November 21, 2024

बिन ड्योढ़ी का घर : अस्मिता की तलाश और संघर्ष

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सामंती जीवन मूल्यों में स्त्री की स्थिति द्वितीयक रही है।वहाँ स्त्रियों के अस्तित्व को सहज नहीं लिया जाता रहा।ऐसा समाज उनकी दैहिकता और यौनिकता से अजीब तरह का भयाक्रांत रहता है,मानो यह कोई अलौकिक चीज हो!तमाम नैतिक मूल्य पितृसत्ता की ओर झुके उन्हें घर की चहारदीवारी तक सीमित रखने की ओर उन्मुख रहते हैं।सिद्धांततः वे ‘देवी’ रहीं लेकिन व्यवहार में नागरिक अधिकारों से भी उन्हें वंचित किया जाता रहा।

अवश्य इसका प्रभाव अभिजात वर्गों और उच्च कहे जाने वाले वर्णों में अधिक रहा,लेकिन श्रमिक और किसान वर्ग भी इन मूल्यों से अछूता नहीं रह सका।वहां भी ‘लोक मरजाद’ के मूल्य पितृसत्ता के पोषक ही रहे।

जनजातीय समाज अपेक्षाकृत अधिक समतावादी रहा है जहां स्त्री-पुरूष के बीच बराबरी का व्यवहार होता रहा है,मगर इधर उनमें भी ‘संस्कृतिकरण’ के द्वारा नगरीय ‘नैतिक मूल्यों’ को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

ये सामंती जीवन मूल्य देशकाल सापेक्ष भी रहे हैं।किसी क्षेत्र में इसका प्रभाव अधिक तो कहीं कम रहा है। इधर बीस-तीस वर्षों में शिक्षा के व्यापक प्रसार और स्त्री की अपनी जागरूकता से समतावादी लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास हुआ है,बावजूद इसके पितृसत्ता अभी पूरी तरह मिट नहीं गई है,उसका स्वरूप को महीन अवश्य हो गया है।

उर्मिला शुक्ल का उपन्यास ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ इसी तरह की सामंती सामाजिक व्यवस्था में पिसती स्त्री की छटपटाहट और उससे मुक्ति के संकल्प और संघर्ष की कथा है।यहाँ दो पीढ़ी की स्त्रियां हैं इसलिए चेतना के अंतर में समय का प्रभाव है।कहानी आजादी के कुछ पूर्व से लेकर वर्तमान परिदृश्य तक चली आयी है,इसलिए कात्यायनी और उसकी माँ रामदुलारी के जीवन मूल्य और चेतना में अंतर भी है।

यह जरूरी नहीं कि पिछली पीढ़ी के व्यक्ति नयी पीढ़ी से चेतना के स्तर पर हमेशा कमतर हो।यह व्यक्ति सापेक्ष भी होता है। इसलिए उपन्यास में पिछली पीढ़ी में भी ‘गंगा’ जैसी स्त्रियां हैं जो अपने हक की लड़ाई लड़ती हैं, वहीं रामदुलारी उपेक्षा को सहती जाती है।

उपन्यास में कथा का एक बड़ा हिस्सा अवध प्रान्त से है। कात्यायनी के माता-पिता वहीं के हैं।उपन्यास में वहां की संस्कृति, लोकाचार का अच्छा चित्रण है, मगर इन सब के बीच स्त्री की उपेक्षा और पीड़ा ही मुखर है।

ऐसा नहीं कि यहां द्वंद्व केवल पितृसत्ता का है।आमजन ग़रीबी का जीवन जी रहे हैं।उस पर ज़मीदारों-दबंगो का अत्याचार जो उनके बहु-बेटियों का कभी ‘प्रथा’ के नाम पर शोषण करते रहे हैं तो कभी जबरदस्ती।इस संकट के कारण बेटी हत्या और बाल विवाह जैसी कुप्रथा पनपती रही। बिडम्बना है कि इस अत्याचार से संघर्ष के बजाय समाज उससे बचने या ‘मजबूरी’ में स्वीकारने तक लंबे समय तक सीमित रहा।

