ठूंठ लहराया
उस अवस्था में मैं विकारों से भरा हुआ था। बिना विकार, कोई जीव होता है क्या? पत्थर में भी विकार होता है। हँसता है, रोता है। जब ताकतवर होता है हँसता है दुनिया को बेवकूफ मानकर। और, रोता है शिलाजीत बनकर। विकार ही किसी जीव को क्रियाशील रखता है। संघर्ष और प्रेम के लिए उकसाता है। बिना विकार सोना क्या ग्रहणीय होता है? ये नेत्र, आँख-कान, जीभ-दाँत, त्वचा जिसे ईश्वर ने शरीर में समाहित किया है सब तो विकार ही है। विकार ही पैदा करते हैं। विकारों में लिप्त रहकर विकार ग्रहण करते हैं, विकार देते हैं,। और उसी विकार के फलने-फूलने के लिए जीवन-भर आयोजन करता है।
मुझे स्मरण हो आया। मैं पन्द्रह साल पहले औरों की तरह बहुत सारे विकारों से युक्त था। एक दिन मैं बैठा-बैठा कृष्ण-वियोग में गोपियों का विलाप पढ़ रहा था। गोपियों के अन्दर का विकार पी रहा था। अचानक मेरे अन्दर का जिन (व्यक्ति) निकलकर सामने के सोफे पर बैठ गया। मैंने पुस्तक रख दी। वह अन्दर का जीव विकारों से भरा-पूरा था। उसका यौवन लहरा रहा था। बाल सफेद नहीं हुए थे। पर अनुभव बहुत था। अपने अनुभव से अपनी रचनाओं को संवारा था। अपनी रचनाओं को कालजयी बनाया था। उसमें प्रकट हुईं एक से एक नायिकाओं को सजाया-सँवारा था। नख-शिख वर्णन किया था। विविध कोणों से देखा-परखा और रंग भरा था। उसके त्याग-संघर्ष, प्रेम और घृणा को अभिव्यक्त किया था।
जिन सजीव नायिकाओं पर कलम चलायी थी वे अनुगृहित थीं। मेरी कलम पर समर्पित। आशीर्वाद लेने दौड़ी चली आती थीं। नहीं भी आतीं तो किसी से भेजवा देती थीं कि संशोधन कर दूँ। तब मोबाइल नहीं पत्रों का जमाना था। निकट भविष्य में जिनकी शादी होने वाली थी वैसी शिष्याएँ थीं, और मुहल्ले की मुन्नियाँ जो एक पन्ना लिखकर शरमाती हुई चली आती थीं। कविता के नाम पर अपने प्रेम-पत्रों का संशोधन करवाती थीं, ताकि पत्रों से उसे विदुषी होने का आभास मिले। कई तो अपने पति या प्रेमी के लिए ही पत्र लिखती थीं। बीच-बीच में शेरो-शायरी जोड़वाती थीं और दिल का सारा दर्द उडैल देती थीं। इतना दर्द कि प्रेमी से पहले संशोधक ही घायल हो जाते।
वैसे मैं भाषाविद् नहीं था। जनम भर नहीं रहा। बस आँखें शोख और नाक लंबी थी। सौंदर्य-बोध सूँधने की थोड़ी अक्ल थी। और धीरज पर्याप्त। सौंदर्य सुधर गया तो सब सुधर गया। सौंदर्य पर ही दुनिया दीवानी। चेहरा देखकर ही बाकी अवयवों की कल्पना साकार हो जाती।
देखते-देखते मोबाइल का जमाना आ गया। पत्र-लेखन कम हो गया। प्रेमपत्रों को कहानी के बीच घुसेड़ कर लिखा जाने लगा। अब मेरे पास प्रेम-पत्र की जगह कहानी ही पहुँचती थी कि जाँच कर दूँ। कहानी पसंद आयी तो अपनी पत्रिका में छाप दूँ। कुछ नहीं तो संशोधन ही कर दूँ। वास्तव में मेरा एक नियम था। रचना पढ़ने के पहले विधाता की रचना ही पढ़ता था। मतलब शिष्या का चेहरा। चेहरा यदि चाँद की बराबरी कर रहा हो, कमल-सा हँस रहा हो तथा मुँह से मोती झर रहे हों तो शत-प्रति-शत अंक के काबिल मानता और रचना में डूब जाता। उससे रचना में ही नहीं उसमें भी सुधार हो जाता। उसके सौंदर्य-शास्त्र के कुंद औजार चमक जाते। अपना निकष तैयार कर लेता। प्रायः संपादकों के साथ यही हादसा होता है।
एक दिन एक पाठिका सोलह पृष्ठीय कहानी लेकर आयी। उसकी कहानी रखकर उसे दो घंटे बैठाया और एक सप्ताह बाद बुलाया। वह आयी भी। तब तक उसे दो-तीन बार पढ़ चुका था।
‘‘देखो तुम्हारी कहानी, कहानी कम प्रेम-पत्रिका अधिक है–विकारों का पोथा। इसमें वर्णित प्रेम-प्रसंग को छाँटकर शेष को किसी पत्रिका में भेज दो।…भावी दूल्हे से फोन पर बात नहीं करती हो क्या?’’ मैंने पूछा।
‘‘मम्मी ने मना किया है। भावी दूल्हों से टन भर बात करने से दो बार शादी कट चुकी है। होनेवाली सास की सांस उखड़ चुकी है।’’
‘‘मिर्च ज्यादा खाती होगी। जीभ चंचल और चोंच ज्यादा खुलती होगी। फोन पर ज्यादा मत खुलो। राज खोलने का काम विवाह बाद करना। अलजेबरा के फार्मूले की तरह प्रेम-पत्र एक लाइन में लिखो। व्याख्या मत करो। लड़का समझदार होगा तो समझ जाएगा। बकलोल होगा तो किताब (पोथा) भी भेजोगी तो नहीं समझ पाएगा। इससे लड़के के जेनरल नॉलेज की चेकिंग भी हो जाएगी। वैसे यह बतौर कहानी अच्छी है। एक सप्ताह छोड़ दो। उस पर चिंतन-मनन आवश्यक है।’’
पाठिका खुश होकर चली गयी। वैसे वह जा नहीं रही थी। उसे किसी पत्रिका में छपवाने का आश्वासन देना पड़ा था। उसे पता था कि रंगीन मिजाज के ढीले संपादक लाइन तोड़कर अपनी पत्रिका में प्रतिष्ठापित कर देगा। रातो-रात कहानीकार बना देगा। वह भी तो एक विकार था।
वर्षों बाद मेरा जिन मेरे सामने की कुर्सी पर अकड़कर वैठा था।
‘‘कैसे हो?’’
‘‘कुछ खास नहीं। जैसे पहले था, वैसा आज हूँ।’’
‘‘विकार पूर्ववत् हैं या उम्र के साथ चले गए?’’
‘‘विकार क्या जाने के लिए आते हैं? पहले से और गाढ़े हो गए हैं। क्रियाशीलता भले