देहरी के उस पार
–डा. सत्यभामा आडिल
भिलाई का कारखाना बना,50 गांव उजड़ गए।किसानों को मुआवजा मिला और वे अन्यत्र बस गए। पर एक छोटा सा गांव ,भिलाई ईस्पात नगरी से जुड़ा हुआ ,अपनी अलग कहानी कह रहा है।जमींदार मानिकराम का संयुक्त परिवार वहां बसा हुआ है।गांव में पारम्परिक रूप से, कुर्मी, बाम्हन, तेली,राऊत,धोबी, नाऊ,सतनामी सभी यथावत रह रहे हैं। गांव का रिश्ता निभा रहे हैं।गांव के रिश्ते जाति को ताक पर रखकर
माने व निभाए जाते हैं।
महका खुर्द—गांव का नाम!बस एक दम्पति ऐसा–जिसका कोई रिश्ते दार आसपास के किसी भी गांव में नहीं था। चना मुर्रा फोड़ने वाली जाति का था—भड़भूँजा। निःसंतान!
पति का हाव भाव,बोल चाल कुछ कुछ.स्त्रियों की भांति था।गांव के लोग उसे “मेहला”पुकारते और वह हंंसते हुए दौड़कर आ जाता।उसकी पत्नी चपल व बातूनी थी। दोनों मस्त मौला जोड़ी थी।
मानिकराम की बेटी को देखने लड़केवाले आए।
श्यामा 10वीं पास थी। गांव में स्कूल केवल 10वीं तक था।उसे भिलाई नहीं भेजे आगे पढ़ने के लिए, जबकि मानिकराम.के दो बेटे भिलाई.कारखाने में ही.इंजीनियर थे।
वे जब भी गांव आते, बहन श्यामा के.लिए बहुत सारी पत्रिकाएं लेकर आते ताकि श्यामा का बौध्दिक विकास होता रहे।श्यामा खुश थी।
लड़के वाले रविवार को बारह बजे गांव पहुंचे।दोनों पिता पुत्र शिक्षक थे।पिता श्यामलाल दुर्ग शहर के हाईस्कूल में प्राचार्य थे पुत्र किशन भिलाई के हाईस्कूल में व्याख्याता
था। पढ़ा लिखा परिवार देखकर मानिकराम प्रसन्न था। बेटी श्यामा दसवीं के बाद पढ़ने नहीं गई, उसे इसी बात का दुख सता रहा था। कहीं लड़का मना न कर दे–उसे आशंका हो रही थी।
श्यामा पानी लेकर आई।
“क्या नाम है बेटी?”
“जी,प्रणाम!श्यामा.!”
” क्या पढ़ रही हो?”
“जी,टेन्थ के बाद आगे नहीं पढ़ी।क्योंक यहां आगे की कक्षा नहीं है।
“अरे, तुम्हारे दोनों भाई भिलाई में इंजीनियर हैं–वहां रहकर आगे पढ़ सकती थी। ऐसा क्यों नहीं की?”
“दर असल मां बाबूजी अकेले हो जाएंगे सोचकर यहीं हूं। भैया भाभी जब आते हैं तो कई तरह की पत्रिकाएं ले आते हैं।उन्हें पढ़ती हूं।मशीन से कपड़े सीना भी सीख रही हूं।मु्झे सिलाई बुनाई कढ़ाई में विशेष रुचि है!रसोई में भी मां के साथ हाथ बंटाती हूं। मुझे अच्छा लगता है। पत्रिका में नये विचारों को जानने को मिलता है।”
किशन चुपचाप सुनता रहा, मुस्कुराता रहा।
श्यामा अंदर चली गई।
“अब भोजन करते हैं,चलिए ,हाथ पैर धोने।”
यह कहते हुए मानिकराम उन दोनों को आंगन में ले गए। पुरखों की परंपरा चली आ रही—भोजन से पहले पैर धोने की। आंगन के एक ओर “गोड़धोवन” की जगह—- बड़ा सा पत्थर। सामने कोचई के बड़े बड़े पत्ते लहलहा रहे।। एक बड़ा आम का पेड़ छाजन सा अडिग खड़ा है ।बस बौर आने ही वाले हैं। पत्थर के पास एक बाल्टी पानी और लोटा रखा हुआ है।
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पहले श्यामलाल,फिर किशन,फिर मानिकराम ने पैर धोए।तब तक श्यामा हाथ पोंछने के लिए टावेल लेककर खड़ी हो गई।किशन उसे उपर से नीचे तक देखता रहा।चकित था–गांव के परिवेश में रहकर ,इतनी सुघड़? संभवत उसके दोनों भाई व भाभी का शिक्षित संस्कार आया हो! चौके के सामने,लगे हुए वरामदे में तीन दरियां व तीन पाटे लगे हुए थे। हर पाटे के बाईं ओर पानी भरा लोटा व गिलास। सनातन संस्कृति की रक्षा करती हुई शानदार परंपरा! आया हो! चौके के सामने,लगे हुए वरामदे में तीन दरियां व तीन पाटे लगे हुए थे। हर पाटे के बाईं ओर पानी भरा लोटा व गिलास। सनातन संस्कृति की रक्षा करती हुई शानदार परंपरा!