पुरुष अभाव में पिस रहे हैं उस पर भी पितृसत्ता की झूठी मर्यादा से बंधे स्त्रियों पर अत्याचार कर रहे हैं। कात्यायनी के पिता के अंदर बेटी के प्रति प्रेम दबा हुआ है।मगर वह जिस समाज में है उसके मूल्य उससे बद्ध है,जिससे वह आगे बढ़ नहीं पाता।यह उसके चेतना की सीमा है। यह अमूमन सभी पुरुषों के साथ है।

स्त्रियां भी इन मूल्यों को आत्मसात की हुई हैं। इसलिए अधिकांश के लिए यह सहज है और इसे वे अपनी नियति मान चुकी हैं।कहीं थोड़ी जागरूकता भी है तो बस पराजय बोध और बेबसी।रामदुलारी का चरित्र इस संदर्भ में देखा जा सकता है,अवश्य आख़िर में उसमे बदलाव आता है । इन मूल्यों का सबसे विकृत रूप वहाँ हैं जहां एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के प्रति ईर्ष्यालु है और स्वयं स्त्री होकर बेटी के जन्म पर दूसरे का उपहास करती है। एक तरह से वे पितृसत्ता के केवल मोहरे रह जाती हैं।

कात्यायनी दूसरी पीढ़ी की स्त्री है।उसने माँ के प्रेम और बेबसी को देखा है।पिता का उसने उपेक्षा ही देखा है,खासकर माँ के प्रति। उनके अंदर का पिता सामाजिक मूल्यों के नीचे दब गया है। यह भार उसके ब्राम्हण पुरूष होने के कारण दोहरा हो गया है।पिता का कई जगह मानवीय व्यवहार उभरता है मगर अंततः वे ‘लोक मर्यादा’ की सीमा को लांघ नहीं पाते और बेटी पर हुए अत्याचार तक को स्वीकार नहीं पाते।

पिता के ट्रांसफर के कारण कात्यायनी का बचपन से किशोर तक का जीवन कई क्षेत्रों में गुजरा है।वह अवध प्रान्त के कठोर नैतिक बंधनो को समझती है तो उसे बस्तर और छत्तीसगढ़ के अपेक्षाकृत खुलेपन का अनुभव है।वह उम्र के बढ़ाव के साथ घर के दहलीज को पार करती जाती है।माता और खासकर पिता के आदेश अब उस पर कमज़ोर पड़ने लगते हैं। ऐसे में एक ही रास्ता है उसका विवाह!

विवाह अवध प्रान्त में ही होना था।उसकी असल त्रासदी यहीं से शुरू होती है। विवाह और जीवन के दमघोटू लोकाचार वह सह भी लेती है। मगर पति का पौरुष से अक्षमता उस पर भी क्रूरता से वह अत्यंत आहत होती है। जेठ जैसे पवित्र रिश्ते की बदनीयती और उस पर पति की कायरता से वह अपमानित होने लगती है। इसका दुखद परिणाम अंततः उसके साथ सामूहिक बालात्कार के रूप में होता है।

वह भागकर अंततः दण्डकारण्य के जलारी और भाऊ के यहां शरण पाती है, जहां कभी उसके माता-पिता रहे थे।जलारी आदिवासी महिला है और आदिवासी चरित्र के अनुरूप हिम्मती है।

दण्डकारण्य में कात्यायनी को इन नया जीवन मिलता है।अभी तक उसने मुख्यतः सामंती मूल्यों से जकड़े समाज देखा था मगर यहां स्थिति दूसरी है।यहाँ स्त्री एक हद तक साहसी,उन्मुक्त और अपना निर्णय स्वयं भी लेती है।

यहां जलारी और भाऊ के आश्रय के अलावा ‘मारी माँ’ जैसी स्त्री भी हैं जिसके सम्बल से वह बलात्कारियों के ख़िलाफ़ लड़कर उन्हें सजा दिलाती है बल्कि अपने पेट मे पल रहे बच्चे को जन्म देने का दृढ़ संकल्प भी करती हैं।मारी माँ के आश्रम में उसे पढ़ाने का काम भी मिलता है।

