ क्षेत्र से पर्याप्त धन एकत्रित किया था । पाण्डेयजी के इन महत्वपूर्ण कार्यों से पं . रविशंकर शुक्ल और छेदीलाल बैरिस्टर जैसे प्रमुख नेता उनकी ओर आकृष्ट हुए । 1916 में उन्होंने सम्मेलन के बाद एक लंबी यात्रा की , जिसमें उनकी भेंट महामना मालवीय , श्रीधर पाठक , पुरुषोत्तम दास टंडन , इन्द्रनारायण , पं . जगन्नाथ शुक्ल , महाराजा वेंकट रमन , वाणी भूषण , लाला सीताराम बी.ए. , कमला के संपादक जीवनानंद शर्मा , म मिहिर के संपादक स्वामी सत्यदेव परिव्राजक से हुई । इन विद्वानों से उनका पत्र व्यवहार पूर्व से ही था । इसी सिलसिले में उन्होंने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी दर्शन किये । इस समय तक उनकी दर्जनों कविताएं सरस्वती में प्रकाशित हो चुकी थीं । उनकी कलम पांच – पांच भाषाओं में चलती थी । उन्होंने अंग्रेजी , उड़िया , हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में 40 से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है । 1 पं . लोचनप्रसाद पांडेय न केवल साहित्यकार थे , वरन देश के चोटी के पुरातत्वज्ञों के बीच उनकी गणना की जाती है । छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला , साहित्य और संस्कृति के उद्धार के लिए उन्होंने 1940 में महाकौशल हिस्टोरिकल सोसाइटी की स्थापना की थी । पाण्डेयजी का एक दुर्लभ चरित्र साहित्यकार और पुरातत्ववेत्ता के बीच सदैव दबा रहा , वह है सामाजिक कार्यकर्ता का । उन्होने 1916 में क्षय रोग निवारण समिति की स्थापना की थी । उन्होने स्थानीय किसानों के हित में सरकार से अनेक संघर्ष किए , इतना ही नहीं , राज्य पुनर्गठन के समय भी उन्होंने अंचल के हितों के लिए उग्र संघर्ष किया । उन्हीं की बदौलत चंद्रपुर इलाका आज सम्बलपुर जिले में न होकर बिलासपुर ( अब जांजगीर ) जिले में है । यह 1906 की बात है जब वे मुश्किल से 20 वर्ष के थे । पांडेय जी एक कुशल शिक्षक भी थे । उन्होंने प्रारंभ में बालपुर , बाद में 1911 में नटवर स्कूल रायगढ़ में अध्यापन कार्य किया । 1912 में उन्हें रायगढ़ दरबार के प्रायवेट सेक्रेटरी की हैसियत से रीवां दरबार भेजा गया था । इसी प्रकार 1913 में उन्हें चन्द्रपुर जमींदारी का आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था । उनकी साहित्य सेवा के लिए उन्हें 1921 में जबलपुर में होने वाले चौथे प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापति चुना गया था । 1948 में उनकी दीर्घ साहित्य सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें साहित्य वाचस्पति की उपाधि दी गई । इसके पूर्व भी उन्हें भारत धर्म महामंडल से 1919 में रजत पदक , हिन्दी गल्पमाला से स्वर्ण पदक आदि प्राप्त हो चुके थे । ऐसे महान साहित्य सेवी और समाज चिन्तक का स्वर्गवास रायगढ़ में 18 नवम्बर 1959 को हो गया । आज उनका पार्थिव में शरीर नहीं है , किसी का नहीं रहता , किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा ।
पं . लोचन प्रसाद पाण्डेय गद्य काव्य
———————————————
