कहानी- त्रिलोचन
आज हेम और हरि दोनों के बीच जबरदस्त विचार विमर्श चल रहा था। मंहगाई, सरकारी सेवा करते चैनल से होकर बातचीत सच्चे संस्मरण तक आ पहुँची थी ।
‘भाग्य’ क्या होता है? क्यों होता है? किसलिए होता है? मैं नहीं जानता। क्योंकि मैं भाग्य के तिलिस्म में कभी पड़ा ही नहीं। मैं वर्तमान में जीना पसंद करता हूं।” भाग्य और भविष्य की चिंता में वे लोग डूबे रहते हैं, जिनके पास डूबने का और कोई साधन नहीं होता। पर एक पूरा जीवन कैसे बेपरवाही और लापरवाही से गुजर जाता है यह तो मैंने साक्षात देखा है। ” हरि ने कहा तो हेम बोला ,”बता ना किसको देखा था ।”
,”था एक युवक जब मैंने उसे पहली बार देखा “तब मै आठ साल का था और मुझे खेलते समय दौड़ते हुए घुटने पर चोट लग गई थी।” मैं सिसक ही रहा था कि एक युवक आया और बकरियों को चारा देते हुए बोला खरोंच आ गई है।” फिर पीठ पर हाथ रख कर बोला कि अभी ठीक हो जायेगी ।मैं उसे देखता रह गया। क्यो देखता रह गया अरे,, इसलिए कि उसके हाथ में न जाने क्या था कि दर्द कम हो गया।” फिर,, क्या हुआ? ”
फिर, वो आया हाँ वो मैदान से कुछ पत्ते लाया उसका रस मेरी चोटिल और “दुखती त्वचा पर लगाया। उसी समय आराम आ गया। वो तो पीठ पर हाथ रखते ही आ गया था। हाँ पर वो पत्ते का रस ऐसा था कि अगले दिन खरोंच भर गई थी। “अच्छा।,,सच?” हेम ने भौंचक होकर पूछा, हाँ फिर मुझे बहुत मन हुआ कि वो कौन है तब पता लगा कि वो अपने सात भाईयों के साथ इसी गांव में खेत खलिहान
मवेशियों के साथ रहते हैं। अच्छा। ,, हाँ,, फिर मेरे मन में उनसे बार बार मिलने की इच्छा होती रही तो हुई मुलाकात हाँ कई बार हुई । मैं रामलीला देखने और नौटंकी देखने जाता तो वहाँ पर वो सेवा करते हुए जरूर दिखाई दे जाते । जब उस दिन चोट लगी तो एक सप्ताह बाद गांव में एक नाटक खेला गया। वो नजर आ गये तो मैं भागकर गया और
मैं उनसे मिला और बताया कि आपने तो मेरी चोट एक दिन में ही सही कर दी । वो हंस दिये बोले मैं तो भूल गया।
पर हौले हौले मैंने पता लगाया कि वो एक कमरे की कोठरी में रहते थे। और कुछ बकरियां पाल रखी थी। जबकि उनके सारे भाई खूब बडे और हवादार
मकानों में मजे से रहते थे। उनकी खूब सारी जमीन जायदाद थी ।अच्छा।,, हेम मजे लेकर सुन रहा था। हाँ एक दिन पता लगा कि उनकी एक पत्नी थी जो उनके लापरवाह स्वभाव से परेशान हो कर अपने माता पिता के घर चली गयी अब न तो ये उनको लिवाने जाते है और ना वो यहाँ आना चाहती है । एक दिन मैंने देखा कि वो एक संस्थान मे सेवा देने लगे हैं और वहाँ उनको रहना खाना पहनना सब मुफ्त में मिल रहा है। अच्छा। हाँ वो उस संस्था के प्रमुख ने इनको पत्ती के रस से चोट सही करते देखा तो यह
मान लिया था कि यह कोई पावन मन के खास इंसान है। अच्छा। पर एक साल बाद पता लगा कि त्रिलोचन जी ने वो सब भी छोड दिया है और फिर से अपनी एक कमरे की कोठरी मे आ गये हैं। क्योकि मेहनत का जलवा दिखा चुके हैं इसलिए कोई भी उनको आलसी या निकम्मा नहीं कह सकता था । हरि ने आगे बताया कि फिर मैं आगे की पढ़ाई तथा नौकरी में लखनऊ रहा जब गांव लौटा तो वो वही पर थे और अब उन्होंनें कुआं तालाब खोदने का काम हाथ मे लिया था ।अजीब बात है कि इतनी जमीन जायदाद थी भाई भाभी सब थे पर वो बिलकुल अलग ही ढंग के इंसान थे ।हाँ वो पचास की उम्र में भी सात आठ घंटे शारीरिक श्रम करने के बाद भी चुस्त दुरुस्त थे। अच्छा, हाँ हेम
यह जो उपयोगिता है ना यह इंसान को टिका कर रखती है। खासकर आज के समय में यह बात याद रखनी चाहिए कि अपनी उपयोगिता बना कर रखो, नहीं तो कौन पूछता है।
वो फक्कड थे पर सबके काम के थे ।शायद जानते थे कि यह जमाना ऐसा ही है। इसलिए उपयोगी बनो, योगी बनो।मैं देखा करता था कि जिस ढाबे में बैठ जाते वहाँ चाय बोलते तो चाय आ जाती खाना आ जाता ।पूरा गांव ही उनका घर था ।
जब भी कोई शादी विवाह या किसी का जन्मदिन मुंडन होता तो उसी घर में उनका ठिकाना रहता । पर वो पचपन साल के थे तब उनके पैर में अचानक चोट लग गई। घाव भरा ही नहीं। जबकि वो सबके घाव भर देते थे ।ओह,,हेम को सुनकर अजीब सा लगा,
,”हाँ हेम,,हमेशा सत्कर्म करने का मतलब यह नहीं कि आपका कभी बुरा नहीं होगा । कुछ तो होगा ही पर उस बुरे वक्त में आप कभी अकेले नहीं रहेंगे । कोई न कोई आपके मदद के लिए खड़ा मिलेगा ।” कहकर हरि कुछ पल खामोश हो गया और फिर बोला कि,”बस सात आठ दिन बाद वो चल बसे ।जब उनकी अंतिम यात्रा हुई तब पता लगा गांव के हर दूसरे युवक को उनहोंने आर्थिक मदद की थी । खुद रोज काम करते और भरपूर जीवन जीते वो चले गये।
समाप्त लघुकथा हरीश चंद्र पांडे ajmer
मौलिकता का प्रमाण पत्र
मैं हरीश चंद्र पांडे यह वचन देता हूँ कि संलग्न लघु कथा पूरी तरह मौलिक , अप्रकाशित, अ्प्रसारित है इसका प्रकाशनाधिकार “chhatisgarh” mitraको सहर्ष प्रदान करता हूँ धन्यवाद हरीश चंद्र पांडे