गोटुल/ घोटुल…
संभवतः इसके बारे में बहुत लोग जानकारी रखते होंगे, पर सही-सही जानकारी रखते हैं या नहीं इस पर संदेह है. क्योंकि बहुत सारे ग़ैर-आदिवासी साहित्यकारों, मनावशास्त्रियों, फिल्मकारों, मीडियाकर्मियों और शोधकर्ताओं ने दुनिया के सामने इसका वर्णन बेहद फूहड़ तरीकों से किया है।
उन्होंने इसे आदिवासी युवक-युवतियों अथवा किशोर-किशोरियों के खुले यौनाचारों के केंद्र बताकर दुष्प्रचारित किया है. जबकि हकीकत इससे कोसो दूर है।
गोटुल/ घोटुल आदिवासी समाज की नई पीढ़ियों को उनकी अपनी संस्कृति, परंपराओं, गीतों, कथाओं, नृत्य, शिकार, उत्सव, कृषि के गुण सिखाने वाली ऐसी संस्था है जिसमें लड़का-लड़की साथ-साथ इन सब कलाओं और कार्यों में पारंगत होना सीखते हैं। साथ ही इन संस्थाओं में भावी जीवन के लिए किशोर-किशोरियों को यौन संबंधों के माधुर्य और जटिलताओं के बारे में भी जानकारियाँ दी जाती हैं।
हमारे देश में मध्य भारत के अतिरिक्त पूर्वोत्तर, दक्षिण और पश्चिम में भी इन संस्थाओं का अस्तित्व है, बस नाम अलग-अलग है. जैसे – गिटीओरा, घुमुकुड़िया, छंगरबासा, रंगबंग आदि।
आज जिस को-एड, सेक्स और क्लाइमेट एज्युकेशन की हम बात करके आधुनिकता का दम्भ भरते हैं आदिवासी समाज में उसकी व्यवस्था कई-कई पीढ़ियों से मौजूद है…..
(आदिवासी प्रकृति पूजक वाल से साभार)