श्यामा ने कांसे की बड़ी थाली में चांवल दाल व कांसे की ही कटोरी में गोभी मटर आलू की रसदार सब्जी परोसी। एक अलग कांसे की प्लेट में-पापड़, बिजौरी, लाईबड़ी रखी-जो छत्तीसगढ़ का विशेष खानपान है।
आम व कटहल का अचार उसने पूछकर परोसा। इसी तरह तीनों क़ो भोजन परोसा गया ।
सिलबट्टे में पिसी टमाटर की चटनी तो यहां अनिवार्य रूप से खाई जाती है।
खीर अंत में परोसी गई। श्यामलाल व किशन एकदम तृप्त होकर. हाथ धोने उठे।
. हाथ धोने तीनों जन फिर गोड़धोवन के पास
गये।
मानिकराम थोड़ा अंदर गये।पिता ने पुत्र की ओर देखा–शायद सहमति असहमति के लिए।पुत्र समझ गया। उसने स्वीकृति में सिर हिलाया।श्यामा पान सुपारी लेकर आई।
“अरे घर में पान भी है? वाह!क्या खूब?”
“बाबूजी पान के शौकीन हैं-तो उनके लिए मंगाकर रखती हूं। कत्था,चूना,पान–सुपारी,गुलकंद–सब एक बाक्स में रखती हूं। ”
श्यामा धीरे से बोली।
किशन तो रीझ गया–ऐसा लग रहा था। पिता ने ऐसा ही कुछ महसूस किया!
जाते-जाते श्यामलाल मानिकराम के गले लग गये।
” मैं सोच नहीं पाया था–इतनी सुसंस्कृत बेटी मिलेगी।हम आगे पढ़ा लेंगे।बहुत गुनी है। अक्षय तृतीया को लगुन पूरा हो जाएगा।
चलें दाऊजी!जै रामजी की!
पिता पुत्र के.जाते ही घर में मानों उत्सव जैसा
वातावरण बन गया! मेहला मेहलिन पूरे गांव में संदेश फैला दिए। शाम होते ही भिलाई से दोनों बेटे बहू आ गये। वे लोग हर रविवार को आते ही थे । पर आज खुशियों का संसार बस गया था।
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गांवसे भिलाई जाने वाले मार्ग में बहुत बड़ा जलाशय था-जिसे ” बांधा” कहते हैं।बांधा में कांदा भी कोड़ते हैं।बहुत मिठास होती है–कांदा में।उस बांधा से नहर भी जाती है। कभी कभी शौक से लोगबाग नहाने भी जाते थे। मेहला कांदा कोड़ने लगा,मेहलिन श्यामा को लेकर नहाने व कपड़ा धोने चली। श्यामा नहाते -नहाते अचानक डूबने उतराने लगी।शायद गहराई की ओर चली गई ! मेहलिन ने मेहला को पुकारा—दोनों ने मिलकर श्यामा को निकाला।छाती में पानी भर गया था।श्यामा को कंधे में उठाकर मेहला घर की ओर दौड़ा,पीछे -पीछे मेहलिन दौड़ी–कांधा में सारे कपड़े धरे–धरे—।
