November 24, 2024

“मुझे दुख है कि मैं महानायक भी नहीं बना”

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अमिताभ बच्चन नाम सुनते ही बरबस एक बार तथाकथित महानायक का चित्र उभर आता है । परन्तु हिन्दी जगत में जिस अमिताभ बच्चन का मैं नाम ले रहा हूं वे बिल्कुल ही उस भव्यता और भ्रम के चाम से विछिन्न हैं । वे सतत संघर्षशील मनुष्यता का आवाज़ बन महानायकत्व से मुठभेड़ करते दिखलाई देते हैं । वे न कभी महानायक हुए , और न कभी ऐसी मंशा ही रखें ।
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“मुझे दुख है कि मैं महानायक भी नहीं बना”

इस कविता के कथ्य का मूल भाव वस्तुत: इस पंक्ति में ही आकर , नहीं ठहरती । बल्कि यह व्यंजना में कहा गया उक्ति वैचित्र्य है । ऐसा इसलिए भी कि उस तथाकथित महानायकों की चिंता में जो खच्चरपना है , वह बिल्कुल साफ़ दिखाई देता है । जो उत्पादकों के उत्पाद पर अच्छी कीमत लगवा लेता है , ब्रांडिंग बढ़िया करवा लेता है । अपनी ही भावी नस्ल की चिंता में दो-चार होते कभी पलटकर आधीआबादी को जिसने नहीं देखा , उन आधी आबादी का संघर्ष , स्वतांत्र्य बोध , जिसे समझ न आया । ऐसा महानायक किस काम का ! जिसके पास आधी आबादी की चिंता ही काफूर है । उनका संघर्ष और मूल अधिकार सरोकारी नहीं है । निश्चय ही ये इलीट क्लास का पैरोकारी ताकतवर हैं , उतार- चढ़ाव से घबराते नहीं हैं , पीठ पर मैला लादे हिनहिनाते भागते हैं सरपट । परन्तु मनुष्य के जद में शामिल नहीं हैं । अमिताभ बच्चन इन मायनों में सरोकार के कवि ही नहीं महानायक भी कहे जा सकते हैं ।
एक कवि , कलाकार जब संदेह जताते हैं , तो जरूर उनके अंदेशे में सिर्फ आज ही नहीं रहता । बल्कि दीर्घकाल का दृश्य चित्र आकार ले रहा होता है । यानी वह उस दीर्घकालिक सच को देख रहा होता है जो आम जन के जीवन में शनै:शनै: प्रवेश कर ,असमय उनकी कब्रें खोद देता है । कविता में वस्तुत: यह यथार्थ के निमित्त उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया भर हो , परन्तु भावी पीढ़ी के लिए ये कम इतिहास भी नहीं होता ! प्रस्तुत है हमारे समय के ‘जागरण काल’ के कवि अमिताभ बच्चन की कुछ चुनिंदा कविताएं

मुझे ईर्ष्या है महानायकों से
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मुझे ईर्ष्या है महानायकों से
उनकी तरह मैं मजबूत घोड़ा
ताक़तवर खच्चर नहीं बन सका
जो उतार-चढ़ाव से नहीं घबराते
सारा कूड़ा-करकट
पीठ पर लाद हिनहिनाते भागते
सबकी नैया पार लगाते
टूटते सितारों को कन्धा देते
मुझे दुख है मैं महानायक भी नहीं बना ।

वे जीने के बारे में सोच रहे हैं
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वह दूध लेने गया था.
तुमने उसे मार डाला.

वह शादी के बर्तन मांजने आया था.
तुमने उसे मार डाला.

अरसे बाद वह अपने घर आया था.
तुमने उसे मार डाला.

वह प्रार्थना करके बाहर आया था.
तुमने उसे मार डाला.

वह अल्हा अल्हा चिल्ला रहा था
तुमने उसे मार डाला.

