कहीं गुम होते देशभक्ति गीत
हम जब साहित्य और स्वतंत्रता दिवस की बात करते हैं तब हमारे मन में अनायास ही देशभक्ति गीत कानों में गूंजने लगते हैं। बात वही है कि जो संस्कार बचपन से ही बच्चे ने देखे होते हैं उसके याददाश्त से वो कभी जाते ही नहीं। यदा-कदा ही सही वो दिखते ज़रूर हैं। नब्बे के आधे दशक तक स्कूल जाकर पीटी, प्रार्थना, योग सब कुछ ज़रूरी दिनचर्या हुआ करती थी। इसी तरह स्कूल में बच्चों के लिए गीतों की प्रतियोगिता आयोजित की जातीं जिसमें फ़िल्मी गीत निषेध रहते। यह जो निषेध था यही कारक था देशभक्ति गीतों को बच्चों से बड़ों तक पहुँचने का। किसी साहित्यकार की रचना को सुंदर धुन से सजाकर बच्चों को सिखाया जाता था। एक समृद्ध परंपरा थी जिसमें अतीत की यादों के साथ वर्तमान और भविष्य में देश के लिए कुछ कर दिखाने का जोश भी हुआ करता था। बच्चों को लगता था तब कि सैनिक बनना कितना महत्वपूर्ण काम है। सैनिक स्कूलों में एडमिशन हर बालक चाहता था। भले ही सब सैनिक न बनें लेकिन वहाँ के अनुशासन में पढ़ने के लिए बच्चे जूझते थे। समय के साथ उन्हें इसकी कीमत पहचानने से हम सब ने मिलकर ही दूर किया है। इतना दूर कि अब बच्चों में जूझनेकी क्षमता नहीं। उन्हें सब कुछ फौरी तौर पर चाहिए। ऐसे में साहित्य की स्थिति क्या होगी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है! साहित्य जो आम लोगों तक पहुँचे वही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। उसे पहुँचाने का माध्यम ही मिटा दिया जाए तो संभवना शून्य हो जाती हैं। जब हम साहित्य को बढ़ाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तब हमें ध्यान रखना होगा कि हम साहित्य के बीज के लिए क्या काम कर रहे हैं?फल वही मिलेगा जिसका बीज रोपा गया हो। हम सिनेमा को बीज समझेंगे तो उसमें से वो सब फल मिलेंगे जिसे आमतौर पर बच्चों को संस्कार के रूप में कोई नहीं देना चाहता। ऐसा नहीं कि फिल्मी गीत देशभक्ति गीत नहीं थे। बच्चों की ज़ुबान पर ये गीत हमेशा रहता था-
नन्हा मुन्ना रही हूँ, देश का सिपाही हूँ
बोलो मेरे संग जय हिन्द, जय हिन्द।
जब बच्चे इस गीत को गाते तो उनमें एक अलग आत्मविश्वास झलकता। सैनिक के भेस में वो तैयार होकर खुद को भी सैनिक ही समझने लगते। यहाँ जो ‘समझने’ वाला शब्द है यही आगे जाकर उनमें इस गीत के संस्कार निरूपित करता है।
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं।
इस गीत पर जाने कितने ही और कितने बच्चों ने स्कूल के नाम ट्रोफ़ी जीती होंगी। हिन्दी माध्यम के स्कूल हों या अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल, ये गीत सबको कंठस्थ रहता था। या फिर वो ओजस कविता हो-
उठो धरा के अमर सपूतों, पुनः नया निर्माण करो।
दोनों ही कविताएँ द्वारिका प्रसाद महेश्वरी जी की हैं। साहित्यकार जानते हैं कि ये किसकी कलम से निकली रचनाएँ हैं। मुट्ठीभर छात्र भी जानते होंगे। जो लेखक का नाम नहीं जानते थे वे भी कविता और उसके अर्थ को जरूर जानते थे। उसी जोश से उस गीत को तभी निभाया जा सकता है जब उसकी आत्मा तक पहुँचा जा सके। आसान नहीं था लेकिन असंभव भी नहीं था। शिक्षकों का काम था विद्यार्थियों तक उस रचना को पहुँचाना। वे उसमें सफल होते थे।
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन
हम तो रमते राम हमारा क्या घर क्या दर कैसा वेतन?
