ओ..! बसंत..
तुम लौट आओ….!
तुम्हारे आने से,
गुनगुनायेंगी खिड़कियां,
महक जाएगा घर का कोना- कोना।
कहां बैठे हो..! धूप को लपेटकर,
ठिठुरती है शामें सर्द हुई रातें,
लौटना होगा तुम्हें..!
इंतजार सूरज की तरह लीलता है,
पसरा हुआ सन्नाटा भी बोलता है ,
संवेदनाएं धूल हुए,
संवाद भी शूल हुए।
हिसाबों के पन्ने फिर फड़फड़ाये,
हवा कर रही है कबसे खिलाफत,
कोई आग सुलग ना जाये,
सुनो..! मैं तुम्हें,
कुछ -कुछ अब समझने लगी,
तुम्हारा चेहरा पढ़ने लगी।
खामोशी के उस पार,
कुछ ना कुछ छूटता जा रहा है,
मेरा भ्रम टूटता जा रहा है,
धाराओं में बहना अब सहज नही,
तुम कोई बुद्ध नही।
(स्वरचित मौलिक)
नवनीत कमल
जगदलपुर.. छ.ग