वे सुबक रहे हैं मरने वालों को याद कर रहे हैं
मारे जाने का इंतजार नहीं कर रहे हैं
सोच रहे हैं मरने वालों के बगैर जीयेंगे कैसे
हां वे जीने के बारे में ही सोच रहे हैं
और तुम उन्हें मारने के बारे में सोच रहे हो

निहा खातून
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एनआरसी और कैब निहा खातून को निश्चय ही
हेस्टिंग्स रोड, निकट बाबा मजार, कोलकाता से
किसी डिटेंशन कैंप में पहुंचा देंगे
वहां से वह कहां ले जाई जाएगी
किसी को नहीं मालूम

वह गुम हो जाएगी
इससे क्या फर्क पड़ेगा

विक्टोरिया मेमोरियल के गेट के बाहर
कुछ रहमदिल इंसानों के आगे-पीछे दौड़ते हुए
वह कुछेक गुलाब की कलियों का ही तो सौदा कर पाती है

मैं भी क्या कर सकता हूं फिलहाल
उसकी एक तस्वीर, एक फूल ले लेने के अलावा
उसके गाल थपथपा देने के अलावा

कल जब तुम …..

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कल जब जामिया विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में घुसकर
बच्चों को तुम बेरहमी से पीट रहे थे
जसीडीह के किसी गांव में पैदा हुआ बनारस में रहने वालाा एक बुजुर्ग कवि
बड़े जोश से कोलकाता में पढ़ रहा था
एक बंगालन लड़की के प्यार में डूबी अपनी बहुत पुरानी कविता

कल जब जामिया विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में घुसकर
बच्चों को तुम बेरहमी से पीट रहे थे
एक मामूली आदमी अपने ही विभाग के एक बड़े अधिकारी से बता रहा था
कि उसके दोनों बड़े बेटों ने दूसरे धर्म की लड़कियों से ब्याह रचा लिया
हम क्या करें साहब

कल जब जामिया विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में घुसकर
बच्चों को तुम बेरहमी से पीट रहे थे
बुलंदशहर का एक आदमी बड़े गर्व से बता रहा था
कि उसे अपनी मराठी बहू की जाति का नहीं पता
और हां, वह जिस बिहारी को ये सब बता रहा था
उसे अपने मराठी दामाद की जाति का पता नहीं था

कल जब जामिया विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में घुसकर
बच्चों को तुम बेरहमी से पीट रहे थे
बंगाल का एक पांचवी पास आदमी जो गेस्ट हाउस का स्वीपर है
और जिसका नाम मेघनाथ सरदार है
बड़ी शान और खिली हुई मुस्कान के साथ बता रहा था
कि हां, वह मेघनाथ साहा को जानता है
वे बहुत बड़े वैज्ञानिक थे

कल जब जामिया विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में घुसकर
बच्चों को तुम बेरहमी से पीट रहे थे
दो धर्मों के दो रसोइये एक साथ
दो दर्जन लोगों के रात के खाने की तैयारी में इस तरह जुटे हुए थे
जैसे देश कुछ नहीं होता, धर्म कुछ नहीं होता
ग्लास और प्लेट को चमकना चाहिए
फलों को काटकर इस तरह परोसा जाना चाहिए
कि आदमी की मरी हुई भूख जाग जाए

हमारा दर्शन
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थोड़ी-बहुत सम्पत्ति अरजने में कोई बुराई नहीं
बेईमानी से एक फ़ासला बनाकर जीना सम्भव है
ईमानदारी के पैसे से घर बनाया जा सकता है
चोर-डाकू सुधर सकते हैं
किराएदारों को उदार मकान-मालिक मिल सकते हैं
ख़रीदार दिमाग ठण्डा रख सकता है
विक्रेता हर पल मुस्कुराते रहने की कला सीख सकता है
ग़रीब अपना ईमान बचा सकते हैं
जीने का उत्साह बनाए रखना असम्भव नहीं
लोगों से प्यार करना मुमकिन है
बारिश से परेशान न होना सिर्फ़ इच्छा-शक्ति की बात है
ख़ुश और सन्तुष्ट रहने के सारे उपाय बेकार नहीं हुए हैं
लोग मृत्यु के डर पर काबू पाने में सक्षम हैं
पैसे वाले पैसे के ग़ुलाम न बनने की तरक़ीब सीख सकते हैं
कारोबार की व्यस्तताओं के बीच एक अमीर का प्रेम फल-फूल सकता है
समझौतों के सारे रास्ते बन्द नहीं हुए
बेगानों से दोस्ती की सम्भावनाएँ ख़त्म नहीं हुई
बच्चों और नौकरों को अनुशासन मे रखने के उपायों का कोई अन्त नहीं
चूतड़ के बिना भी आदमी बैठ सकता है
निरन्तर युद्ध की स्थिति में भी दुनिया बची रह सकती है

तरह तरह के हिन्दू
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सारे हिन्दू हिन्दू नहीं होते
जो हिन्दू नहीं होते
वे भी हिन्दू होते हैं
क्योंकि वे मुसलमान नहीं होते
लंगोट बाँधने,
राख लपेटने वाले
हिन्दुओं में भी
कुछ कम कुछ ज़्यादा हिन्दू होते हैं
एक खद्दरधारी गांधीवादी
कब खतरनाक हिन्दू में बदल जाए
क्या पता

गरम होता नरम हिन्दू
नरम पड़ता गरम हिन्दू
जनवादी हिन्दू
कम्युनिस्ट हिन्दू
मुक्त हिन्दू उन्मुक्त हिन्दू
जीवन के आख़िरी वक़्त में जगा हिन्दू
अछूत हिन्दू सवर्ण हिन्दू
गँवार हिन्दू सुसंस्कृत हिन्दू
दलितों के हिन्दू बने रहने की अपील करता हिन्दू
भ्रष्ट, अवसरवादी, धर्मनिरपेक्ष हिन्दू
टीक रखने और ठोप लगाने वाला हिन्दू
दिमाग ठण्डा रखने के लिए
माथे पर चन्दन लगाने वाला हिन्दू
भेदिया, प्रचारक, शूटर हिन्दू
संहार करने वाला हिन्दू
संहार देखता हिन्दू
अपने हिन्दू होने पर सुरक्षित महसूस करता हिन्दू
मुस्लिम लड़की के इश्क़ में गिरफ़्तार हिन्दू
उग्र हिन्दुओं से सम्पर्क वाला हिन्दू
जन्म से हिन्दू
सिर्फ़ नाम का हिन्दू
ख़ुद को हिन्दू बताने में शरमाता हिन्दू
झूठा हिन्दू सच्चा हिन्दू
मुसलमानों का डर समझने वाला हिन्दू
मुसलमानों को कसाई समझने वाला हिन्दू
क्या हिन्दुओं की ये अवास्तविक श्रेणियाँ हैं
नहीं, हिन्दू तरह-तरह के होते हैं
और यक़ीन मानिए
उतने ही तरह के मुसलमान भी होते हैं

महामारी के पहले
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एक बजबजाती नाली के साथ लगे
एनडीएमसी के एक कचरे के पहाड़ पर वे दुकान सजाते थे

पुलिस उन्हें माँ-बहन की गालियाँ देती
वे हंसते और उनके लिए सिगरेट लेकर दौड़ते

अच्छे पुलिस वाले बता देते
एकाध दिन के लिए लॉक डाउन कर लो सालो, भोसड़ी वालो
हमारी गाँड़ मत मारो

ओह, बहुत सारे अपमान और दुख और झिड़कियाँ थीं
जो उन्हें कितनी प्रिय थीं
ये उनकी थीं, उनकी सांसों की तरह थीं

कचरे के उस पहाड़ पर
ज़िन्दा मछली, तली मछली
और पिसे मसाले बेचने वालों के बीच
कैसी भयंकर मारा-मारी थी
फिर भी वह कितनी प्यारी थी

