November 21, 2024

फ़िल्म काबुलीवाला : बिमल राय, हेमेन गुप्ता(1961)

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प्रेम और सम्वेदना मनुष्य की सहजवृत्ति हैं। हमारा संवेदनात्मक लगाव केवल ‘अपनों’ से नहीं अपितु ‘दूसरों’ से भी हो सकता है। या यों कहें कि जिनसे हमारा लगाव हो जाता है उसे हम अपना समझने लगते हैं।इस लगाव के कई रूप और नाम हैं। स्त्री पुरुष का प्रेमाकर्षण है, मित्रता है, बड़ों के प्रति सम्मान छोटो के प्रति स्नेह है तो दीन-दुखियों के प्रति करुणा भी है।इन विविध रूपों में एक रूप सन्तान के प्रति प्रेम है। मनुष्य का अपने सन्तान से अत्यधिक लगाव होता है; वह उसकी सलामती और सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। अपनी संतान से तो सब प्रेम करते हैं मगर इसका उदात्त रूप वहां दिखाई देता है जब व्यक्ति ‘दूसरे’ की संतान को अपनी संतान की तरह प्रेम करने लगता है।

प्रेम और करुणा जाति-धर्म-भाषा-मुल्क के सीमाओं से परे होते हैं मगर विडम्बना है कि नफ़रत के लिए उपर्युक्त आधार आज बेहद प्रचलित हो चले हैं। आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को बिना उसे जाने केवल उसके धर्म या मुल्क के आधार पर उससे नफ़रत कर सकता है, करता है।सामाजिक समरसता आज इस कदर विखण्डित हो रहा है कि लोगों की अपने से भिन्न सांस्कृतिक पहचान समूह से एक अघोषित दूरी बनती जा रही है। ऐसे में ‘काबुलीवाला’ जैसे कहानी और फ़िल्म में चित्रित प्रेम और सम्वेदना किसी और ‘दुनिया’ की बात लग सकती है। मगर मनुष्यता ऐसे संकटों से कई बार गुजरती रही है। उम्मीद की जानी चाहिए वह सुबह फिर से आएगी।

फ़िल्म में काबुल का एक पठान(खान) [बलराज साहनी] आर्थिक समस्या के समाधान के लिए पलायन कर हिन्दोस्तान के कलकत्ता शहर आता है। इस ‘आने’ को अप्रत्याशित नहीं कह सकते क्योंकि प्राचीन काल से विभिन्न देशों में व्यापार आदि कारणों से भिन्न देश के लोग आते-जाते रहे हैं। आवागमन के यांत्रिक साधनों ने इसमे अवश्य अप्रत्याशित तेजी ला दी है। जाहिर है काबुल(अफ़गानिस्तान) से भी लोग अपने भौगोलिक परिवेश के उपज काजू,पिस्ता, बादाम, सूखा मेवा, तथा कारीगरी के सामान जैसे साल आदि को बेचने भारत आते रहे हैं। फ़िल्म का ‘काबुलीवाला’ भी बचपन से अपने परिवेश में यह देखता रहा होगा; इसलिए भारत आने का विचार उसके मन में आया होगा। अवश्य वह कुछ लोगों के साथ समूह में आया होगा। शहर में ये एक साथ एक जगह रहते भी दिखाए गए हैं।

काबुलीवाला काबुल में अपनी चार-पाँच साल की नन्ही बेटी को अपनी माँ के सहारे छोड़कर आया है।पत्नी नहीं है। बेटी की याद संजोकर रखने के लिए उसकी हथेलियों की छाप कागज पर ले आया है। जब बेटी की याद आती है तो उसे देख लेता है। वह फेरीवाला है। फेरी लगाकर शहर में अपना सामान बेचता है। इसी दौरान एक दिन उसकी ‘मिनी’ से पहचान होती है। मिनी उसकी बेटी की हमउम्र है। उसे उसमे अपनी बेटी की छवि दिखाई देती है। मिनी एक चंचल बातूनी लड़की है। उसके पिता लेखक हैं। माँ गृहणी है। मिली काबुलीवाले से हिल-मिल जाती है। अपनी स्वाभाविक चपलता में उससे बतियाती है। काबुलीवाला का पितृत्व भी उससे प्रेम करने लगता है। काबुलीवाला अपना कुछ सामान सहजता से उसे देने लगता है, मगर मिनी के पिता अक्सर पैसे दे देते हैं।

मिनी की माँ एक अजनबी परदेशी से उसके घुलने-मिलने को सहज नहीं ले पाती। उसका मन आशंकित रहता है। अक्सर फेरीवालों के प्रति समाज मे एक कल्पित भय अथवा अफ़वाह रहता है कि वे बच्चे चुरा लेते हैं। ऐसा भी नहीं की कभी बच्चा चोरी की घटना हुई ही न हो, मगर अधिकांशतः इसमे अफ़वाह ही रहता है।मगर मिनी के पिता काबुलीवाले के सह्रदयता को देखकर उसके प्रति कभी आशंकित नहीं रहें। पत्नी के कई बार मना करने पर वह द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं, मगर दोनो के एक दूसरे के प्रति लगाव को देखकर कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं।

टैगोर जी की कहानी छोटी है; इसलिए फ़िल्म को अपेक्षित लंबाई देने के लिए छोटे-छोटे पूरक प्रसंग जोड़े गए हैं, जो सहज बन पड़े हैं।ये कहानी के प्रवृत्ति के अनुरूप हैं। मसलन एक बार मिनी बीमार होती है, और ठीक नहीं हो रही होती है तो माता-पिता के साथ काबुलीवाला भी दुखी रहता है। जब माता-पिता दवा कराते रहते हैं तो वह दुआ करते रहता है। एक दिन तो वह रात-भर मिनी के घर के बाहर बैठकर दुआ मांगता रहता है।

इसी तरह एक दूसरी घटना में जब मिनी की माँ आशंकाग्रस्त होकर उसे रोज़ घर न आने के लिए पति से कहलवाती है तब मिनी उसका रोज़ राह देखा करती है और एक दिन उसे ढूँढने गली में निकल जाती है और भटक जाती है। इधर मॉं-बाप परेशान उधर काबुलीवाला भी परेशान होकर ढूंढता है। अफ़वाह फैल जाती है कि काबुलीवाले ने बच्ची चुरा लिया है। संयोग से मिनी काबुलीवाले को ही मिलती है।मगर उसी समय भीड़ आ जाती है काबुलीवाले को पीटने लगती है। मिनी रोने लगती है। संयोग से मिनी के पिता वहां आकर स्थिति सम्हालते हैं और वास्तविकता का पता चलता है।

इसके बाद कहानी में नाटकीय मोड़ आता है। इन घटनाओं से काबुलीवाले के मन मे अपने देश लौटने की इच्छा प्रबल हो जाती है। वह अपना काम समेटने लगता है। मगर उधार में दिए सामान के पैसे वसूलने के दौरान एक ग्राहक के साफ मुकर जाने और गाली-गलौच करने से हुए झड़प में वह उसे चाकू मार देता है।पुलिस जब उसे कैद कर ले जाते रहती है तब मिनी के घर के पास से गुजरती है। मिनी उसे पूछती है आप कहाँ जा रहे हो तब वह कहता है “अपने ससुर के घर”। दरअसल वह मिनी से इसी तरह का मज़ाक किया करता था।

उसे दस साल की सजा हो जाती है।जेल में दिन गुजरने लगता है। समय का चक्र चलते रहता है। आख़िर वह दिन भी आता है जब वह रिहा होता है। वह सबसे पहले मिनी को देखने उसके घर आता है। इधर छोटी मिनी किशोर वय की हो चुकी रहती है। उस समय उसके घर मे शहनाई बज रही होती है। दरअलस उसकी शादी हो रही थी। काबुलीवाला जब वहां आता है तो मिनी के पिता को सुखद आश्चर्य होता है। काबुलीवाला मिनी को देखना चाहता है। उसके पिता पहले तो शादी के कारण बेमन से मना करते हैं मगर जब काबुलीवाला लौटने लगता है तो ख़ुद को रोक नहीं पाते और मिनी को बुलाते हैं। काबुलीवाला जब मिनी को देखता है तो पहले तो समझ नहीं पाता, उसके मन में नन्ही मिनी बसी थी।उसके लिए समय जैसे दस वर्ष से ठहरा हुआ था, जैसे वह स्वप्न में था।मिनी बचपन की बातें लगभग भूल चुकी थी, वह उसे पहचान नहीं पाती।उसके पिता उसे याद दिलाते हैं। काबुलीवाला अचानक जैसे चेतना में लौटता है और उसे ध्यान आता है कि उसकी बेटी भी बड़ी हो गई होगी। वह भाव विभोर होकर रोने लगता है।

मिनी के पिता सह्रदय व्यक्ति रहते हैं।वे मिनी के बचपन में पत्नी के विरोध के बावजूद उसे काबुलीवाले से मिलने देते थे।इस समय भी वह काबुलीवाले की भावना देखकर उसके वतन वापसी के लिए चिंतित हो उठते हैं। कोई उपाय न देखकर मिनी के विवाह खर्च जैसे बाजा, रौशनी मे कटौती कर कुछ रुपयें उसे देते हैं ताकि वह अपने देश लौट सके। मिनी भी अपना एक कंगन उसकी बेटी के लिए उसे देती है। और इस तरह फ़िल्म समाप्त हो जाती है। अवश्य दर्शक के मन यह बात गूंजते रहती है कि इस दौरान इसकी बेटी का क्या हुआ होगा!

इस तरह यह फ़िल्म मानवीय प्रेम और करुणा की अमरता का संदेश भी देती है।हालात कितने भी ख़राब हो जाएं, ये बचे रहते हैं, बचे रहेंगे। फ़िल्म का मन्ना डे के स्वर में गाया गीत “ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन” काफ़ी लोकप्रिय है। यह गीत काबुलीवाला और उसके साथी अपने वतन (अफ़गानिस्तान) को याद कर गाते हैं। मगर देशप्रेम सार्वभौमिक होता है। हर व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्रेम करता है। हम सब भी जब इस गीत को सुनते हैं अपना देश याद आता है, अफ़गानिस्तान नहीं।मगर इधर कुछ ऐसी हवा चली है कि कुछ लोग कला-साहित्य-संगीत को भी जाति-धर्म की नज़र से देखने लगे हैं।उम्मीद है यह स्थिति हमेशा न रहेगी।

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[2020]

●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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