November 21, 2024

फ़िल्म ‘स्पर्श’ : साई परांजपे (1980)

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दुनिया की भौतिकता को हम इन्द्रियबोध से समझते है। रूप,रस,गंध,स्पर्श का अनुभव इंद्रियों से ही होता है। इनमें भी आँखों की भूमिका विशिष्ट होती है। इस दृश्यमान जगत साक्षात्कार आँखों से ही होता है।आँखें न हो तो इस दुनिया की रंगीनी का अहसास कठिन हो जाता है। इससे भी बड़ी बात परनिर्भरता की संभावना बढ़ जाती है।

यों शारीरिक ‘अक्षमता’ चाहे किसी भी अंग का हो जीवन की एक सीमा निर्धारित करने का प्रयास तो करती ही है,और बहुधा सफल भी होती है।

मगर हम सब सामाजिक जीवन जीते हैं, इसलिए सहयोग हमारा धर्म है। हमसे अपने परिवार,परिवेश के ऐसे व्यक्तियों की सहयोग की अपेक्षा की जाती है। इधर विज्ञान के व्यापक तकनीकी प्रगति ने भी इस कार्य में व्यापक सहयोग दिया है।बावजूद इसके शारीरिक ‘अक्षमता’ से जूझ रहे व्यक्ति को एक हद तक दूसरों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती रहती है।

मगर हर मनुष्य के व्यक्तित्व की एक गरिमा होती है; व्यक्ति का आत्मसम्मान होता है,उसकी मदद उसे ठेस पहुंचाए बिना ही की जानी चाहिए।उनको दया की नही संवेदना की जरूरत होती है।उनको ‘बेचारा’ कहना उनको मानवीय गरिमा से नीचे लाना है।उनमें कुछ कमी हो सकती है वे पूर्णतः अक्षम नहीं होते कि अपना जीवन अच्छे से न जी सके।इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं।जरूरत उनको उचित प्रोत्साहन और प्रशिक्षण की है।

फ़िल्म ‘स्पर्श’ में अनुरुद्ध एक ‘अंध विद्यालय’ का प्राचार्य है। वह स्वयं अंधत्व से पीड़ित है मगर शिक्षित-प्रशिक्षित व्यक्ति है और अपना अधिकांश काम स्वयं कर लेता है।यहां तक कि अपने असिस्टेंट से भी एक सीमा से ज्यादा सहयोग नही लेता और अति आग्रह पर असहज हो जाता है और कभी डांट भी देता है।

दरअसल अनिरुद्ध नहीं चाहता कि कोई उनके या बच्चों के प्रति दयाभाव दिखाए,क्योंकि दयाभाव में अंततः दूसरे को कमजोर माना जाता है। इसलिए ऐसी सहायता में अहसान का भाव निहित होता है।

कविता अकेली है। हाल ही में उसके पति का निधन हो गया है। जीवन जैसे उसके लिए ठहर गया है। निराशा ऐसे घर कर गई है कि रास्ते हैं भी तो वह जैसे आँख मूंद ली है। ऐसे में उसका अनिरुद्ध से परिचय होता है। वह उसके कार्य और ज़ज़्बे से प्रभावित होती है। उसे अहसास होता है कि विद्यालय से जुड़कर वह अपनी ज़िंदगी को एक दिशा दे सकती है।

वह विद्यालय से जुड़ती है।प्रारम्भिक अड़चनों के बाद बच्चे उससे जुड़ने लगते हैं। वह भी उनकी आवश्यकताओं को समझती है और उनसे घुल-मिल जाती है। धीरे-धीरे उसके और अनुरुद्ध के बीच प्रेम पनपने लगता है और उनकी सगाई भी हो जाती है।वह फिर से जैसे ज़िंदगी को जीने लगती है। अनिरुद्ध के जीवन मे भी एक नयी खुशी आती है।

मगर अनिरुद्ध के व्यक्तित्व के किसी कोने में संशय का एक हिस्सा भी दबा हुआ है, जो यह मानकर चलता है कि हर ‘दूसरा’ उस जैसों के साथ समानता का व्यवहार कर ही नहीं सकता।कहीं न कहीं उसके अंदर दया का भाव अवश्य होता है। कविता के मामले में भी उसके अंदर यह धारणा घर करते जाती है कि मानो वह ‘कुर्बानी’ दे रही है और उसके अंदर ‘शहादत’ का भाव होगा।अवश्य परिस्थितियां भी इस धारणा को पनपने में मदद करती हैं।

कहना न होगा कि इस तरह की धारणा से ग्रस्त होना भी एक ‘बीमारी’ है। आत्मसम्मान और अंहकार के बीच झीना पर्दा होता है। कई बार यह संतुलन सधता नहीं है। अनिरुद्ध अपनी अस्मिता के प्रति सतर्क है,यह अच्छी बात है, मगर इसके लिए उसे दूसरे की अस्मिता और नियत पर अकारण सन्देह करने की छूट नहीं मिल जाती,भले ही उसका जीवनानुभव कैसा भी रहा हो।

इस मामले में कविता किसी ग्रन्थि से पीड़ित नहीं है।वह अपने उदासी से उबरती है,इसके लिए अनिरुद्ध और विद्यालय के प्रति उसके मन मे असीम स्नेह है। अनिरुद्ध का साथ उसकी ख़ुशी को दोहरा कर सकती है,मगर साथ न मिले तब भी वह इतने में खुश है। वह अनिरुद्ध के कशमकश को समझती है,और उसे इससे उबारने हर सम्भव कोशिश करती है।

अंततः अनिरुद्ध को अहसास होता है कि वह गलत है और कविता के प्रेम के प्रति उसका सन्देह निराधार है। दरअसल यह समस्या उसके ख़ुद थी। वह अपने से जूझ रहा था,और अंततः उससे मुक्त होता है और आखिर में कविता के दरवाजे में फिर दस्तक देता है।

इस तरह यह फ़िल्म शारीरिक ‘अक्षमता’,अस्मिता और मानवीय संवेदना के द्वंद्व को बिना किसी लाग-लपेट के बेहतर प्रस्तुत करती है।

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●अजय चन्द्रवंशी,कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320
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