मानिकराम पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़! अड़ोसी पड़ोसी तो सिर्फ हल्ला करते रहे थे। बैलगाड़ी तो ऐसे समय में .काम का नहीं। गनीमत है मानिकराम स्कूटर चलाते थे।स्कूटर निकाले। श्यामा को कंधे में रखे मेहला स्कूटर के पीछे बैठा।15मिनट में वे भिलाई सेक्टर-9हास्पिटल पहुंच गए।आपात कक्ष .में ले गए।अब मानिकरराम ने दोनों बेटों को फोन कर बुलाया।
12घंटे बाद श्यामा होश में आई। मेहला मेहलिन पूरे समय अस्पताल में रहे मानिकराम ने मुंह में पानी तक नहीं डाला। सुबह.सुबह डिस्चार्ज किए। बेटे मनोहर ने कहा—“बाबूजी श्यामा को भिलाई में मेरे पास रहने दो,देखभाल हो जाएगी।”
पर,मानिकराम नहीं माने–“नहीं बेटा,तुम्हारी मां चिंता में परेशान होगी।”मनोहर ने कार में सबको गांव पहुंचा दिया! दवा की व्यवस्था कर दी।
शुरु हुई यहां की दिनचर्या! मेहला मेहलिन अब चौबीस घंटे यहीं सेवा जतन में लगे रहे। केवल
नहाना,दिशाजाना बाहर।श्यामा आवाज लगाती–” काकी—-”
मेहलिन भागी भागी आती!
दवाई,मालिश,नहलाना धुलाना,खिलाना पिलाना और रात्रि गोरसी तीर बैठ कर कहानी किस्सा सुनना सुनाना चलता रहा!
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दोनों पलंग के बीच में गोरसी!दग्-दग् जलती छेने की आग। जमीन में एक ओर मेहलिन बैठी किस्सा सुना रही—–चित्ती डिब्बी की कहानी , फिर राजा रानी,फिर ग्वालिन , फिर हीर रा़झा!
अधरतिया हो गई। श्यामा को नींद आ गई।एक पलंग में श्यामा,दूसरे में .मां नन्दिनी सो गई। मेहलिन कथरी खींचकर पलंग के नीचे सो गई।
मेहला मानिकराम के कमरे में कथरी में दुबक गया।वहां भी एक गोरसी जली थी!
सुबह नन्दिनी नहीं उठ पाई! मेहलिन उठकर बरतन ,झाड़ू कर ली। मेहला तालाब व दिशा हो आया। मेहलिन चूल्हा जलाकर चाय बना ली। मानिकराम मेहला चाय पी लिए।श्यामा मुंह हाथ धोकर चाय पी ली।नन्दिनी शायद थकी थी कल की चिंता के कारण–मेहलिन व श्यामा यही सोच रही थी।
मानिकराम की आवाज आई–” श्यामा की मां कैसे उठी नई है क्या ?”
“सोई है.बाबू जी”।
“काली के थके होही.दाऊ!”
“नहीं,आठ बजगे,उठा ! कभु अतका बिलमे नइए।”
श्यामा ने आवाज लगाई–“मां मां ! उठ ना “!
पर,नन्दिनी नहीं उठी!.मेहलिन हाथ पकड़ कर.उठाई—-यह क्या?
मुंह टेढा़,हाथ,पैर उठ नहीं रहा?
“दाऊ—–” मेहलिन चिल्लाई–श्यामा रोने
लगी।
मानिकराम दौड़ते आये।
“लकवा—-मार दिया?”
बेटे मनोहर को फोन किया –तुरंत!
घर में ताला बंद ! सभी चले गए।मेहला मेहलिन भी !
