November 21, 2024

मरुस्थल में हरियाली की लहर

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डाँ. बलदेव
समकालीन साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर प्रभात त्रिपाठी की सद्यः प्रकाशित कविता की किताब सड़क पर चुपचाप कवि के अंर्तजगत की यात्रा करने को आमंत्रित सी करती है , उसके सम्मोहन के गिरफ्त में इंकार जैसी बात हो ही नहीं सकती । इस नील विलय के नीचे महकते अन्धेरे में कहीं रुकने की इच्छा नहीं होती …… चरवैति चरवैति की अनुगूंज सर्वत्र सुनाई देती है । कवि की निजता यहाँ पूरे परिदृश्य के साथ अनावृत है हॉलाकि यही बात उसके बर्हिजगत के रिश्तों के बारे में नहीं कही जा सकती । सड़क पर चुपचाप किताब पूरी एक कविता है , लेकिन तड़ककर बिखरे हुए शीशे का हरेक टुकड़ा जैसे बिम्ब को ग्रहण करने में सक्षम होता है करीब करीब वही हाल इन कविताओं का है । यहाँ कवि की चुप्पी खामोशी गहन वेदना और उनसे लड़ते रहने के लिए लगातार लिखने को हथियार बनाने का साहस , देखा जा सकता है ।

कवि का द्विपद सड़क पर चुपचाप चल रहा है लेकिन उसका अर्न्तमन चुप नहीं है । वहाँ हलचल है , चूल्हे की नन्हीं सी लपट की जो तारों की चमक में तब्दील हो गयी है , नन्हीं लहर की तरह कोई आवाज है , जो सुबह की प्रार्थना से कम नहीं , आवाज जो सम्पूर्ण चेहरे को रचने में कामयाब है । आसमान के अजनबी विस्तार को समोखे जल की नन्हीं सी बूंद है , जो किताब के जर्जर पन्नों के बीच दबे पुरातन पुष्प की अभिलषित उड़ान है । नन्हीं सी लहर नन्हीं सी बूंद नन्हीं सी नर्म रोशनी की लकीर के प्रति व्यक्त की गयी कृतज्ञता कविता नहीं बल्कि गले तक पाप में डूबी इस समूची तवारीख़ के बीच अकेली प्रार्थना है , सुबह की ईश्वर की । सड़क हो या आंगन वारिश में हंसता है अकेला फूल उसकी पंखुरियों में झिलमिल एक नन्हीं सी बूंद में इतिहास घुलता है और नन्हीं सी बूंद मटमैले पनाले सा बहने लगता है चुपचाप , सड़क पर चलते अग्निपुरुष के हृदय में सहयात्री के मन – प्राणों में उस एकान्त में झरने या मरने के वक्त घर की कामना ऐन वक्त निराकार निर्गुण सगुण साकार हुआ हरसिंगार खिलने लगता है , यही बहती है केलो छु छुव्वल खेल में बच्चों के साथ इस रोशनी के खेल में छोटी सी डोंगी होगी , सूर्य को अंजलि देता कोई पुरातन पुरुष होगा… और इस महकते अंधेरे में समूचा दृश्य उजागर हो जाता है :-

वहाँ वह/ नहाने को उतरी नदी में
बढ़ा जल अचानक / हुई जमके वारिश
वो महुए के नीचे / रहा देखता / रातभर उसकी
लीला
— —- —-

उतान सोई औरत / सहज भाव से सौंप रही थी
अपनी देह का अकृत सौंदर्य

अब वहाँ अदृश्य पत्थरों की बारिश है । भीगते बारिश में वृक्ष गाता है / रात की तस्वीर सीने में छिपाकर कोई रोता है चुप्पी………..आँखे है छलछल ………. यही है वो चुपचाप रोने की जगह । कवि है तब्दील कभी ठूंठ में कभी रेत के एक कण में अदृश्य आवाज के बिस्तर पर लेटे ठूंठ की आँखों से निकलकर अधरात को आकाश में बगुला एकाकी उड़ रहा है , रेत के कण में तब्दील दीवार पर स्थिर पुरुष देखता है, एक नदी थी , जो बह रही थी , एक मकान है जो खड़ा है थिर / रूप बदलकर देखती है रेत…… . धूप जाड़े की , कभी बौछार बारिश की नदी में बहता हुआ कोई पुरातन पुरुष देख रहा है देहलता का अपार्थिव पुष्प , गंधाकुल करता हुआ। देख रहा है चोट लगे बच्चे को माँ के लम्बे काले बालों में सिर छुपाकर रोता हुआ……. शायद यह टुकुन है ; देख रहा है नन्हीं बच्ची को एक पेड़ एक तोते के साथ नंगी नहाती हुई यह शायद अक्षय की नन्हीं सी गुड़िया है । पुरातन पुरुष की आँखों में नींद कहाँ , उसकी आत्मस्वीकृति है:-

मुझ बेसहारे को उसने सीने से लगा लिया
और कनपटियों को सहलाती – सी चूमती हुई
बोली
किस्सा होता कहाँ है रज्जे। वह तो गढ़ना पड़ता है

मौत को इस पुरातन पुरुष ने एकदम करीब से लम्बे समय तक देखा है , बकौल अशोक कुमार झा “जग से ओझल ” मृत्यु से लम्बे साक्षात्कार का एक दस्तावेजी काव्य है, उसी का विस्तार है यह । उसकी आवाज उसकी परछाई आज भी उसका पीछा कर रही है –

हैरत की दुनियाँ के भीतर/ कोई स्वर
महकते अंधेरे से उभरा / किसी वृक्ष का रूप धरकर
तो वह भी रूका / रोशनी से अलग हो
झुका , झुकती शाखों के नीचे /झरे पीले पत्तों के
ऊपर पड़े पांव उसके

यह करुण इतिहास है उसके जाने का । जैसा जीवन कठिन और रहस्यपूर्ण है , मरना भी उतना ही कठिन है :-
लम्बी यातना भरी दुपहर देह के भीतर
चिपचिपाती रात और ज्वरग्रस्त सुबह का शब्द
लिख रहे हैं उसके जाने की कथा

कवि का जो घर है था, घर की कामना थी , वह इस देश या दुनिया से बहुत दूर हो गयी है , तब भी उसे सहना है धीरे धीरे जीना है सहानुभूतियों के सहारे ऐसी गहन वेदना का कालकूट पीने वाला कवि ऊपर से सामाजिक जीवन में एकदम शान्त है लेकिन उसके भीतर इतना उत्पात है कि एक भी क्षण वह इतिहास से मुक्त नहीं हो पाता- धीरे धीरे वह आस्तिकों की दुनियाँ में चला जाता है, स्मृतियों की लहरों में तैरते ‘कपड़े ‘ के ये बिम्ब एकदम साकार हो उठते है – कोसे का कुरता , कत्थई पेंट , गुलाबी चोली और सुनहरी साड़ी ये घर है हमारे रहने के और समूचा हराभरा परिवार दृश्य में आ जाता है…… देही नित्यमबध्योऽयं देहे सर्वस्व भारत ……भारतीय वाङ्गमय का यह अस्तित्ववादी चिन्तन है , जो शेष जगत को जीवन के प्रति दुनिया के प्रति आश्वस्त करता है कि तमस से निकलो आगे उजला पथ है टीस , टेसू और फागुन के रंग में चिथड़े पैंट , कमीज की उधड़ती तुरपई के बाद भी मनुष्य की धरती में पुनः पुनः आने की इच्छा , हमारी कोई अकस्मात सोच नहीं बल्कि हजारों साल का भागवतीय अनुभव है ।

