November 21, 2024

कहानी मनुष्य के सामाजिक विकास के प्रारंभिक दौर से ही प्रचलित रही है. सम्भवतः कहानी जीवन के यथार्थ घटनाओं को दूसरों को बताने के जिज्ञासा से ही शुरू हुई होगी.बाद में मनुष्य के मन की इच्छाएं और जिज्ञासाएं भी कहानी के रूप में व्यक्त होती रही.विज्ञान के विकास और आधुनिकीकरण से मनुष्य के जिज्ञासाओं का निराकरण हुआ इसलिए कहानी भी अब जीवन के वास्तविकता से अधिक जुड़ने लगी. हिंदी कहानी में इसे प्रेमचंद पूर्व की कहानी और प्रेमचंद के बाद के कहानी से समझा जा सकता है.प्रेमचंद हिंदी कहानी के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं जहाँ से यथार्थवादी कहानी की शुरुआत मानी जा सकती है.उनकी कुछ कहानियां विश्व के श्रेष्ठ कहानियों में गिनी भी जाती हैं.

‘नवनीत’ के इस कालजयी कहानी अंक में दस कहानी शामिल हैं. जिनमे प्रेमचंद की ‘बालक’, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ , यशपाल की दो कहानी ‘परदा’ और ‘फूलों का कुरता’ ,अज्ञेय की ‘ शरणार्थी’, मंनुभण्डारी की ‘स्त्री सुबोधनी’, उषा प्रियवंदा की ‘वापसी’ , प्रभुजोशी की ‘पितृऋण’, बाबूराव बागुले की ‘जब मैंने जाति चुराई’, शुभद्रा कुमारी चौहान की ‘ग्रामीणा’ शामिल हैं. इनमे से कुछ कहानियां तो हमेशा चर्चित रही हैं और पाठ्यक्रम में शामिल होती रही हैं, कुछ कहानी अपेक्षाकृत कम चर्चित हैं. यहां चयन अधिकृत रचनाकारों की पसंद के आधार पर किया गया है, हालांकि वे सब इस बात से सहमत हैं ऐसी कोई अंतिम सूची नहीं हो सकती, इसके समानांतर भी कई कहानियां हैं. यों ‘कालजयी’ की अवधारणा में भी सहमति-असहमति हो सकती है; फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिन्हें हम ‘कालजयी’ के विशेषण से उल्लेखित करते हैं, वे रचनाएं बहुपठित होती हैं और अपने देशकाल से बद्ध होते हुए भी बदलते परिप्रेक्ष्य और काल मे अपनी सार्थकता बनाए रखती हैं और एक बड़ा पाठक वर्ग उनसे संवेदनात्मक जुड़ाव महसूसते रहता है. कुल मिलाकर इसे दस अच्छी कहानियों का संकलन कह सकते हैं.

ये सभी कहानियां जीवन और समाज के अलग-अलग समस्याओं, विडम्बनाओं, सम्वेदनाओं को लेकर लिखी गयी हैं जिनसे हम सब का सामना होते रहता है.कुछ घटनाएं और समस्याएं सीधे हमारे जीवन मे भले न घटित हो मगर उनमें निहित संवेदना हमे भिगो देती है और हम कहानी के धरातल पर पहुंचकर उसे महसूसने लगते हैं, जैसे ‘उसने कहा था’ की प्रेम सम्वेदना, मानवता , कर्तव्यबोध, हम सब को प्रभावित करता है, चाहे कहानी के कथ्य के अनुरूप हमारे जीवन मे अवसर न भी आया हो. ऐसा अन्य कहानियों के लिए भी कही जा सकती है.

प्रेमचंद के ‘बालक’ में एक ऐसा व्यक्ति जो ऊपर से कठोर, धार्मिक शुचिता-अशुचिता को मनाने वाला लगता है मगर उसके अंदर भी ममत्व और प्रेम आकांक्षा रहती है. ‘ग्रामीणा’ में गांव की सहज लड़की जो शहरी जीवन के झूठी नैतिकता और पाखण्ड को स्वीकार नहीं कर पाती ,की निर्दोषिता हमे भावुक कर देती है.’स्त्री सुबोधनी’ में स्त्री के प्रति पुरुष के छद्म, भोगलिप्सा, जो सदाचार और नैतिकता के नक़ाब लगाए स्त्री के संवेदना और अंततः जीवन से खेलता है, का पर्दाफाश किया गया है.

‘पितृऋण’ में नगरीय जीवन के छद्म में खोती जा रही मानवीय संवेदना, जहां पिता तक के लिए प्रेम नहीं है,एक पिता जिसने पुत्र के लिए न जाने कितने कष्ट सहें, उसी पिता का पुत्र के लिए बोझ या असुविधा का कारण बनना विडम्बना नहीं तो और क्या है? ‘परदा’ खत्म होते सामंती जीवन और उसे स्वीकार न कर पाने का मार्मिक दस्तावेज है. बदलते समय के साथ आदमी अगर खुद को न बदले, केवल पुराने वैभव के भरम और अहम में जीता रहे , श्रम से नाता न जोड़े तो भरम का यह परदा एक दिन तार-तार हो ही जाता है.’फूलों का कुर्ता’ समाज के पाखण्ड को दिखाता है जहां नये मूल्यों का स्वीकार पुराने मूल्यों की शर्त पर करने की कोशिश होती है. नैतिकता के मापदंड समय और परिस्थिति सापेक्ष होतें हैं, कई बार हम प्रगतिशील विचारधारा को अपनाते हुए भी संस्कारगत मूल्यों को छोड़ नहीं पाते जिससे पाखण्ड पैदा होता है और हम ख़ुद हास्यास्पद हो जाते हैं. ‘शरणार्थी’ विभाजन की त्रासदी और उस समय की साम्प्रदायिक माहौल जो अच्छे खासे संबंधों को भी अविश्वास से ग्रसित कर रही थी को, व्यक्त कर रही है.यहां अविश्वास है लेकिन मानवीय मूल्य खत्म नही हों गए हैं.

‘वापसी’ में मध्यमवर्गीय सुविधाभोगी जीवन,जिसके पास उच्च वर्ग सी सुविधा नहीं है मगर उसकी आकांक्षा रखता है, और इस अधकचरे अनुकरण में अपना पारिवारिक जीवन और मानवीय ऊष्मा खो देता है, जहां बहन के लिए भाई, पत्नी के लिए पति, पुत्री के लिए पिता, बहु के लिए सास-ससुर, पुत्र के लिए माता-पिता केवल उपयोगिता के मापदंड के हिसाब से देखे जाते हैं. उनके व्यक्तिगत जीवन मे थोड़े से हस्तक्षेप से भी उनको असुविधा होने लगती है.ऐसे में गजाधर बाबू के लिए वापसी के सिवा कोई रास्ता बचता भी नहीं.’जब मैंने जाति चुराई’ समाज मे दलित वर्ग के साथ अस्पृश्यता के नाम पर किये जाने वाले भेदभाव और उससे उस वर्ग को कदम-कदम पर होने वाली पीड़ा और साथ ही उनमें अपने अधिकार के प्रति सजगता और इस अमानवीय व्यवस्था को नयी पीढ़ी द्वारा दी जाने वाली चुनौती का सार्थक चित्रण है.

इस प्रकार ये कहानियां अपने समय और समाज से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाती-झकझोरती, एक बेहतर समाज जहां सब अपने उपलब्धियों-खामियों के साथ रह सके, के लिए पाठकों को जागृत करती हैं.

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[2017]

नवनीत, जनवरी 2009 का अंक

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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा, छत्तीसगढ़
मो. 9893728320

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