पं . लोचन प्रसाद पाण्डेय द्विवेदी युग के प्रमुख साहित्य मनीषियों में से थे । उन्होंने जिस समय लिखना शुरू किया , उस समय लेखकों का एक अच्छा खासा मण्डल तैयार हो चुका था । वर्तमान गद्य के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उसका नेतृत्व कर रहे थे , उनकी मण्डली में पं . प्रताप नारायण मिश्र , पं.बाल- कृष्ण भट्ट , बदरीनारायण चौधरी ‘ प्रेमघन ‘ , ठाकुर जगमोहन सिंह , लाला श्री निवास दास ,पं.अम्बिका- दत्त व्यास , पं . सुधाकर द्विवेदी , पं . राधाचरण गोस्वामी और बाबू रायकृष्ण दास प्रभृति सुलेखक प्रतिष्ठित हो चुके थे । इधर छत्तीसगढ़ अंचल में भी एक अच्छा माहौल तैयार हो चुका था । ठाकुर जगमोहन सिंह , आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘ भानु कवि ‘ , पं . माधवराव सप्रे , पं . अनन्तराम पाण्डेय और पं . मालिकराम भोगहा जैसे साहित्य मर्मज्ञों ने नवलेखकों का मार्ग प्रशस्त कर दिया था । पाण्डेय जी ने सन् 1903 से लिखना शुरू किया सन् 1904 से छपने लगे थे । उनके आरम्भिक गद्य लेखों में पं.मालिकराम भोगहा की आनुप्रासिक शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है , जिन्होंने पाण्डेय जी को एक बार लिखा था- ‘ मेरे हृदय रोचन लोचन तुम्हें देखने को आतुर इन लोचनों का दुःखमोचन कर करोगे ? ‘ उक्त शैली का उदाहरण सन् 1907 की ‘ कमला ‘ में प्रकाशित ‘ मैं कवि कैसे हुआ ‘ शीर्षक लेख में दृष्टिगोचर होता है । एक बानगी देखिए ‘ एक दिन शाम को मैं काम से आकर आराम से अपने धाम में बैठकर मन रूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता फिरता तथा मौज की हौज में गोता लगाता था कि मेरी कल्पना दृष्टि में एकाएक कवि की छवि चमक उठी । ‘ पाण्डेय जी का प्रथम गद्य लेख ‘ धर्म ‘ सन् 1904 के ‘ हिंदी मास्टर ‘ में प्रकाशित हुआ था । इस लेख में पाण्डेय जी की धार्मिक भावना और मातृभाषा के प्रति उदार दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है । वे लिखते हैं धर्म तो तभी उपार्जन हो सकता है जबकि लोग पहिले अपनी मातृभाषा में ध्यान देवेंगे । कारण यह है कि ‘ बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शुल ‘ इसलिए पहिला कर्म तो अपनी मातृभाषा को सुधारना । पाण्डेय जी की दृष्टि में धर्मोपार्जन के लिए मातृभाषा की उन्नति , और मातृभाषा की स्थिति में सुधार के लिए स्त्री शिक्षा नितान्त जरूरी है । वे नारी शिक्षा की आवश्यकता निरूपित करते हुए लिखते हैं – ‘ बालकों की बालकपन में जो कुछ बात सिखलाई जाय वह उनके बुढ़ापे तक कायम रहती है । इससे ज्ञात हुआ कि बालकों की अच्छा आचरण सिखाने के लिए शिक्षित माताओं की आवश्यकता है , बस इसी में स्त्री शिक्षा की आवश्यकता है । ‘ छत्तीसगढ़ के प्रति पाण्डेय जी के मन में अपूर्व स्नेह भाव था । उन्होंने ‘ छत्तीसगढ़ से एक बात ‘ शीर्षक लेख ( हिन्दी मास्टर 1904 ) में छत्तीसगढ़ की गौरव गाथा का उल्लेख करते हुए जन जागृति का संदेश दिया था । छत्तीसगढ़ के संबंध में कुछ बाहरी व्यक्तियों के मन में गलत धारणा थी , वे अपमान जनक शब्दावली का प्रयोग भी यदा – कदा करते थे , जिसका उल्लेख छत्तीसगढ़ के गजेटियर में हो गया था । पाण्डेय जी ने शासन से लिखा – पढ़ी करके , प्रयत्न पूर्वक उसे गजेटियर से विलोपित करवाकर , छत्तीसगढ़ियों के आत्म – सम्मान एवं गौरव की रक्षा की थी । पाण्डेय जी मातृभाषा की उन्नति के आकांक्षी थे , जैसा की हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं । इसी प्रकार वे राष्ट्रभाषा के स्वरूप के प्रति भी सजग थे । उन्होंने ‘ हिंदी नगरी लिपि ‘ शीर्षक लेख जो * श्री व्यंकटेश्वर समाचार ‘ ( अगस्त 1905 ) में प्रकाशित हुआ था , में आम जनता द्वारा व्यव हिंदी को ही राष्ट्रभाषा स्वीकार करने के पक्ष में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था । उनकी दृष्टि में , देश के अधिकांश लोग उर्दू शब्दों की अपेक्षा संस्कृत शब्दों को ज्यादा समझते हैं , इसलिए संस्कृत शब्द प्रधान हिन्दी को राष्ट्रभाषा एवं देवनागरी को उसकी लिपि बनाना चाहिए । इससे उनके भाषा संबंधी उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है । इसी प्रकार उन्होंने हिंदी की वर्तमान दशा ‘ शीर्षक लेख ( मारवाड़ी 3-11-1906 ) में भाषा की अस्थिरता और हिंदी के प्रामाणिक व्याकरण की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए भाषा की उन्नति पर बल दिया था । पं . लोचनप्रसाद पाण्डेय जी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिंदी साहित्य के उन्नायकों में सर्वप्रमुख मानते थे और उनके प्रति काफी सम्मानपूर्ण भाव रखते थे । जब सन् 1910 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई , और योग्य साहित्यकारों को ‘ भारतेन्दु ‘ की उपाधि से विभूषित किये जाने का निर्णय लिया गया , तब पाण्डेय जी ने इसका बहुत विरोध किया , क्योंकि इसे वे भारतेन्दु का अपमान समझते थे । उन्होने विरोध प्रकट करते हुए 1-9-1910 को लिखा था ‘ यदि सम्मेलन के संचालक उपाधि ही देना चाहते हैं तो कोई दूसरी उपाधि देने का विचार करें । उन्हें यदि ‘ इन्दु ‘ शब्द से ही प्रेम है तो ‘ साहित्येन्दु ‘ रखने में क्या हानि है ? और यदि हिन्दी के आचार्य भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की अप्रतिष्ठा ही करनी हो तो सम्मेलन के कार्यकर्ता जानें । ‘ पाण्डेय जी छद्म नामों से भी लिखते थे । उन्होंने मारवाड़ी ( 7-12-1911 ) में एक मध्य प्रदेश वासी हिन्दी का तुच्छातितुच्छ सेवक ‘ नाम से ‘ मध्य प्रदेश के हिन्दी सेवक और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यकर्ता गण ‘ शीर्षक लेख प्रकाशित कराया था , जिसमें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय अधिवेशन ( प्रयाग ) में मध्य प्रदेश के हिन्दी साहित्य सेवियों का नामोल्लेख तक नहीं किये जाने के प्रति खेद प्रकट किया गया था । पाण्डेय जी न केवल एक प्रतिभावान प्रतिष्ठित कवि , कहानीकार , निबन्धकार एवं नाटककार ही थे , अपितु एक प्रखर आलोचक भी थे । वे अपनी आलोचना कृष्णदास , दुर्मुख शर्मा , एक भारतीय प्रजा , एक मध्यप्रदेश वासी और आत्माराम भार्गव इत्यादि छद्म नामों से प्रकाशित करवाते थे । उनकी आलोचना की निष्पक्षता एवं निर्भीकता से प्रभावित होकर उनसे लिखने के लिए आग्रह किया करते थे । इसकी पुष्टी हेतु ‘ प्रभा ‘ सम्पादक श्री कालूराम गंगराडे द्वारा 1-7-1913 को लिखित पत्रांश उद्धृत किया जा रहा है- कविता के नियमों एवं तद्विषयक निंगूढ़ चर्चाओं तथा तीक्ष्ण आलोचनाओं के हेतु प्यारे ‘ कृष्णदास ‘ की लेखनी उठना चाहिए । इस बात की इस समय विशेष आवश्यकता है । दया कर विचारिए , फिर कार्यारम्भ के हेतु प्रस्तुत होने की कृपा कीजिए । बड़ी गड़बड़ मच रही है । उत्तर शीघ्र ही देकर कृतार्थ कीजिए । ‘ पाण्डेय जी में अद्भुत लेखन शक्ति थी । अत्यल्प समय में ही वे बहुत अच्छा लेख लिख लेते थे । आपने ‘ विवाह विडम्बना ‘ नारटक मात्र एक दिन में लिखा था , जिसका मंचन उनकी छोटी बहन की शादी में बारातियों के समक्ष किया गया एवं पर्याप्त प्रशंसित भी हुआ । इसी अद्भूत लेखन क्षमता के सहपरिणाम स्वरूप ही वे दर्जनों पत्र – पत्रिकाओं के सम्पादकों को लेख भेजने में समर्थ हो पाते थे । कभी – कभी एक लेख की मांग पर , दो – दो लेख भेजकर सम्पादकों को उपकृत किया करते थे , जो गोपाल देवी के पत्रांश से स्पष्ट है- ‘ यह लिखते हुए मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है कि एक लेख की प्रार्थना की थी और दो मिल गये । ‘ इसी प्रकार पाण्डेय जी का पत्र व्यवहार तत्कालीन प्रमुख साहित्यकारों एवं सम्पादकों से था एवं उनकी रचनाएं ससम्मान प्रकाशित होती थीं । पं . मुकुटधर पाण्डेय के अनुसार ‘ उनकी सर्वप्रथम पुस्तक ‘ दो मित्र ‘ उपन्यास मुरादाबाद के श्री लक्ष्मीनारायण प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित हुई थी । जो उनके आरम्भिक गद्य लेख का नमूना है । ‘ इसके बाद प्रेम – प्रशंसा , छात्र – दुर्दशा , साहित्य – सेवा ( नाटक और प्रहसन ) प्रकाशित हुए । उनके एक निबन्ध ‘ हिन्दू विवाह और उसके प्रचलित दूषण का पुस्तकाकार प्रकाशन श्री जगन्नाथ सिंह ( उत्तर प्रदेश के खारखेणा स्टेट , हरदोई के ताल्लुकेदार ) ने कराया था । श्री देवी प्रसाद वर्मा ने पाण्डेय जी के 15 निबन्धों का एक संकलन ‘ लोचनप्रसाद पाण्डेय के निबन्ध ‘ शीर्षक से 1980 में प्रकाशित कराया है । पाण्डेय जी ने कई महत्वपूर्ण निबन्ध लिखे हैं , जिनसे छत्तीसगढ़ तथा मध्य · प्रदेश के हिन्दी साहित्य के इतिहास को समझने में सहायता मिल सकती है । इनमें प्रमुख हैं छत्तीसगढ़ में हिंदी , ( इन्दु जुलाई 1914 ) राम प्रताप परिचय , ( हितकारिणी , दिसम्बर 1915 ) इनके अतिरिक्त उन्होने ‘ इन्दु और , विशाल भारत ‘ में विनय कुमार सरकार के उड़िया लेखों का अनुवाद किया । उनके समीक्षात्मक लेखों में खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य ( प्रियप्रवास ) तथा उनके अंग्रेजी साहित्य के गद्य लेखकों की कृतियों पर प्रकाशित रचनाएं उल्लेखनीय है । पाण्डेय जी की लेखनी हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी , उड़िया , बंगला , छत्तीसगढ़ी इत्यादि भाषाओं में अबाध गति से चलती थी । लेकिन वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने के पक्षधर थे , वे उड़िया भाषियों को भी देवनागरी लिपि अपनाने का सुझाव दिया करते थे । पाण्डेय जी हिन्दी और उड़िया के बीच सेचु का कार्य कर रहे थे । पाण्डेय जी की दृष्टि शोधपरक थी , उन्होंने पुरातत्व संबंधी अनेक खोजों के माध्यम से इतिहास को तो एक मजबूत आधार प्रदान किया ही , साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने शोधात्मक लेख लिखकर हिन्दी साहित्येतिहास को भी ढेर सारी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करायी है । उन्होंने छत्तीसगढ़ के प्राचीन हिन्दी कवि निबन्ध में यह सिद्ध कर दिया है , गोपाल कवि कृत ‘ खूब तमाशा ‘ का रचनाकाल 1746-47 है । इसी प्रकार स्नेह सागर के कवि ब हंसराज ‘ निबन्ध में हंसराज को रतनपुर निवासी सिद्ध किया है , जबकि अन्य विद्वान उन्हें झांसी निवासी मानते हैं । अन्त में पं . लोचन प्रसाद पाण्डेय जी की भाषा शैली उनके अनुज छायावाद के प्रवर्तक कवि पं . मुकुटधर पाण्डेय के शब्द में प्रस्तुत कर रहे हैं- ‘ इनके नाटकों की भाषा अलंकृत थी . जो भोगहा जी के निकट सम्पर्क में आने का परिणाम था । आधुनिकता की दृष्टि से उन्होंने अपना शैली शीघ्र बदल दी , जिससे भाषा का सहज सौन्दर्य निखर उठा । उनके लेखों में सामासिक शब्द – संकुल न तो बहुत लम्बे वाक्य पाये जाते हैं और न बहुत छोटे – छोटे , दोनों का समन्वय हुआ था । उनके लेखों का मूल्यांकन हिन्दी साहित्य की परिस्थिति और परिवेश की दृष्टि से ही करना उचित होगा।

विनम्र श्रद्धांजलि
प्रस्तुति:-बसन्त राघव, रायगढ़, छत्तीसगढ़
मो.नं. 8319939396

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *