November 21, 2024

जबलपुर की गुमनाम फिल्मी-हस्ती..

0

4 अप्रेल 1904 में जबलपुर,मध्य प्रदेश के एक पठान परिवार में जन्मे याक़ूब महबूब ख़ान, जिन्हें याक़ूब के नाम से जाना जाता है, हिंदी फिल्म उद्योग में आज एक भूला-बिसरा नाम बन चुका है. इनके बारे में बहुत कम जानकारियां उपलब्ध हैं.काफी प्रयास के बाद ही मैं इनके बारे में कुछ तथ्य जान पाया हूँ जिन्हें आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.

याक़ूब ने अपने करियर की शुरुआत एक ‘एक्स्ट्रा’ के रूप में की,लेकिन जल्द ही एक ‘नायक: के रूप में और बाद में एक खलनायक के रूप में स्थापित हो गए।यही नहीं उन्होंने ‘कॉमेडी’ और ‘चरित्र भूमिकाओं’ में समान रूप से सफलता पाई. पुराने रिकार्ड्स में उनका शुमार आज भी बिग-स्क्रीन के ‘टॉप खलनायकों’ में होता है.याकूब कम उम्र में ही घर से भाग गए थे. ‘एसएस मदुरा’ में नमक शिप में ‘किचन वर्कर’ का काम करने से पहले उन्होंने ‘मोटर मैकेनिक’ और ‘टेबल वेटर’ जैसे कई अजीब अजीब जॉब किये.लंदन, ब्रुसेल्स और पेरिस जैसे विभिन्न स्थानों की यात्रा करने के दौरान, याक़ूब ने हॉलीवुड के महान अभिनेताओं:एडी पोलो, डगलस फेयरबैंक्स सीनियर, वालेस बेरी और बाद में हम्फ्री बोगार्ट की फिल्में देखीं और उनसे बहुत प्रभावित हुए. बाद में ‘शिप- एस एस मदुरा’.छोड़ दिया और कलकत्ता आ गए जहां उन्होंने एक ‘पर्यटक गाइड’ के रूप में काम किया.

अंततः 1924 के आसपास मुंबई आए और ‘शारदा फिल्म कंपनी’ में शामिल हो गए. याक़ूब की पहली फ़िल्म भालजी पेंढारकर की मूक फ़िल्म बाजीराव मस्तानी (1925) थी, जिसमें मास्टर विट्ठल ने भी अभिनय किया था. उनकी पहली टॉकी फ़िल्म थी ‘मेरी जान’ (1931), सागर मूवीटोन के साथ और प्रफुल्ल घोष द्वारा निर्देशित जहां उन्होंने राजकुमार की मुख्य भूमिका निभाई. राजकुमार की भूमिका उन्होंने इतने प्रभावी ढंग से की इस कि सारी इंडस्ट्री ने उन्हें ‘रोमांटिक प्रिंस’ के ख़िताब नवाज़ा जो उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी. फिल्म में मास्टर विट्ठल,महबूब खान और जुबैदा उनके सह-कलाकार थे.

निर्माता निर्देशक महबूब ख़ान की फ़िल्म ‘औरत'(1940) में एक क्रोधित नाराज़ बेटे की भूमिका के उनके अभिनय ने उन्हें इस हद तक लोकप्रिय बना दिया कि इस फ़िल्म में उनके अभिनय को भारतीय सिनेमा के ‘बेहतरीन प्रदर्शनों’ में से एक माना जाता है. बाद में इसी फ़िल्म के ‘रीमेक’ फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) में ये भूमिका सुनील दत्त ने निभाई थी.उन दिनों याक़ूब की लोकप्रियता का अंदाज़ा एस.के.ओझा द्वारा निर्देशित हलचल (1951) जैसी फिल्मों के ‘क्रेडिट रोल’ से लगाया जा सकता है, जिसमें दिलीप कुमार, नरगिस और सितारा देवी की स्टार कास्ट थी और उनका नाम ‘क्रेडिट रोल’ में..’& Your favourite Yaqub’ के रूप में दिया गया था.

