सुन रहा हूँ इस वक्त : लोक जीवन मे आस्था का स्वर
युवा कवि सतीश कुमार सिंह मुख्यतः नव गीतकार के रूप में जाने जाते रहे हैं, मगर इसके समानांतर वे कविताएं भी लिखते रहे हैं; और इधर कुछ समय से उसकी आवृत्ति में बढ़ोतरी हुई है.इस संदर्भ में उनका कविता संग्रह ‘सुन रहा हूँ इस वक़्त’ के प्रकाशित होने से उनके काव्यशक्ति और सरोकारों का पता चलता है; और एक उम्मीद जगती है.
सतीश जी भी उस पीढ़ी के रचनाकार हैं जिन्होंने पिछली सदी के नब्बे के दशक में अपने रचनाकर्म की शुरुआत की.सर्वविदित है यह समय समाजवाद के बिखराव, साम्प्रदायिक शक्तियों के उभार, बाज़ारवाद, वैश्वीकरण, पर्यावरण के ह्रास के लिए जाना जाता है;इसका प्रभाव जागरूक कवियों पर पड़ना ही था.सतीश जी का कवि मन भी इन परिवर्तनों से घात-प्रतिघात करते हुए उसे आलोचनात्मक निग़ाह से देखता है.
कविता के विषयवस्तु के चुनाव से कवि के संवेदनात्मक धरातल और उसकी चिंताओं का पता चलता है.मगर यह जरूरी नहीं कि ‘बड़ी चिंताएं’ कवि को बड़ा बनाती हैं. कम परिचित और अनुभव क्षेत्र से दूर की विषयवस्तु की अपेक्षा कवि यदि अपने परिवेश और कर्मक्षेत्र के आस-पास से अपनी बात कहे तो विश्वसनियता बढ़ जाती है.’बड़ी बातें’ छोटी-छोटी बातों से ही बनती हैं.सतीश सिंह अपनी कविताओं में अपने परिवेश के जाने-पहचाने चेहरे, स्थान, जिनसे कवि का सामना होते रहता है; को बहुधा लेते हैं. इनमें ‘कचरा बीनने वाले’ , ‘कुसुम दीदी’, ‘मनिहारिन’ ‘मां-पिता-बच्चे’, ‘बड़की बहू’, ‘बूढ़े’ ‘डबल रोटी बेचने वाले’ ‘सुखराम कसेर’ जैसे लोग या एक छोटे शहर के गली- चौराहे हैं जो कवि के जीवन के हिस्सा रहे हैं.ये सब सामान्य कामकाजी लोक-बाग हैं; जिनकी अपनी समस्याएँ हैं,जीवन के जद्दोजहद है, संघर्ष है.कवि की सम्वेदना इनसे जुड़ती है,उसे अपनापन का एहसास होता है, और वह खुद को इन लोगों के बीच पाता है.
लोक जीवन की आस्था अपनी संस्कृति से गहरी जुड़ी होती है, और संस्कृति का धार्मिक पक्ष भी होता है.परंपराएं हमारी शक्ति भी हैं; इनके प्रति पूर्णतः नकार भाव ‘अभिजातीय दृष्टि’ है. अवश्य इनमें अंधविश्वास भी हैं,और शोषक वर्ग इनका दुरुपयोग भी करते हैं,मगर लोक- विश्वासों से कटकर जनता से नहीं जुड़ा जा सकता. सतीश जी इनका महत्व समझते हैं; और लोक संस्कृति से अपने सहज जुड़ाव को व्यक्त करते हैं. ‘शिवरी नारायण की महानदी’ ‘यहां एक तालाब था’ या ‘यूँ ही नहीं’ जैसी कविताओं में यह भाव व्यक्त हुआ है. महत्वपूर्ण यह भी है कि कवि इनका केवल ‘द्रष्टा’ नहीं ‘भोक्ता’ भी है. लोक विश्वास में ‘टोनही’ जैसे अमानवीय अंधविश्वास भी है जहां एक स्त्री के जीवन को नारकीय बना दिया जाता है; वहीं मुफ़्तभोगी ‘भविष्यवक्ता’ भी हैं. कवि की दृष्टि इस तरफ भी जाती है.
इन कविताओं में हमारे आस-पास मौजूद उस चालाक सुविधाभोगी वर्ग की बराबर खबर ली गई है जो आम जनता को अपनी ‘जाल’ में फँसाकर उससे खेलते हैं. ये बड़े जादूगर हैं जो ‘सत्ता की खोल में छुपे’ भेड़ियों को आसानी से ‘सौम्य जन सेवक’ में बदल देते हैं. वे कभी “धर्म और संस्कार के नाम की घुट्टी पिलाकर” “स्वतंत्र सोच का हरण” कर लेते हैं या हमारी “विचार सरणियों में घुसकर” “अपना चश्मा” पहनाते हैं.अभी हर तरफ उनका ही ‘सिक्का’ चल रहा है. मगर कवि को विश्वास है “इस बार जरूर चलेगा जनता का सिक्का”.
इन कविताओं से गुजरते हुए देखा जा सकता है कि कवि जहां अपने समय में बढ़ते जा रहे नकारात्मकता से चिंतित है, वहीं उसके अंदर दृढ़ आशा का स्वर भी है.वह प्रेम से सरोबार है; माता-पिता, भाई, बच्चे, पत्नी हो के पास-पड़ोस ,अपनापन उसे रोमांचित कर देता है. यही नही प्रकृति, खेत-खलिहान के सौंदर्य भी उसे आह्लादित कर उसमें जीवन ऊर्जा भर देते हैं; और उसे अपने कविकर्म की सार्थकता पर विश्वास बढ़ जाता है.
समाज मे स्त्री के विडम्बना की तरफ भी कवि का ध्यान गया है.जहां एक ओर ‘टोनही’ जैसी कुप्रथा है, वहीं ‘काले-उजले ‘ का भेद तो कहीं ‘उत्पाद’ में बदल रही लड़कियां है.वहीं आकाश को छूती और श्रमशील लड़कियां भी हैं. कवि चिंतित है कि अब भी स्त्री-पुरुष का भेद बरकरार है.
कुल मिलाकर ये कविताएं अपने समय से संवाद करतीं; उसके विडम्बनाओं को उजागर करती; मानवता की पक्षधर;अपने लोक-समाज और उसकी संस्कृति पर गर्वित, मेहनतकशों की आवाज़ हैं.यहां केवल शिकायत नहीं विश्वास भी है.भाषा सहज सम्प्रेषणीय है.शैली बातचीत के करीब है.लोक संस्कृति को लेकर कई जगह सुंदर बिम्ब हैं.जैसे -“क्वांर की पकी धूप में/दूध के पोठाने/खलिहान आते, मिंजाते/कई शक्लें बदलते/धान की अन्न बनने की प्रक्रिया” या मजदूरों का यह चित्र ” कोलतार की गर्म सड़कों को/भारवाही कंधों पर लादे/अपना पसीना पिलाते जन मजूर”. इति.
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[2018]
पुस्तक- सुन रहा हूँ इस वक्त(काव्य संग्रह)
मूल्य- 120/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर(राजस्थान)
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●अजय चन्द्रवंशी
कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320