सावधानी और सतर्कता के साथ/बढ़ाओगे हाथ
अंधेरे की कामना पर / दस्तक देने सा / धीमी
आवाज में/ बुलाओगे उसे / गाओगे / आखिरी बार
मां के गर्भ से / समा जाने से पहले / गाओगे वही
गीत / निःशब्द निस्वन / मरण तुम मम श्याम समान

गीता के इस महामंत्र में कवि की अकथ कथा , अकथ वेदना निर्वेद हो सार्वजनिन हो जाती है फिर न कोई द्विपद पुरातन पुरुष रह जाता और न कोई सहयात्री, दोनों यहाँ एकाकार हो जाते है । यह प्रभात का नैश – अन्धकार से उबरना है , सोचता हूँ अगर उसके पास महकता हुआ अन्धेरा और गहन अर्थ बोधक भाषा न होती, वह क्या करता आत्महत्या न करता तो विक्षिप्त जरूर हो जाता । कविता यही तो करती है , बारिश में मिट्टी को कटने से रोकती है , अगर यह न करती तो लाखों की बारिश में धरती कब से धुल चुकी होती , प्रभात ने जाने अनजाने अपने कड़वे सच को आशीषों जैसा मंगलकारी बना दिया है महाकाव्य के धड़कते जिगर की उसने रचना कर डाली है :-

काले आकाश को/ एक घर दो
ताकि वह वहाँ से निकले/और भीगे इस बारिश में
हमारी तरह
बसाए अपना घर/ क्षितिज को चूमकर
लहलहाकर हरियाली में समा जाए
मिट जाए उसकी ऊंचाई का भरम / वह हमारी तरह
पार्थिव हो जाए / और बसाए अपना घर / इस
पृथ्वी पर

प्रभात की दुनिया में विरह – वेदना , अकेलापन चुप्पी , भय , विस्मय , मृत्यु , रात , अंधेरा , दर्द औरत उसका अकूत सौंदर्य ,उसका स्तन और जंगल ही नहीं है उसके अन्तर्जगत के बाहर भी एक लोकतांत्रिक दुनिया है उसमें गैस त्रासदी से उपजी पीड़ा और व्यंग्य है , साम्प्रदायिकता के ‘ जिन्न ‘ को बांधने की तमन्ना है ; राजनीतिक घृणित साजिशों को उधेड़ने का माद्दा है । यहां लोग एक शब्द के गलत प्रयोग को ही इंगित कर गृह युद्ध कराने की ताकत रखते है जैसे:-

उस वक्त एक आदमी दीवाल के किनारे / पेशाब
कर रहा था/ यह पेशाब करने का समय नहीं है/
सरकार ने कहा /दूरदर्शन ने भूल सुधार के लिए/
इलेक्ट्रानिक हरुफो में लिखा/ समय को जगह
पढ़े / और आपस में खूब लड़ें

यहाँ मुख्यमंत्री के भाषण के विरुद्ध ईंट से ईंट बजा देने वाली सेवकराम की हंसी है , स्वस्थ प्रसन्न चित्त , रेत ढोता गाड़ीवान है , उसके इतिहास लेखन की चिन्ता में उद्विग्न नपुंसक बुद्धिजीवी है जिसे अपनी आग , ठंड नींद और सिर्फ अपने घर की चिंता है:-

ओझल आत्मा के खंडहर में /ईश्वर मरता है
लाश की शिनाख्त को / आता है दरोगा , आता है
डॉक्टर/ आते हे न्यायाधीश / आते है नेता और
अभिनेता /उसी सड़क से / बिलकुल बेदाग निर्मल
निर्विकार /लोटते हैं उसी रस्ते / लाश को भूलकर/
हे ईश्वर / ये तेरे भक्त / यह तेरा रक्त / यह तेरा वक्त
तुझी को मुबारक हो / मैं तो चला अपने घर /क्या
पता इस बीच / वह भी हो न गया हो खंडहर

यहां एक और व्यक्ति की तकलीफों से असपृक्त राजधानी है तो दूसरी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज की नहीं व्यक्ति को केवल अपनी ही चिंता है । औरत और उसकी देह – लीला से आसक्त प्रभात में केवल उतना ही नहीं बल्कि ‘ बाजार ‘ और यौनाचार के विरुद्ध कातर करुणा और उग्र आक्रोश है , अमानवीय शोषण के खिलाफ उसकी यह रचना तो जन – गीता ही है:-

माँ के पीछे पीछे चलती बच्ची
छोटी गठरी सिर पर लादे
छोटे छोटे स्वच्छ इरादे
अभी सड़क पर आ जायेंगे / माँ और बेटी दोनों
बड़ी सड़क पर कारे होंगी/और तेज रफ्तार
भारी भरकम जेबे होंगी / और बड़ा बाजार
+ + +
बच्ची की गठरी के सपने / जिंस बन गए
जिंस बन गया / उसकी मां का दर्द

इसके बाद भी हालात यूं है :-

मां और बेटी दोनों / देख रहे हैं
बड़ी सड़क के एक किनारे / चूल्हे जलते हैं
भात डबकता है
देख रहे हैं दोनों / खड़ी सड़क के एक किनारे
खड़े खड़े चुपचाप

ऐसी गहन करुणा , आक्रामक गुस्सा और नुकीली व्यंग्य को पढ़ते मुझे नागार्जुन यहाँ बेहद याद आते हैं / कटते हुए जंगल में खून से रंगे हाथों के विरुद्ध भी कवि का यही आक्रोश है- जहाँ हम देव सृष्टि से सहसा ही बर्बरता के इलाके में पहुंच जाते हैं –

उसके मदान्ध विस्मरण में / हम अपमानित करते हैं
स्त्री के सौंदर्य को उसके स्तनों को / उसके हृदय को
हमारे हृदय में घिरती है / एक गहराती काली रात
और उस अंधेरे में हम देखते हैं / हमारे हाथ खून से
रंगे है

उजाड़ होती धरती की अस्मिता के लिए ऐसा ही हस्तक्षेप आज की कविता की बुनियादी जरूरत है ।

उम्र की ढलान पर , तकलीफों के दिनो , अकेलेपन से बचने के लिए प्रभात का अपने घर , बचपन , शहर , राजमहल , नदी में छुन्नी छूते बच्चे जंगल से केवड़ाबाड़ी तक आने वाले भालू मंदिर , और चिड़ियों में लौटना और वह भी छत्तीसगढ़ी के धड़कते शब्दों को शुमार करते लौटना इस बात का द्योतक है कि वह जन में शामिल होना चाहता है लेकिन इस संकलन की कुछ बेहद पेचदीगियों से युक्त कविताएं इस बात का द्योतक है कि उसके अवचेतन में व्याप्त अभिजात्य वर्गीय शब्द संस्कार उसे अति विशिष्ट ही बनाए रखना चाहते है , इसलिए ये कविताएं सामान्य पाठक के गले नहीं उतरती में कविता के सरलीकरण के पक्ष में कतई नही हूँ लेकिन चाहता हूँ वह इतना दुर्बोध भी न हो कि कुछ भी आकार ग्रहण करने में मन विमुख हो जाय या मस्तिष्क असक्य हो जाय । अश्वारोही , केवल शक्ति ये दो कविताएं कुछ क्लिष्ट होती हुई भी राजनायिक बर्बरता को व्यक्त करती हैं , लेकिन दिमाग या देश को दूकान की तरह , तो बकवास ही हैं देखिए कुछ पंक्तियाँ:-

पैरों के नीचे की जमीन/ खिसकी नहीं / मुहावरा
जरूर याद आया/ एक किताब में , अन्यभाषा में
छपे अक्षरों ने दिखाया
उसका अभी का समय / जब कि डगमगाते पैरों को
सम्हालने सम्हालने /की कोशिश में / वह लगभग
घूरे जा रहा था पेड़ की तरफ