मेरा भेजा ख़राब हो गया है
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मेरा भेजा ख़राब हो गया है
कामवाली बाई का रोना-लड़ना मुझे अच्छा लगता है
लेकिन परेड देख कर मैं सैनिकों के लिए उदास हो जाता हूँ
उनके करतब देख मेरा मन रोता है
परेड देखता प्रधानमंत्री मुझे निखट्टु मालूम पड़ता है

मेरा भेजा ख़राब हो गया है
सलामी लेता राष्ट्रपति
मुझे गोदाम में सड़ता अनाज मालूम पड़ता है
राष्ट्रपति भवन देखकर
जालियाँवाला बाग में चलती गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है
जान बचाने के लिए कुएँ में गिरते लोग दिखते हैं
रानी एलिजाबेथ याद आती है

मेरा भेजा सचमुच ख़राब हो गया है
ये राष्ट्रपति, ये प्रधानमन्त्री कौन हैं
इन्हें देख जनरल डायर का चेहरा मुझे क्यों याद आता है
क्या मेरी आँखें ख़राब हो गई हैं
आकाश में कलाबाज़ी खाते प्रक्षेपास्त्रों को देख ये क्यों ख़ुश हो रहे हैं
इन्होंने हथियारों के विदेशी व्यापारियों को परेड देखने क्यों बुलाया है
ये उनके सामने गिड़गिड़ा क्यों रहे हैं
इन प्रक्षेपास्त्रों का आख़िर ये करेंगे क्या
क्या ये रखे-रखे सड़ जाएँगे
ये कंगाल खेत मजदूरों के किस काम आएँगे
ये प्रक्षेपास्त्र कबाड़ी की दुकान में कब पहुँच जाएँगे
मैं ढक्कन, मैं क्या सोच रहा हूँ

मेरा भेजा ख़राब हो गया है
मेरी चीन के लोगों से कोई दुश्मनी नहीं
मुझे अमरीकी लोगों से कोई नफ़रत नहीं
मुझे नहीं मारना है उन्हें
उनके हाथों नहीं मरना है मुझे
फिर ये लार क्यों टपका रहे हैं आग उगलते तोपों पर
ऊँटों पर बिठाकर ये क्यों घुमा रहे हैं मूँछ वाले इंसानों को
इस नज़ारे का मैं क्यों आनन्द नहीं उठा पा रहा हूँ छोटू

क्या मेरा भेजा ख़राब हो गया है
क्या इसी शक्ति-प्रदर्शन का नाम है गणतन्त्र
क्या मैं पाग़ल इस गणतन्त्र से बाहर हूँ
मुझे ये गणतन्त्र समझ में क्यों नहीं आ रहा
मुझे अपने समन्दर की चौकसी का डर क्यों नहीं सता रहा है
मुझे अपना भूगोल क्यों नहीं याद आ रहा है
मुझे ख़तरे सूंघने वाले अधिकारी कुत्तों की अहमियत का पता क्यों नहीं चल पा रहा है

मेरा भेजा ख़राब हो गया है
सावधान की मुद्रा पर मुझे हँसी क्यों आ रही है
विश्राम की मुद्रा पर मुझे हँसी क्यों आ रही है
तुम्हारा ये क़दमताल मुझे हँसा क्यों रहा है
ये डरावना माहौल मुझे डरा क्यों नहीं रहा है
ये आज़ादी का जश्न है मुझे समझ में क्यों नहीं आ रहा है
किसी भावी युद्ध का ये अभ्यास मुझमें गर्व पैदा क्यों नहीं करता
मुझमें किसी प्रकार की संजीदगी क्यों नहीं जगाता
तुम्हारे सैनिक समझौतों पर मैं हँसता ही क्यों चला जा रहा हूँ

मेरा भेजा ख़राब हो गया है

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कविताएं : साभार कविता कोश

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