वही अस्पताल सेक्टर-9, फिर से कड़वे अनुभव से गुजर रहा दिन।मनोहर और हरि मोहन दोनों भाई जी जान से जुड़ेरहे मां के लिए।श्यामा भाभियों के साथ घर पर है क्योंकि वह अधिक देर तक बैठ नहीं सकती।कमजोरी बहुत है।हरिमोहन मेहला व मेहलिन को गांव पहुंचाकर आया , घर में रहने व रखवाली के लिए। एक हफ्ते में नन्दिनी ठीक हो गयी। दवाइयां चलती रहेंगी।मालिश चलती रहेगी।मुंह अब ठीक है।हाथ पैर भी ठीक है।हलचल,रक्त का बहाव धीरे से चलना शुरू हो गया।एक हफ्ते मनोहर के घर रहकर वे फिर से गांव चले गए।सेवा के लिए मणीकराम व नन्दिनी को मेहला मेहलिन पर,अपने से भी अधिक भरोसा था।
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वे सब आ गए गांव।केवल पांच किलोमीटर की दूरी थी, मानों दूसरी कालोनी हो। मेहला मेहलिन गदगद!रो पड़े दोनों!खुशी के आंसू बहने लगे–मानों माता पिता आ गए हों।
श्यामा इस बीच,मनोहर के घर दोनों भाभियो के साथ रहकर एकदम प्रसन्न व स्वस्थ हो गयी। निरन्तर बातचीत् , टी,, वी, देखना,अलग अलग डिशेस,नई नई पत्रिकाएं, स्वेटर की नई डिजाइनें—एक सप्ताह का समय चुटकियों में उड़ गया।
गांव में रहते, मेहलिन की सेवा से, नन्दिनी करीब करीब स्वस्थ ही हो गयी। दवाई का विशेष ध्यान श्यामा ही रखती।
मुंह देखकर तो पता ही नहीं चलता कि लकवा का शिकार हो गयी थी अभी-अभी नन्दिनी!
एक माह बीत गए इस बात को।वसन्तपंचमी कब आकर चला गया!आम कब बौरा गए—ध्यान ही नहीं गया था।अचानक तेज हवा चली—–और चने के आकार के छोटे छोटे आम आंगन भर गिरे पड़े थे,—-तब मेहलिन ऊपर देखकर चिल्लाई–“आमा फर गे दीदी!”
मेहला ने कहा–“दाऊ, दसहरी आमा फरगे! झरझरागे दाऊ!बरवट ले भीतरी आ तो!”
वह खुशी से उछल पड़ा!वह आम का पेड़ गोड़ धोवन के पास ही लगा था।हाथ पैर धुलने वाला पानी आम व कोचई को जीवित बनाए रखा था। एक पन्द्रही। कोचई पते की कढ़ी–
” ईडहर”–जरूर बनाते व भात के साथ खाते।
जब मनोहर व हरिमोहन सपरिवार आते उस दिन “ईडहर” जरूर बनता।
इस बीच ,श्यामा वाली घटना व नन्दिनी वाली घटना के बाद मेहलिन चाय पानी बनाने लगी थी।अब रसोई में भी भोजन बनाने लगी थी। काम अधिक होने लगा, तो एक दूसरी कामवाली–झाड़ू बुहारू के लिए लगा लिए थे। वह बहुत बातूनी थी।घर की सारी बातें गांव में बतियाते रहती थी।एक दिन गांव का एक बुजुर्ग आकर मानिकराम से कहने लगा—
” कईसे भईया ,का सुनथंव?”
“का सुने हस?”
मेहलिन ह रांधत गढ़त हे?”
“त का होगे? ओ नई करही त कोन करही?
हमर ऊपर बिपत आये हे!एको झन पूछे बर आय हव का,?”
” सबो ऊपर बिपत आथे गा! फेर जात् पात ला देखे जाथे।मेहलिन तोर सगा ये का?”
“जउन बिपत म काम आथे, उहि सगा ये गा।”
“देख ले सोच ले,फेर बेटी के बिहाव कईसे होही? जात्, ,बिरादरी समाज के मामला ये!”
और चेतावनी देकर वह चला गया।
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फागुन का महीना,मदनोत्सव और रंग गुलाल!
सब कुछ अच्छे से बीता ।पर गांव में गुनगुनाहट बढ़ गई।बिरादरी की फुसफुसाहट बढ़ गई।मेहलिन का रसोई में काम करना—“भड़भूजा” जाति का प्रवेश?
यानी अन्य छोटी जाति का प्रवेश बिरादरी में वर्जित है।रविवार को दोनों बेटों का परिवार आया।मेहलिन ने ईडहर का साग बनाया।
रात में मानिकराम ने बेटों को बिरादरी वाली बात बताई।मनोहर ने तड़ाक से कहा–“कोई चिंता की बात नहीं बाबूजी। हम निपट लेंगे।”
“कैसे?मुझे बताओ?”
