88.5 वे उँगलियों से स्पर्श कर अक्षर चीन्ह लेते थे
अशोक और उनके दृष्टिबाधित मित्रों की दुनिया में वही सब कुछ था जो हमारी दुनिया में था लेकिन उनका रूप कुछ अलग था । उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं को मैं बहुत कुतुहूल से देखा करता था । उनकी शाला में एक ऐसा ग्लोब था जिसमें उभरे हुए पहाड़ थे और नदियों के स्थान पर कुछ गहराई थी ।
अशोक उस ग्लोब में अपनी उंगली एक उभरे हुए स्थान पर रखता और कहता “यह हमारा हिमालय पहाड़ है ৷” नक़्शे में पहाड़ को पहाड़ की तरह और नदी को नदी की तरह देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था ৷ ऐसा ही बड़ा सा भारत का नक्शा बैतूल के नेहरू पार्क में बना था जिसकी नदियों में पानी भी बहता था ৷
अशोक अनेक वस्तुओं को स्पर्श द्वारा ही पहचानता था ৷ कई बार उसे अपने शिक्षकों की मदद भी लेनी पड़ती थी ৷ शाला के शिक्षक देशकर और ब्रह्मे गुरूजी दोनों दृष्टिबाधित थे ৷ बाबूजी से उनकी मित्रता थी और कभी कभी वे घर भी आया करते थे ৷ मुझे उनकी लाल सफ़ेद छड़ी बहुत अच्छी लगती थी ৷
देशकर सर के पास एक ऐसी हाथ घड़ी थी जिसका ढक्कन ऊपर की ओर खुलता था ৷ वे काँटों को टटोलकर सही सही समय बता देते थे ৷ कभी कभी वे रजिस्टर नुमा एक किताब लेकर घर आते जिसमे ड्राइंग शीट जैसे मोटे मोटे कागज़ों पर कुछ बिंदु उभरे हुए होते. वे उन्हें टटोलकर कुछ कहते मानों कुछ पढ़ रहे हों ৷
उन्होंने ही मुझे पहली बार बताया कि यह ब्रेल लिपि है जिसका आविष्कार फ्रेंच शिक्षक लुई ब्रेल ने किया था ৷ यह लिपि विशेष रूप से दृष्टिबाधित लोगों के लिए बनाई गई है ৷
देशकर सर लुई ब्रेल के बारे में अपने छात्रों को कुछ इस तरह बताते थे जैसे वे उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते हों ৷ लुई ब्रेल का जन्म फ़्रांस में अठारह सौ नौ में हुआ था ৷ जब वे तीन वर्ष के थे तब एक दुर्घटना में उनकी ऑंखें चली गई थीं लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अन्य लोगों की मदद से अपना अध्ययन जारी रखा ৷
लुई ब्रेल को फिर ‘रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ब्लाइंड यूथ’ नामक संस्थान में प्रवेश मिला जहाँ रहते हुए उन्होंने चार्ल्स बार्बियर की स्पर्श द्वारा पढ़ने की एक प्रणाली का अध्ययन किया और उसे विस्तार देते हुए एक ऐसी लिपि का आविष्कार किया था जो कागज़ पर बिन्दुओं को उभारकर लिखी जाती थी ৷ इन उभरे हुए बिन्दुओं को स्पर्श कर यह जाना जा सकता था कि वहाँ क्या लिखा है ৷ उनकी उम्र उस समय मात्र पंद्रह वर्ष थी ৷
लुई ब्रेल ने इस लिपि को अठारह सौ उनतीस में ही रजिस्टर करवा लिया था ৷ बाद में उन्हें उसी संस्थान में प्रोफ़ेसर की नौकरी भी मिली लेकिन वे अठारह सौ बावन अर्थात अपनी मृत्यु तक इस लिपि के विकास में लगे रहे ৷ उनकी मृत्यु के पश्चात उनके द्वारा अविष्कृत इस लिपि पर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया किन्तु जब आगे चलकर विभिन्न शोध कार्य हुए तब यह पाया गया कि दृष्टिबाधित लोगों के लिए इससे बेहतर कोई लिपि नहीं है, तब इसे सबके लिए लागू किया गया और इसे ब्रेल लिपि नाम दिया गया ৷ तब से लेकर अब तक पूरे विश्व में यही लिपि अपनाई जा रही है ৷
अशोक के स्कूल में लुई ब्रेल की एक तस्वीर लगी थी ৷ मैं उस तस्वीर को देखकर अशोक को बताता कि लुइ ब्रेल कैसे दिखते हैं ৷ मैंने सबसे पहले अशोक के पास ही ब्रेल लिपि लिखने की पट्टी देखी थी ৷ यह लकड़ी की एक स्लेट नुमा पट्टी थी जिसमे छह छह के समूह में ढेर सारे छेद थे ৷ अशोक उस पर काग़ज़ रखता और उसे चिमटे या क्लिप से दबा देता फिर वह उस कागज़ के उपर एक प्लेट और रखता और उसे पलट देता ৷