दण्डकारण्य में जहां जीवन की स्वतंत्रता है वहीं उसकी अपनी समस्याएं भी है। इधर पिछ्ले तीस-चालीस वर्षों में बाहरी हस्तक्षेप नकारात्मक रूप में भी बढ़ा है। वहां के अगाध खनिज संसाधनों और घने जंगलों का अंधाधुंध दोहन हुआ मगर इसका लाभ वहां के निवासियों को नहीं मिला।प्रशासकों और ठेकेदारों ने उनके श्रम का, उनके स्त्रियों का शोषण किया,उनके उपज का सही मूल्य नहीं दिया। इसका विरोध होना स्वाभाविक था। नक्सलवाद के उभार का एक कारण यह भी था।

शिवा नक्सलवादी संगठन से जुड़ा है।उसका परिवार भी शोषण का शिकार हुआ है,अपने लोगों पर अत्याचार उसने देखा है,इसलिए उसने यह राह चुनी है।कात्यायनी से वह प्रभावित होता है,कात्यायनी के मन मे भी उसके प्रति प्रेम पनपने लगता है।दोनो अक्सर मिलने लगते हैं और एक स्थिति ऐसी आती है कि मुहँ से केवल इज़हार बस बांकी रह जाता है।

ऐसा लगने लगता है कि अब कात्यायनी और शिवा एक नयी ज़िंदगी शुरू करेंगे तभी कहानी में नया मोड़ आता है। वह देखती है कि शिवा जब उसे कहता है “मैं भी आपके बच्चे को अपनाऊंगा। अपना नाम दूंगा उसे।” तो “उसकी ऑंखों में एक दम्भ उभर आया था और ये दंभ था एक असहाय औरत को स्वीकारने का दम्भ।दूसरे समाज के बच्चे को अपना नाम देने का दम्भ।”

ज़ाहिर है वह अब चेतना के जिस मंज़िल में थी वहां किसी के अहसान की ज़िंदगी नहीं स्वीकार सकती थी।उसे तो अहंकार रहित साथ की चाहत थी जहां बराबरी का भाव हो।

इसी समय प्रसव पीड़ा के बाद उसकी बेटी का जन्म होता है।उसका जन्म मानो एक नयी सुबह की शुरुआत होती है। अपनी अस्मिता के साथ जीने की। वह सोचती है अब मुझे और बेटी वन्या को किसी ड्योढ़ी की जरूरत नहीं। अब उसे बिना ड्योढ़ी का घर चाहिए।और यहीं उपन्यास विराम लेता है।

इस उपन्यास में स्त्री अस्मिता की तलाश है। स्त्री को घर की चहारदीवारी तक रखकर ‘ड्योढ़ी न लांघने’ की शिक्षा और व्यवस्था की जाती रही है।अब वह सचेत है,अपना जीवन स्वयं जीना चाहती है,इसलिए अब वह ड्योढ़ी का बंधन स्वीकार नहीं करती। इसका मतलब यह भी नहीं कि उसे प्रेम और साहचर्य की जरूरत नहीं।उसे वह चाहिए मगर निःशर्त,बराबरी का,न कोई छोटा न कोई बड़ा,अपनी अस्मिता के साथ। ज़ाहिर है यह कठिन सही असम्भव नहीं है।

उपन्यास में इस ‘मुख्य कथा’ के अलावा कई छोटी उपकथाएं हैं, जिसमे कहीं स्त्री की बेबसी है तो कहीं संघर्ष भी।अवध प्रान्त के सामाजिक ताने बाने के साथ बस्तर क्षेत्र और कुछ हद तक मैदानी छत्तीसगढ़ का भी चित्रण है।फिर भी हमारी समझ से अवध के चित्रण में प्रवाह अधिक है। छत्तीसगढ़-बस्तर क्षेत्र के चित्रण में खासकर भाषा में कहीं-कहीं असहजता का अनुभव होता है।

बहरहाल यह उपन्यास स्त्री अस्मिता की तलाश के संघर्ष को शिद्दत से महसूस कराता है,और इस तरह से वर्तमान पीढ़ी के स्त्री के सरोकार की दिशा को भी।

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कृति- बिना ड्योढ़ी का घर(उपन्यास)
रचनाकार- उर्मिला शुक्ल
प्रकाशक-अनुज्ञा बुक्स,दिल्ली
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●अजय चन्द्रवंशी,कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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