आजकल सरकार ने भी नियम बना दिये हैं–जाति बहिष्कार के विरुद्ध हम रिपोर्ट करेंगे।”
” पर गांव में सब कट्टर होते हैं बेटे। सब व्यवहार,काम धाम बन्द हो जाता है। ”
“चिंता मत करो, सब सोचते हैं। आप लोग तो गांव छोडना भी नहीं चाहते न?यही तो समस्या। है न ?।आराम से वहां हमारे साथ रहते?”
खेती सब रेगहा में दे देते हैं!”लीज”पर तो कई गरीब लोग तैयार हो जाएंगे।वैसे भी वे हमारे खेतों में ही काम कर रहे हैं। एक आदमी दो एकड़ खेत लेगा,तो दस आदमी बीस एकड़
खेत लीज पर ले लेंगे—जो आज मज़दूरी कर रहे हैं-वे मालिक की तरह करेंगे काम।रेत तय कर लेते हैं।”
“रुको बेटा, धैर्य रखो। अक्षय तृतीया को शादी निपटने दो । फिर सोचते हैं।बस अप्रैल मास आने ही वाला है।”
” ठीक है बाबूजी,पर चिंता मत करना।मेहला कका व काकी को इसी तरह रहने दो,और काम करने दो। उन्हें कुछ मत कहना।”
बच्चे चले गए।मानिकराम को बच्चोँ से बात करके राहत मिली।
एक दिन अचानक मौसम खराब हो गया।तेज ठंडी हवा चली।पानी गिरा,बड़े बड़े ओले गिरे।
आम पूरे झड़ गए।छोटे छोटे आलू जितने बड़े हो गए थे। ओले व आम मिक्स होकर आंगन में छा गए। रात हो गयी थी। दो गोरसी जलाकर दोनों कमरों में रख दिया गया। जब पानी बन्द हुआ, तब खाना खाएं। गोरसी के पास बैठे व सो गए।इस बार कोई कहानी किस्सा नहीं।
ठंड की फसल को नुकसान हुआ।सब्जी की खेती बर्बाद हो गई । किसान की करलई का बखान किससे किया जाय?गनीमत है धान मंडी में बिक गया था। मानिकराम के मस्तिष्क में बहुत सारे विचार आ – जा रहे थे।नींद में विघ्न हो रहा था। सुबह – सुबह मेहला के कराहने की आवाज आई।मानिकराम हड़बड़ाकर अपनी चादर खींचकर उठे।
“भैरा- भैरा “–आवाज लगाए।
मेहला क़े गले से घरर – घरर आवाज आ रही थी!
सब लोग मेहला ही कहते,पर मानिकराम उसे “भैरा” पुकारते,क्योंकि। वह ऊंचा सुनता था।
मानिकराम से दस साल छोटा था मेहला। बड़े दाऊ ने यानी मानिकराम के पिता ने उसे बचपन से पाला था।रायपुर महादेववघाट के पुन्नी मेला में वह अनाथ बच्चा मिला था।उसकी बूढ़ी दादी ने बड़े दाऊ के सुपुर्द कर दिया था।वह अभागन इसकी परवरिश नहीं कर पा रही थी।बड़े दाऊ ने बूढ़ी दादी को रुपये पैसे,कपड़े लत्ते दिए व वादा किए की इसे पालेंगे।तभी उसने अपनी जाति बताई थी।तब वह पांच बरस का था।
जब वह पन्द्रह-सोलह बरस का था, तब गांव में देवार जाति के लोग नाच गाने के लिए आये थे।देवार ने अपनी चौदह साल की बेटी मेहला को ब्याह दी।मानिकराम ने सहमति दे दी।तब से मेहला भैरा व मेहलिन। चना मुर्रा फोड़ते और बड़े दाऊ के ब्यारा में बने दो कमरे में रहते।
आज वही भैरा उसके सामने कराह रहा है।
मानिकराम नेउसे छूकर देखा।देह मानों जल रहा था।उसने मनोहर को फोन किया।तब तक मेहलिन भी उठ गई।
” का होगे दाऊ मोर जोड़ी ला?”
