इक ग़ज़ल के आप सब की ख़िदमत में पेश करती हूं मुलाहिज़ा हो…..
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
जिस पर मेरा पूरा हक़ था मेरा अपना कोना था
ये मालूम नहीं था उसको भी यूं इक दिन खोना था
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चेहरे पे मुस्कान लिए हम जैसे तैसे लौट आए
सच तो ये है उससे मिलकर आज हमें बस रोना था
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छोटी सी तो ख़्वाहिश थी वो भी पूरी ना हो पाई
उलझन को सिरहाने रख उसके आग़ोश में सोना था
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कोई तो कर्ज़ तुम्हारा भी हम पर बाक़ी था शायद
इस दिल को बर्बाद तुम्हारे हाथों यूं ही होना था
//४//
छोटी सी इक चाहत थी,हमको यादों के धागे में
लम्हा लम्हा करके साथ गुज़ारा वक़्त पिरोना था
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बेमोल रहा वो सब कुछ जो,पास तुम्हारे था तब तक
अब खो बैठे हो तो कहते हो,जो खोया सोना था
//६//
मेरे ख़ुश रहने को लेकर लोग बहुत जो नाख़ुश थे
उनको तो मेरी राहों में दुख के कांटे बोना था
//७//
मनस्वी अपर्णा