अपने ज़माने की लोकप्रिय पत्रिका ‘ब्लिट्ज़’ के एडिटर बी के करंजिया के अनुसार,याकूब की गोप और आगा जैसे कलाकारों के साथ ‘कॉमिक पेयरिंग’ लाजवाब थी. ख़ास तौर से गोप के साथ उनकी हास्य-जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया.यही वजह है फ़िल्म-निर्माताओं ने इस जोड़ी को कई फ़िल्मों में रिपीट किया.उनमें से कुछ सुपरहिट फिल्में हैं: ‘सगाई'(1951) ‘पतंगा'(1949) ‘बेकसूर’ (1950) उस समय ‘गोप & याक़ूब’ की इस जोड़ी की -हॉलीवुड की मशहूर कमेडियन जोड़ी ‘लॉरेल & हार्डी’ की जोड़ी से तुलना की जाने लगी थी.

याकूब, उस दौर के सबसे ज़्यादा वेतन पाने वाले पृथ्वीराज कपूर और चंद्र मोहन से भी उच्चतम वेतन वर्ग में थे. यही नहीं 1940 के दशक के अंत से 1970 के दशक के अंत तक भारतीय फिल्म उद्योग में राज करने वाले दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की तिकड़ी की तुलना चंद्र मोहन,याक़ूब और श्याम से की जाती थी, जो अभिनय रोस्टर में उस दौर में शीर्ष पर थे.

याक़ूब ने तीन फिल्मों का निर्देशन भी किया.1930 के दशक में ‘सागर का शेर’ और ‘उसकी तमन्ना’ और 1949 में ‘आइये’. ‘सागर का शेर’ या ‘Lion Of Sagar’ सागर मूवीटोन बैनर के तहत 1937 की शुरुआत में उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी. इस फिल्म में उनके सह कलाकार थे; बिब्बो, पेसी पटेल, संकटा प्रसाद, राजा मेहदी और डेविड. संगीत निर्देशक थे प्राणसुख एम.नायक. फ़िल्म ‘उसकी तमन्ना’ को उनकी ‘Last Desire’ के नाम से भी जाना जाता है जो 1939 में ‘सागर मोवीटोन’ के तहत बनाई गई थी.इस फिल्म में याकूब ,माया, भूडो आडवाणी, कौशल्या, संकट प्रसाद, सतीश और पुतली ने अभिनय किया. अनुपम घटक ने संगीत दिया है.अपनी तीसरी और आख़िरी फ़िल्म ‘आइये’ का निर्देशन किया अपने खुद के बैनर ‘भारतीय प्रोडक्शन’ तले किया,जिसमे याक़ूब के साथ सुलोचना चटर्जी, मसूद, जानकीदास,शीला नाइक और अशरफ़ ख़ान थे. इस फिल्म में संगीत नाशाद (शौकत देहलवी) ने तैयार किया गया था और यह मुबारक बेगम की पार्श्व- गायिका के रूप में पहली फिल्म थी. याक़ूब के चचेरे भाई अलाउद्दीन इस फ़िल्म के रिकॉर्डिस्ट थे.ये वही रिकॉर्डिस्ट हैं जो आगे चलकर राज कपूर की फिल्मों के नामवर रिकॉर्डिस्ट साबित हुए. कहा जाता है कि महमूद जब एक संघर्षशील कलाकार थे,तो वो अक़्सर याक़ूब के आने की प्रतीक्षा में बॉम्बे टॉकीज के पास मंडराते रहते थे. वजह होती थी उनकी ख़स्ता आर्थिक हालत. गेट पर खड़े महमूद को हर बार कुछ न कुछ राशि से याक़ूब ज़रूर नवाज़ते थे.ये उनकी रहमदिली का प्रतीक था.याकूब एक गहरी आस्था वाले धार्मिक व्यक्ति थे. उनके करीबी दोस्तों द्वारा उन्हें मौलाना कहा जाता था. 1958 में मात्र 54 वर्ष की आयु में बॉम्बे के ब्रीच कैंडी अस्पताल उनका निधन हो गया. फ़िल्म उद्योग में 34 साल के करियर में याक़ूब ने 100 से ज्यादा फ़िल्मों में काम किया.इस भूले बिसरे हरफ़नमौला फ़नकार याक़ूब की आज 64वीं पुण्यतिथि है..आइये उनकी ‘याद’ को उनके ‘काम’ को सलाम करें
🙏🙏

📓मेरी नई पुस्तक “फ़िल्म इतिहास के बिखरे हुए पन्ने’ से साभार.]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *