हमें गणतंत्र से आग नहीं, पुष्प की आशा रही है…
हमें गणतंत्र से आग नहीं, पुष्प की आशा रही है, लेकिन एक प्रति-नायक खलनायक इधर खूब चर्चित हुआ है, जिसका तकिया कलाम है कि ‘पुष्पा बोले तो फ्लावर समझे क्या, आग है मैं, झुकेगा नहीं।’ घर में बंद रहे हम लोगों को दिनों बाद एक नया फंटूश तस्कर मिला है, तो हम लट्टू हुए जा रहे हैं। वैसे हमारी स्मृतियों में तो वह पुष्पा है, पचास साल पहले आई फिल्म ‘अमर प्रेम’ वाली और वह राजेश खन्ना का संवाद, ‘पुष्पा, आइ हेट टीयर्स।’
आखिर नया क्या है, नई वाली पुष्पा में? यह पुराने कलेवर वाली नए तेवर (स्टाइल) से लैस फिल्म है। क्या यह पहला प्रति-नायक है, बीच गाने में जिसकी चप्पल खुल जाती है? क्या यह पहला नायक है, जिसकी घनी दाढ़ी में इस तंत्र और समाज ने खूब सारे तिनके फंसा रखे हैं? क्या यह पहला प्रति-नायक है, जो अपनी दाढ़ी से तिनके निकाल-निकाल कर अलाव सुलगा रहा है?
बेशक, फिल्म रसदार-मिक्स मसाला है और मनमोहन देसाई की सफल कट-पेस्ट फिल्में याद आने लगती हैं, जिनमें तथ्य-तर्क का भी बड़ा लोचा रहता था। देसाई की फिल्में तंत्र के दायरे में ही बहती हैं, लेकिन ‘पुष्पा : द राइज’ मुठभेड़ के मुहाने पर पहुंचने का आभास देती है। माफिया तस्कर बंदूक के साये में भ्रष्ट एसपी के कपड़े उतरवा देता है और खुद भी कपड़े उतारकर कहता है, तू नंगा है, तो तुझे कुत्ता भी नहीं पहचानेगा, लेकिन मैं नंगा ऐसे ही जाऊंगा, तब भी लोग मुझे पहचानेंगे, मेरा ब्रांड वर्दी या कपड़े का मोहताज नहीं है।
वाकई ऐसा ही होता है, माफिया सीधे शादी के मंडप में पहुंचता है, जहां माफिया संरक्षक एक मंत्री जी भी उसका इंतजार कर रहे हैं और एसपी जब अपने बंगले पर पैदल पहुंचता है, तो उसका कुत्ता भी भौंकने लगता है, जाहिर है, एसपी के गुस्से की गोली भी खाता है। एक और उल्लेखनीय दृश्य है, जिसमें एसपी ‘कुछ कम है.. कुछ कम है’ की रट लगाए हुए है। मतलब, बुरी तरह से भ्रष्ट तंत्र के एक सेनापति को पैसे से भरे बैग के साथ-साथ पूरा सम्मान भी चाहिए। लेकिन कपड़े खुलने के बाद आहत एसपी घर आए पैसे को भी आग देता है, मतलब, तंत्र के सेनापति के लिए धन नहीं, सम्मान प्राथमिक है। सवाल है कि पुष्पा ने संविधान को चुनौती दी है या उसके एक सेनापति को या पूरे तंत्र को? स्याह धन का एक बैग जलाने से क्या होगा? क्या लाल चंदन के साथ देश के बिकने का सिलसिला थम जाएगा?
अंतत: यह पुष्पा भी आम आदमी के बीच से निकला चतुर चोरों का एक प्रतिनिधि है, जो हमारे उस गणतंत्र को आईना दिखा रहा है, जिसके अनेक कारिंदे चोरों के मौसेरे भाई बनने को लपलपा रहे हैं।
याद कीजिए, आज से तीस साल पहले देश के एक बड़े सेनापति एन एन वोहरा ने देश में बढ़ते अपराधीकरण का अध्ययन किया था, उनकी रिपोर्ट काट-छांटकर संसद में पेश हुई थी। जाहिर है, उस खास रिपोर्ट के कटे-छंटे हिस्से ही आज भी गणतंत्र को चुनौती दे रहे हैं। अब पुष्पा : द रियल का इंतजार कीजिए और देखिए तो सही कि आप कहां हैं? किसी सिंडिकेट में तो नहीं हैं? क्या कर रहे हैं? जय जय भारत..
ज्ञानेंद्र उपाध्याय