‘ताई’ तुम भी चली गई
इस समय तो तुम्हारी बहुत ज़रूरत थी
तुम्हारे हौसले की ज़िंदा मिसाल की तपिश
हमारी कमज़ोरियों को ताक़त में बदलती थी
अब किताबों में दर्ज़ तुम्हारे किस्से देंगे ताक़त
लेकिन किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
जिनपर पुस्तक लिखी गई होती हैं
या जिन्होंने पुस्तक लिखी होती है
उस पुस्तक को पढ़ कर कोई ज्ञानी होने का स्वांग मात्र ही रच सकता है
पुस्तक तो पुस्तक होती है
ये हमें ‘उसतक’ नहीं पहुँचाती…
देह में रहते हुए जिन्होंने तुम्हें जान लिया
पहचान लिया
वे परम भाग्यशाली हैं
इसलिए कि वे तुम जैसी तपस्विनी के दर्शन कर पाये
अब इससे आगे कुछ नहीं कहूँगी
क्योंकि कुछ कह ही नहीं सकती
भला कैसे मुमकिन है
ख़ुशबू को मुट्ठी में भर लेना
प्रकाश को झोली में भर लेना
प्रणाम करती हूँ तुम्हें
नमन, वंदन, अभिनंदन तुम्हारा
सिंधुताई प्रज्ञा शर्मा