क्या बालकृष्ण शर्मा नवीन जी की यह रचना कोई भूल सकता है? उसे भूलने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि कंठस्थ किया हुआ जनमभर याद रहता है। कोशिश करने पर भी नहीं भूलता। हम नयी कविताओं तक नहीं पहुँच पाते लेकिन उस समय लिखी कविताएँ हमें आज भी उद्वेलित करती हैं। हम उसके भाव और भावार्थ को समझते हैं। ऐसे गीतों में उसकी धुनों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। धुन के साथ शब्द जल्दी याद होते हैं। मानव मस्तिष्क धुन को जल्दी ग्रहण करता है। इसलिए जब धुन अच्छी होती है तब शब्द उसी तरह से याद रहते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि इन गीतों को धुन देने वाले संगीतकारों का बहुत बड़ा योगदान है जिन्होंने साहित्य को घर-घर तक पहुँचाया।
वीरों का कैसा हो वसंत,
आ रही हिमालय से पुकार,
है उदधि गरजता बार बार,
प्राची पश्चिम तू नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत।
सुभद्रा कुमारी चौहान का यह गीत क्या कम प्रसिद्ध है? आज भी इसे गुनगुनाते वक्त हम सच में वीरों के वसंत के उस दृश्य में पहुँच जाते हैं। ऐसा नहीं कि आज की तरह कोई तुकबंदी हो! प्रभावशाली शब्दों का चयन किया गया है इस कविता में। इसके बावजूद इसका विस्मृत न होना, यही लेखक की जीत है। आपकी ही दूसरी कविता जो झाँसी कि रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी उतनी ही ओजपूर्ण है जितनी उस काल में होगी। पिछली पीढ़ी तक तो याद है लेकिन क्या वर्तमान पीढ़ी इन भोगे हुए सच को उतनी गहराई से जानती है? निश्चित ही नहीं जानती। उसमें दोष उनका नहीं है। शिक्षा प्रणाली का बहुत हद तक दोष है जिसमें देशभक्ति गीतों का अभाव है। आप एक सौंदर्य दर्शन कराती कविता बच्चों के सामने रखें और एक जोशपूर्ण देश के लिए समर्पित गीत, बच्चे दूसरे वाले की तरफ सबसे पहले आकर्षित होंगे। इसका कारण यह है कि बच्चों के पास सबसे अधिक ऊर्जा होती है और जिस भी काम में सबसे अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वही उन्हें प्रिय होता है। यही कारण है कि वे एक जगह ज़्यादा देर ठहर नहीं सकते। उनकी ऊर्जा को गतिमान रखने के लिए प्रयास वे स्वतः नहीं करेंगे। उनसे करवाने होंगे। इससे साहित्य का ह्रास भी नहीं होगा और ऊर्जा को एक सकारात्मक काम में लगा दिया जाएगा।
जयशंकर प्रसाद जी के गीत-
अरुण यह मधुमय देश हमारा,
यहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को,
मिलता एक सहारा।
या फिर
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती,
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो।
आज भी इन गीतों की धुनें बजने लगती हैं तो मुँह से अपने आप शब्द फूटने लगते हैं और शरीर उस धुन पर स्वयं ही थिरकने लगता है। इसके लिए किसी तरह का आग्रह हम अपने शरीर से भी नहीं करते। शब्द और धुन का मोह उसे अवेरने से रोकता है। क्या ज़रूरी है कि इन गीतों को सुनने-सुनाने के लिए स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस ही निश्चित हो? क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था की जाती कि मानव मस्तिष्क का विकास सकारात्मक ऊर्जा से हो? यही ऊर्जा उन्हें गलत करने से भी रोकती है।
केवल इतना ही नहीं तो अन्य भाषाओं से प्रारंभिक परिचय भी ये देशभक्ति गीत कराते हैं। हमारा देश जहां विविधताओं से भरा है, कोस-कोस पर पानी के बदलने के साथ ही वहाँ का रहन-सहन, भाषा, बोली, पहनावा, खान-पान सब कुछ बदलता है। ये कहा जा सकता है कि आजकल गूगल पर सब कुछ उपलब्ध है और वहाँ से सब देखा जा सकता है। बच्चे के भावों को जिस तरह केवल मां ही जानती है उसी तरह बच्चा भी माँ को उन्हीं भावों के साथ ग्रहण करता है। दूर रहकर वह वही भाव ग्रहण नहीं कर सकता। उसे मां का आँचल चाहिए और उसी छाया में वह अपना विकास कर सकता है। उसी तरह जब तक देशभक्ति का बीज उनमें नहीं रोपा जाता और साहित्य से बच्चों को नहीं मिलवाया जाता वे उसके प्रति संवेदनशील भी नहीं रहेंगे बल्कि उसका सम्मान भी नहीं कर सकेंगे।
सिंधी भाषा के इस गीत में उतनी ही मिठास है जितनी किसी दूसरी भाषा के गीत में है। बिना सिखाए दूसरी भाषा को अपनी जिव्हा के स्पर्श से वे दूसरी भाषा का माधुर्य का स्वाद ले सकते हैं।
ही मुहिंजो वतन, मुहिंजो वतन, मुहिंजो वतन!
मिसरीय खां मिठेरो माखीय खां मिठेरो,
कुरबान तंह वतन ताँ कर्यां पेहेंजो तन बदन।
कहा जाता है कि बिन खाए न कड़वे का स्वाद पता चलता है न मीठे का। फिर भाषा की मिठास बिना सुने, बिना देखे कैसे अनुभव की जा सकती है।
ऐसे ही वीर सावरकर जी का मराठी का यह तेजोमय गीत है-
जयोस्तुते, श्री महन्मंगले शिवास्पदे शुभदे,
स्वतंत्रते भगवती त्वा महम यशोयुतां वन्दे।
उर्दू का बेहद खूबसूरत गीत-
कहकशां ने साज़ छेड़ा गुनगुनाया आसमां,
अब न रोके से रुकेगा जिंदगी का कारवां।
इतने सुंदर भावपूर्ण शब्द हों तो वो किसी मूढमति को भी परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं। इसी के साथ मलयालम, तेलुगू, तमिल आदि-आदि भाषाओं में भी न जाने कितने ही गीत हैं जिसे बच्चे सीखकर गाते थे। आज की स्थिति को देखकर लगता है कि न जाने कितनी सदियों पहले की बात है। इन गीतों के सहारे ही बच्चों को साहित्य से जोड़ सकने में सक्षम थे जिसे अब लगभग पूरी तरह समाप्त कर दिया है। आजकल के बच्चे इन सब के बारे में जानते ही नहीं। ऐसा प्रयास भी नहीं किया जा रहा कि वे इन गीतों की वजह से साहित्य और देश से जुड़े रहें। कीमत चुकाने के बाद कीमत पता चली तो क्या पता चला? देशभक्ति चिल्लाने से नहीं आती। उनमें जगायी जाती है जिसके लिए किसी किसान जैसी ही मेहनत करनी पड़ती है तभी शानदार फसल लहलाती है। और वो गाती है-
ऐ मेरे वतन के लोगों,
ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो क़ुर्बानी।
क्या अब कोई ऐसा गीत दुबारा जन्म ले सकता है जिसे सुनकर हरेक की आँखों से पानी बहने लगा था। सब एकसाथ भावुक हुए थे। ये साहित्य को बचाने और रचने के लिए ‘स्व’ से ही पूछना पड़ेगा।
समीक्षा तैलंग
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