स्मृति वन
दूर क्षितिज में ढ़लता सूरज,तम के गहरे साये।
कल प्राची में रंग भरेगा,मन में रख आशायें।
अलसाई सी धूप आज है,
धुंध दूर तक गहराया।
अगहन की ठिठुरी हैं रातें,
दिन में कोहरा छाया।
निरत रहा मन सांझ सबेरे, भाव नये अकुलाये।
दूर क्षितिज में ढ़लता सूरज, तम के गहरे साये।
सुख -दुख जीवन का हिस्सा,
हम क्यों इतना घबराये।
गठरी बांधे जहां चला तू,
छाया भी संग -संग आये।
नेह सृजित अनुबंधों में भी ,कौन किसे समझाये।
दूर क्षितिज में ढ़लता सूरज, तम के गहरे साये।
द्वंद्व है कैसा अन्तर्मन में,
आस नही निराश नही।
हृदय ताल में पुष्प खिलें हैं
कहीं कोई सुवास नही।
स्मृति वन में मृग दौड़ रहा, कस्तूरी अब ना भाये।
दूर क्षितिज में ढ़लता सूरज, तम के गहरे साये।
पुनीत भाव से मैंने सारे,
राहों के शूल हटाये।
किरण-किरण हाथों में ले-
अंतस से तमस मिटाये ।
द्वार-दीप भी जला दिया ,रह- रह पवन चौकाये।
दूर क्षितिज में ढ़लता सूरज, तम के गहरे साये।
(स्वरचित मौलिक)
नवनीत कमल
जगदलपुर छत्तीसगढ़