टूट रहीं हैं परतें!
विधा – कविता
टूट रहीं हैं परतें विश्वास की
दरक रहें है पहाड़ चोट खाकर
बातों के भूकंप से ही अब तो
निकल रहा लावा क्रोध का
फट रही धरा जीवन की।
बेचैनी से ही निकलेगा अंकुर
फोड़ कर समाज की कुंठा
जीवन के पैमानें नापनें को
गढ़ें जायेंगे नये सिद्धांत।
फिर! वहीं नयें आचार्य
नये शास्त्र और व्याख्याकार
फिर! फिसलेगी जबान कभी
उत्पन्न होंगे आलोचक भी
फिर! लिखा जायेगा इतिहास
जिक्र होगा हमारा,पढ़ेंगे लोग।
फिर! तरसेगा जीवन समरसता
फिर! भंग होगा साम्य जीवन
तब न कोई बुद्ध होगा न गाँधी
होंगे अजराजक लोग और व्यवस्था
लोकतंत्र बदलेगा अराजकतंत्र में
ऐसे ही बदलेगी संसृति सृष्टि
थकेगा सर्जन का देवता।
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़,सीकर राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438