May 3, 2024

आशा, उम्मीद और सौन्दर्य की कविताएँ: जीवन जिस धरती का

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विद्वान न होने के अपने ही सुख हैं। जो विद्वान मान लिए जाते हैं वे शायद साधारण चीजों को स्वीकारने की सहूलियत से वंचित रह जाते हैं! अपनी विद्वता का आवरण बरकरार रखने के लिए उन्हें कठिन काव्य, कठिन गद्य और मणि कौल एवं कुमार साहनी जैसे फ़िल्मकारों की दुरूह फ़िल्मों का ज़िक्र करते रहना पड़ता है।

साधारण व्यक्ति होने का सबसे बड़ा लाभ ये है कि आप राजकिशोर राजन, प्रदीप जिलवाने या चित्रा देसाई जैसे सीधी सरल कविता लिखने वाले कवियों की कविता न सिर्फ़ पसंद कर सकते हैं बल्कि उन पर बेहिचक कुछ कह भी सकते हैं😊

2021 में बोधि प्रकाशन से छपकर आए अपने नए कविता संग्रह ‘जीवन जिस धरती का’ की एक कविता ‘इस सच के साथ लौटना’ में राजकिशोर राजन कहते हैं-

“मैं लौटना नहीं चाहता इस सच के साथ कि हमारे समय में विद्वता, पांडित्य, बुद्धिमत्ता सबके सब
गोता लगाते मिलते
मौकापरस्ती के महासमुद्र में!”

लगभग डेढ़ पृष्ठ की इस कविता का समापन इन पंक्तियों से होता है⬇️

“इस सच के साथ लौट गया तो
मेरी कविताएँ हमेशा शिकायत करेंगी
कायर था, लौट गया पीठ दिखाकर।”

इस संचयन में शामिल उनकी कुछ कविताओं को पत्रिकाओं या किन्हीं साहित्यिक वेबसाइट्स पर पहले भी पढ़ चुका था। जिन कविताओं को पहली बार पढ़ा उनमें एक उल्लेखनीय कविता
प्रिय कवि केदारनाथ सिंह पर केन्द्रित है, जिसका शीर्षक है- ‘पगडंडियों पर घास बन उगता रहूँगा’ और जिसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“कोई माने या न माने
अपने प्रिय कवि की तरह
मैं मानता हूँ कि
अंत महज एक मुहावरा है।”

प्रस्तुत हैं इसी संकलन की दो प्रिय कविताएँ⬇️

◆दूब, गुलाब, तितली और मैं

दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द

सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कँटीली काया और सब्ज़ पत्तों को देखा
बाँट रहा था पृथ्वी को सुगन्ध निःशब्द

मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी घास पर
वह भी मना रही थी उत्सव रंगपर्व का निःशब्द
दूब, गुलाब, तितली सभी निःशब्द
पृथ्वी को समर्पित

मेरे पास सिर्फ़ शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं कुछ कविताएँ
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।

◆◆कविता की दुनिया

मेरे सामने एक-दो नहीं, कई रास्ते थे
परन्तु मैंने पगडण्डी ही पकड़ी
वहाँ एक मनुष्य होने के नाते
चल फिर सकता था मनुष्य की तरह

जी सकता था उन लोगों की दुनिया मे
जो पराजित हो गए द्यूतक्रीड़ा में
झोपड़ियों, जंगलों और गाँवों में रह गए महदूद
उनके पुरखे भी कभी छाँट दिए गए होंगे नगरों से
यह तर्क दे कर कि, जंगलों को जलाकर
मैदान बनाया हमने, फिर गाँव, फिर नगर बसाया हमने
तुम्हारा है हमारे नगरों में प्रवेश निषिद्ध

मेरी देह धूल से सनी
पैरों में भरी है बिवाईयाँ
जमी है पपड़ी होंठो पर
सभ्य नागर जन देख लें मुझे तो
प्रथमदृष्टया समझेंगे असभ्य ही
और मेरी कविताएँ, ठीक मेरी तरह
न उनमें अलंकारिक भाषा, न चमत्कार
न कलात्मकता का वैभव,
न बौद्धिकों के लिए यथेष्ट खुराक
तो मैं क्या करूँ !
यहाँ, कहाँ, तितली पकड़ने जाऊँ
जहाँ पेट के लिए आदमी हलकान
ग़रीबी, लाचारी और चिन्ता से गायब मुसकान
माथे पर रख हाथ, भविष्य को विचारते हैरान

खैर छोड़िए !
आप अपनी दुनिया में ख़ुश रहें
मैं अपनी दुनिया में मगन हूँ
गोकि कविता की दुनिया इतनी बड़ी है
जिसमें समा सकती है हमारी-आपकी तरह
सैकड़ों-हज़ारों दुनिया।

◆ जीवन जिस धरती का
◆ राजकिशोर राजन
● बोधि प्रकाशन
● Bodhi Prakashan
● पृष्ठ: 112
● मूल्य: ₹ 150
●आवरण: कुँवर रवीन्द्र Kunwar Ravindra

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