यह तो विनोद कुमार शुक्ल जैसा ही विशेषीकृत हुआ ‘वह आदमी चला गया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह , मैंने इस कविता को समझने के लिए , इसकी चीर फाड़ करने की कोशिश की है :-

छपे अक्षरों ने दिखाया- उसका अभी का समय
वह लगभग घूरे ही जा रहा था- पेड़ की तरफ
पेड़ खड़ा था मन मारे- ताकते आसमान को
मैंने जब स्कूटर स्टार्ट किया
पेड़ ने एक गाली निकाली भद्दी – स्कूटर को
नेता ने उसी पल फूल बरसाए- वानर -ईश्वर की
प्रतिमा पर

कुल मिलाकर अक्षर , वह , पेड़ , मैने कर्ता हुए,और उनके सामने विधान वाक्य है ? यहां दूकान और देश या देश और दूकान के बीच कौन सी सम्बध्दता है ? प्रभात संगीत की नगरी रायगढ़ में पैदा हुआ है बाजार कहे जाने वाले हिस्से को नजर अन्दाज कर दें तो यहाँ आज भी ठेठ देहात और उसका छरहरापन दिखाई देगा …… प्रभात की सांस सांस में सिंफनी है , उसके पास अद्भुत लय है , गूढ़ रहस्यों बर्जनाओं शिथिलांगों , यौनाचारों को छांदने की उसमें शक्ति है । ताजे टटके बिम्बों का तो वह बादशाह ही है इतना समृद्ध होते भी वह या वह जैसों के गिरोह ने फैशन – परस्ती के चलते कविता का ऐसे अवसरो में ज्यादातर सत्यानाश ही किया है । उसकी जमीन से काटकर उसे मरुस्थल या अफ्रीका की जिस्मानी दलदल में ले जाने की कोशिश ही की है , अलबत्ता इस गिरोह को मरुस्थल में लहराता समन्दर और दलदली में नन्दन कानन दिखाई देता है , इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ , न प्रसाद- निराला के युग में और न ही अज्ञेय मुक्तिबोध के ज़माने में वास्तव को हवा में उछालकर जो गायब करने का प्रभात में जादू है , उससे चमत्कृत तो हुआ जा सकता है लेकिन उससे भूख- प्यास नही मिटती…. कविता को इतना शीतल और निटरंग होना चाहिए कि समूचा गिलास एक ही सांस में गटक लें या फिर काफी या फिर सूप या फिर एक छोटा सा पैग ……. देर तक घूंट – घूंट हलक में उतारते रहें , महसूसते रहें और उसके सम्वाद को जारी रखें । यह सब प्रभात के पास संभव है , गर वह भटके नहीं , असम्बध्दताओं के बीच क्रान्ट्रास्ट क्यों पैदा नहीं किया जा सकता , फिर देखिए कविता की ताकत ! ए नई कि बीजू पटनायक ने हनुमान की प्रस्तर प्रतिमा पर विमान से फूल बरसाये , और शउर में न रहते हुए भी आपने एक बढ़िया से कागज को खराब कर दिया …. यदि आप में सोशल कन्सर्न है तो उस बात को उसी बेवाकपन में कहिए…. पांखड़ को शब्दों की दुनियाँ में पूरी ताकत से बेनकाब कीजिए , ए नई की उसे बुर्का पहनाकर छोड़ दिया सड़क पर चुपचाप पनाला बनने के लिए ………..

प्रस्तुति:-बसन्त राघव
पंचवटी नगर,मकान नं. 30
कृषि फार्म रोड,बोईरदादर, रायगढ़,
छत्तीसगढ़,basantsao52@gmail.com मो.नं.8319939396
( प्रख्यात कवि, आलोचक डाँ. प्रभात त्रिपाठी जी 11 जून 2016 सुबह 5.30 बजे केलो नदी के किनारे स्थित पार्क में दर्शन लाभ उठाते हुए हमने अपनी मोबाईल से उनकी तस्वीर खींची थी।)

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