फिर वह एक सुईनुमा टोचा लेकर उन छेदों में चलाना शुरू करता ৷ छेद से होते हुए टोचा दूसरी ओर लगे कागज़ में एक विशेष स्थान पर स्पर्श करता जिसका निशान उसकी निचली सतह पर उभर जाता ৷ इस तरह जब अनेक समूह बन जाते तब वह कागज़ उस प्लेट से बाहर निकाल लेता और उसे पलट कर उभरे हुए स्थानों को उंगली से स्पर्श कर पढ़ता जाता और पढ़कर सुनाता कि उसने क्या लिखा है ৷
शुरू में मुझे यह कठिन लगा था लेकिन फिर देखा कि यह बिलकुल सिंपल तरीका है ৷ आप भी किसी मोटे से कागज़ पर एक ओर से किसी नुकीली चीज़ से दबाव दीजिये, आप देखेंगे कि वह दूसरी ओर से उभर जाता है ৷ यह उभार ऐसा होता है जिसका स्पर्श आप ऑंखें बंद करके भी कर सकते हैं ৷
ब्रेल लिपि में ऐसे ही उभार से छह छह बिन्दुओं का एक सेट बनाया जाता है , फिर बिन्दुओं की कम अधिक संख्या और स्थान के आधार पर उन्हें एक क्रम दिया जाता है और इस तरह बने हर सेट को एक एक अक्षर व मात्रा का नाम दे दिया जाता है ৷
मुझे ब्रेल लिपि लिखने का यह तरीका इतना अच्छा लगा कि एक दिन मैंने भी देशकर सर से ब्रेल लिपि सीखने की इच्छा ज़ाहिर की । वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे उन्होंने ब्रेल लिखने की एक स्लेट और एक टोचा दिया । मैं एक कोचिंग क्लास स्टूडेंट की तरह रोज़ ही उनके घर चला जाता लगभग एक माह में उन्होंने मुझे ब्रेल लिपि का अक्षर ज्ञान करवा दिया । कुछ ही दिनों में मुझे ब्रेल लिखना और पढ़ना भी आ गया ।
लेकिन कहते हैं न कि बिना अभ्यास के विद्या नहीं आती बल्कि जो पास में होती है वह भी चली जाती है ৷ मैं ज़िंदगी के दूसरे कामों में लग गया और मैंने ब्रेल लिखने पढ़ने की प्रैक्टिस ही नहीं की । अब मुझे केवल ‘ढ’ अक्षर का स्मरण है इसलिए कि उसमे पूरे के पूरे छह बिन्दुओं का इस्तेमाल होता था ৷ बाकी सब कुछ तो मैं पूरी तरह भूल चुका हूँ ।
वैसे मराठी में ‘ ढ ‘ का अर्थ अनाड़ी होता है, अर्थात वह जिसे कुछ आता जाता न हो, जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर हो । ब्रेल लिपि के मामले में मैं भी ‘ ढ ’ ही रह गया ৷
अशोक पिल्लेवान से मेरी दोस्ती का सिलसिला कुछ समय तक चला ৷ उसकी पढाई पूरी हो गई और वह घर चला गया ৷ फिर उससे कभी मुलाक़ात नहीं हो पाई ৷ उसके जाने के बाद भी मैं कभी कभार अंध विद्यालय चला जाया करता था और उसे ढूँढने की कोशिश करता था ৷
कभी कभी मुझे लगता कि अगर मेरी आँखे न होतीं तो कम से मुझे यह आभास तो बना रहता कि वह यहीं कहीं है ৷ बड़े होने के बाद समझ आया कि ऐसा भी कभी होता है सब मन को समझाने की बातें है ৷ भौतिक उपस्थिति तो मनुष्य की तभी तक होती है जब तक इन्द्रियों से हम उसका अनुभव कर सकते हैं , उसके बाद तो वह केवल स्मृतियों में रहता है ৷
मुझे सिर्फ इतना पता है कि वह भंडारा ज़िले में कहीं था ৷ काश यह पोस्ट उस तक पहुँच जाए और मुझे उसका पता मिल जाए ৷ और न भी मिले तो क्या, दुनिया में अनेक लोग ऐसे भी होते हैं जिनका पता हमारे पास होता है, जिनसे मिलने की इच्छा भी बहुत होती है, लेकिन जीवन बीत जाता है और वे कभी नहीं मिलते ৷
फिलहाल आप लोग ब्रेल लिपि का यह चार्ट देखिये जो मैंने यहाँ दिया है ৷ देवनागरी में हिन्दी लिखने के लिए इसका छह बिन्दुओं वाला ‘भारती वर्ज़न’ ही चल रहा है, यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आठ बिन्दुओ वाला वर्शन आ गया है जिससे 264 शब्द बन सकते हैं ৷ यहाँ मैंने कुछ शब्द भी बनाये हैं ৷
आप भी कोशिश करके देखिये, ब्रेल लिपि में आपका नाम कैसा दिखाई देगा ৷ आपके पास तो सब कुछ है, आप सुन सकते हैं ,बोल सकते हैं और स्पर्श के अलावा आप देख भी सकते हैं ৷
सब कुछ है जब तक जीवन है ৷ निदा फ़ाज़ली साहब ने कहा भी है “ तुम्हारी आँखों की रौशनी तक है खेल सारा .. ये खेल होगा नहीं दोबारा ৷”
शरद कोकास