बंधन या छाँह
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, अतः वह समूह में रहता है। उस समूह में अनेक लोगों से जुडा रहता है। वह विभिन्न रिश्तों के बंधन में बंधा रहता है। जीवन जीने के लिए जो रिश्ते – नाते वह जोड़ता है, वे एक समय पश्चात् उसके जीवन का पर्याय बन जाते हैं। उनके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता। उन रिश्तों – नातों में उसका अस्तित्व सिमटता जाता है। वह अपनी समस्त संचित ऊर्जा लगा देता है, उन्हें सहेजने में। वह अपने ‘अपनों’ को समेट लेने में यकीन करने लग जाता है।
वह सोचता है कि उन्हें सूरज की तीखी धूप से बचा ले, आँधियों को उनकी जद तक पहुँचने ना दे, अंधेरों का साया तक ना उनपर पड़ने दे ; लेकिन इन नेक कोशिशों में ख्याल ही नहीं रहता कि यह तो एक तरह की कैद ही हो गयी.. और कैद में चहक कहाँ?? वह भूल ही जाता है कि धूप रोशनी भी देती है, खुशनुमा एहसास भी लाती है, परिवक्वता भी लाती है तथा उजाला भी भरती है। आँधियाँ हवाएँ भी लाती हैं, नकारात्मकता के ढ़ेर को साथ उड़ा भी ले जाती हैं। अँधेरे कभी- कभी राहत भी लेकर आते हैं, क्लांत तन -मन को विश्राम भी सौंप जाते हैं।
यह सत्य बिसरा कर हम बस अपनों को हर दुविधा व कष्ट से बचा लेना चाहते हैं। यह कुछ वैसा ही हो गया जैसे हम उन्हें सिक्के का मात्र एक पहलू दिखाना चाहते हैं। हम क्यों दूसरे पहलू से उनको दूर रखना या बचाना चाहते हैं??
हम यह कब समझेंगे कि हमें उनसे बचाना नहीं है, बल्कि अपनों को उनसे रूबरू होने और बेहतरीन तरीके से निपटने के योग्य बनाना है। हमें पहले यह निर्धारित करना होगा कि क्या हम उनको छुईमुई बनाने जा रहे हैं? या हम क्या सदैव ऐसा करने में कामयाब हो सकेंगे? हम इसकी निश्चतता कैसे दे सकते हैं?
तो क्या यह सर्वश्रेष्ठ नहीं होगा कि हम अपने उन खास ‘अपनों’ को हर मुश्किल हालात से जूझने के लिए तैयार करें!! उनको अपने हिस्से की हर धूप, छाँह, अँधेरे -उजाले, सबको समझने और रूबरू होने दें। यदि स्वर्ण को अग्नि से दूर रखा जाये तो क्या वह कभी अपने श्रेष्ठतम रूप और आकार में ढलकर निखर सकेगा? हम उन्हें बचाने की नहीं, सही राह पर मार्गदर्शन की कोशिस करें तो शायद ही वे कभी राह भटकें ! परीक्षाओं में उनके आगे उत्तर खोल कर रखने की बजाय खुद जवाब ढूंढने और करने दें, तो शायद ज़िंदगी की हर परीक्षा को वे उत्तीर्ण कर जायें।
सुना ही नहीं, देखा भी है कि वटवृक्ष के तले दूसरे वृक्ष पनप नहीं पाते। इसमें वटवृक्ष का दोष नहीं, वह तो अपनी हर सामर्थ्य को लगा देता है, उसे सींचने में…. किंतु यही उनके विकास में रुकावट का कारण बन जाता है। जीवन में हर वस्तु, हर भाव, हर स्थिति और परिस्थिति का कोई ना कोई मूल्य है। इस सृष्टि में अनावश्यक तो कुछ भी नहीं ! बस हमें उससे ठीक तरह से सामना करना आना चाहिए। जीवन की इस नौका में यदि आप एकतरफा सवारी करते रहे तो असंतुलन उत्पन्न होना निश्चित है।
अतः यदि अपनों को सहेजना ही है तो उनको वास्तविकता के धरातल पर उतारिये। उनको हर परिस्थिति से संघर्ष करना सिखाइए क्यूंकि सदैव ज़िंदगी के हर वार को आप अपने सीने पर नहीं झेल सकते। ना ही हथेलियों में भरकर मुश्किलों को समेट सकते हैं। तो उनको उनकी उड़ान भरने दीजिये..और आसमान की हर बाधा से जूझकर जीतने भी दीजिये।
स्वरचित व मौलिक
भारती शर्मा
मथुरा उत्तर प्रदेश