श्यामा बोली–“काकी, थिरा जा।”
नन्दिनी बोली–“झन घबरा,दाऊ हाबे ना संग मा।”
पर सांस रुक गयी मेहला की।मेहलिन दहाड़ मारकर रोई—–
अडोस पड़ोस में आवाज गयी,–पर बाहर से ही झांक झांक कर लोग जाने लगे,कोई अंदर नहीं आया।
पता नहीं क्या सोचकर मनोहर ने श्यामा के ससुर को सारी बातें बता दी थी।आजभी फोन पर यह बात बताई।मास्टर श्यामलाल भी मनोहर के पीछे-पीछे गांव पहुंच गए। साथ में बेटा किशन भी था।
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मेहला को बाहर आंगन में लाये।जमीन पर लिटाये।मेहलिन का रोना बन्द ही नहीं हो रहा था।।सवाल उठा कौन दाह संस्कार करेगा?
गांव वाले दरवाजे पर खड़े थे।एक नए कहा–“कोन कांधा देही?”
दूसरे ने कहा–” कोन आगी देही?,”
तीसरे ने कहा-“ओखर गोतियार खोजव?” सब-सुनकर मनोहर चीखा—“, सब जान्थव दस गांव मा ओखर कोनो सगा नईये,तभो ले, पूछत हव? हमर सेवा करे हे, त् हम आगी देबो,हम कांधा देबो।”
एक ने कहा–“,सोच ले बाबू!गांव के बेवहार बन्द।”
“हव, सोच डरेन! मनखे के मनखे काम नहीं आही, तो कोन काम आही? भगवान ह जात पात बना के नई भेजे हे।हम जात पात बनाये हन।”
“तोर नवा जोस बोलथे बाबू?”
” देख ले बबा—–”
दोनों भाईयों ने कांधा दिया।
श्यामा दौड़ती आयी–“मैं भी कांधा दूंगी भैरा कका को—”
गांव से आवाज उठी—“लड़कीं जात अउ कांधा देही?”
दूसरी आवाज–“बिहाव कईसे होही?अईसन करही त?”
तीसरीआवाज—-“सब जात बाहिर हो जहीं,
त बिहाव तो होबे नई करय अब?”
“नवा बिचार वाला मन ननजतिया होंगे सब?”
“चुप रहो सब!आगी भी दी जाएगी और शादी भी होगी!”—मास्टर श्यामलाल ने जोर से कहा।
सब अचंभित हो गए।कौन है यह आदमी?
गांव का नहीं है।रिश्तेदार भी नहीं।कभी देखे भी नहीं।
“तंय कोन अस बोलईया?”
“मैं? श्यामलाल।दुर्ग हाई स्कूल का प्राचार्य हूँ।ये मेरा बेटा किशनलाल।हम दोनों भी कांधा देंगे इसको।मनोहर आग देगा।बोलो क्या कहना है?
तुम लोग क्या सोचते हो?इस गरीब इंसान का कोई नहीं? मनुष्य मनुष्य के काम नहीं आएगा, तो किसके काम आएगा?
जात मनुष्य का बनाया है।हम पहले मनुष्य हैं।”
इतना कहकर मनोहर से बोले–“तुम दोनों भाई। और हम दोनों बाप बेटे–चार लोग कांधा देंगे।श्यामा तुम घर पर रहो।मां लोगों को सम्हालो।”
गांव वालों की बोलती बंद हो गयी।
एक ने जोर से कहा–“ऐ श्यामा बिहाव होके जाही त देहरी के भीतर वापस नई आवय। देख लेबे।”
“कौन बोला?”,-मास्टर श्यामलाल गरजे!
“श्यामा देहरी के उस पार जाएगी, तो,मेरी बहू बनकर जाएगी। फिर वापस आने का सवाल कहां उठता है?गांव वालों मैं दाऊ मानिकराम का होने वाला समधी हूँ। ये बेटी मेरे घर जाएगी!”
“चलो मनोहर–“और मेहला का उठावन हो गया।
गांव वालों के मुंह में ताला लग गया।
श्यामा का सिर आदर से झुक गया और
मन गर्व से भर गया। वह अभी से देहरी के उस पार चली गयी।
–डॉ, सत्यभामा आडिल