लघुकथा : साथ-साथ
पाँच ही दिन हुए थे रेवती को अपनी ससुराल पचेड़ा आये। देह से हल्दी का पीलापन भी नहीं गया था। हाथों की मेंहदी की छवि यथावत थी। सुंदर-सुकोमल नाखूनों की पाॅलिश की चमक देखती ही बनती थी। दोनों पैर के माहुर की लालिमा का आकर्षण बना हुआ ही था। दोनों कलाइयों की हरी-हरी चुड़ियों में बड़ी गजब की खनक थी। पूर्णरूपेण अलंकृत थी रेवती। उसके कजरारे नयन बार-बार उमेंदसिंह पर ही पड़ रहे थे।
छठवें दिन सुबह उमेंदसिंह रेवती के साथ घर से निकल पड़ा। लौहनगरी दल्लीराजहरा ने उनका आत्मीय स्वागत किया। आयरन ओर हेमेटाईटयुक्त के रजकण रह-रहकर रेवती के सौंदर्य को निहार रहे थे। उन्नत गिरिश्रृंखलाओं को अपनी नई-नवेली पतोहू को देख बड़ा गर्व हो रहा था।
बस स्टैंड से लगभग चार फर्लांग की दूरी तय कर अपने सरदार दफाई मुहल्ला पहुँच गये। उमेंदसिंह ने अपने बाँस की खपच्चियों व खपरैल वाले कुंदरा में प्रवेश किया। यही उसका घर था; और एक ठेकेदार मजदूर की एकमात्र स्थायी पूंजी भी। सर झुका कर ही नहीं; बल्कि अपनी कमर पर बल देकर रेवती ने अपने इस नये घर में अपना पहला कदम रखा।
दूसरे दिन पौ फटते ही उमेंदसिंह उठा। तैयार होने लगा काम पर जाने के लिए। घिसी हुई चप्पल पहनी। सर पर गमछा लपेटा। एक हाथ में बासी वाली टिफिन पकड़ा। कंधे पर कुदाल व फावड़ा रखा। वह घर से निकल ही रहा था कि उसने अचानक मुड़कर देखा। बोला- “यह क्या है रेवती… क्या कर रही हो…तुम कहाँ जाओगी ?”
“मैं भी जाऊँगी तुम्हारे साथ काम पर।” रेवती का एक मिठास प्रत्युत्तर था।
“नहीं.. नहीं… तुम नहीं जाओगी।” उमेंदसिंह की बातों में बड़ा स्नेह था।
“क्यों नहीं…? मैं भी जाऊँगी तुम्हारे साथ ; और जरूर जाऊँगी। भूल गये क्या, कि हमने साथ-साथ चलने की कसमे खायी है।” रेवती ने अपने सर पर जउँहा रख लिया था।
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@ टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”
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