और लालटेन बुझ गई
( कवि मुकुंद कौशल के निधन पर मित्रों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि – शरद कोकास )
कल शाम रायपुर से राजकुमार सोनी का फोन आया “ मुकुंद भाई की तबियत के बारे में कुछ सुना क्या ? “ जब भी कोई फोन पर इस तरह कुछ कहता है तो आशंकाओं के जाने कितने तूफ़ान मन के भीतर उमड़ने लगते हैं। मैंने बुझे स्वर में कहा “ नहीं…” तो उसने कहा .. “ज़रा पता तो करो । “ थोड़ी देर में ही कन्फर्म हो गया कि हिंदी व छत्तीसगढ़ी के प्रतिष्ठित कवि मुकुंद कौशल नहीं रहे । रविवार चार अप्रेल इक्कीस की शाम ‘लालटेन जलने दो’ कविता के कवि मुकुंद कौशल के हृदय ने धोखा दे दिया और उनके जीवन की लालटेन बुझ गई ।
फिर तो जाने कितने फोन आये ..दानेश्वर शर्मा, दीप्ति शर्मा, मीना शर्मा, संकल्प यदु.. और बैंक के मित्र । कारण किसी को पता नहीं था । इस कोरोना काल में यही आशंका हो रही थी कहीं इस कोरोना ने तो उनके प्राण नहीं हर लिए । फिर सरला शर्मा दीदी ने बताया कि कोरोना उनके छोटे बेटे और बहू को हुआ है और वे अस्पताल में भरती हैं मुकुंद भाई तो अपनी बहन के यहाँ थे वहीं उन्हें अटैक आया । मैं शाम से ही लगातार मुकुंद भाई के बारे में सोच रहा हूँ । मुकुंद भाई को याद करते हुए स्मृतियों के जाने कितने झोंके मन की खिड़की से प्रवेश कर रहे हैं और मेरे अवचेतन में स्थित अतीत के एल्बम के पुराने पन्ने फड़फड़ाने लगे हैं ।
विगत सदी के सन अस्सी की बात है । मैं उन दिनों दुर्ग शहर में नया नया आया था, बैंक में नौकरी करने के लिए । अकेला था, निपट बैचलर, रोज शाम बैंक से निकलता साइकल चलाते हुए कुछ देर बाजार में भटकता भीड़ से साक्षात्कार करता और फिर अपने कमरे पर लौट आता । न कोई साहित्यिक मित्र, न कोई रंगकर्मी, बस बैंक के एक दो सहकर्मी थे जिनका संसार बस बैंक की बातों तक ही सीमित था। कमरे पर भी मन नहीं लगता था । नौकरी के लिए परीक्षा देने से लेकर नौकरी ज्वाइन करने के बीच कविता लिखना छूट सा गया था । बस एक ही शौक बाक़ी था संगीत का जिसे जारी रखने के प्रयास में मैंने एक कार स्टीरियो डेक बनवा लिया था और इस फिराक में थे कि कोई ऐसी दुकान मिल जाए जहाँ से कैसेट में गाने रिकॉर्ड करवाये जाएँ ।
उन्ही दिनों शहर की एक दीवाल पर कहीं लिखा देखा “म्यूजिको कहाँ है ?” इसके नीचे एक तीर का निशान बना था । मैं तीर का निशान देखकर आगे बढ़ता गया । फिर दूसरी जगह ऐसा ही लिखा देखा जिसके नीचे फिर एक तीर का निशान बना था । मैं तीरों के तीर तीर यानि उन संकेतों के जरिये उस दुकान पर पहुंच गया जिसका नाम था ‘म्युज़िको’ । दुकान में काउंटर पर एक सज्जन बैठे थे। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और अपनी पसंद के कुछ गाने कैसेट में रिकॉर्ड करवाने के लिए उन्हें एक लिस्ट थमाई । उन्होंने मुझे मेरी पसंद के कुछ बेहतरीन गीत भी सुझाए । यह तो मुझे समझ आ गया कि यह व्यक्ति महज एक दुकानदार नहीं है अपितु इनकी गीत संगीत में रूचि के अलावा दखल भी है । बस दो चार मुलाकातों में ही पता चल गया कि उनका नाम मुकुंद कौशल है और वे कविताएं भी लिखते हैं । उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोकनाट्यों के लिए भी छत्तीसगढ़ी में गीत भी लिखे हैं ।
जैसे एक अच्छा आदमी दूसरे अच्छे आदमी को शीघ्र ही पहचान लेता है वैसे ही एक कवि भी दूसरे कवि को बहुत जल्दी पहचान लेता है । मेरे द्वारा महादेवी, प्रसाद , निराला , नीरज, आदि का उल्लेख आते ही वे समझ गए कि मैं भी उनकी बिरादरी का व्यक्ति हूँ । फिर जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं भी कविताएं लिखता हूं वे बहुत खुश हुए और फिर उन्होंने मुझसे कविताओं की फरमाइश की । मैंने मुंबई की चौपाटी पर कॉलेज के दिनों में लिखी अपनी एक कविता ‘कोलाहल’ और अमीरी गरीबी पर लिखी एक कविता ‘अमीरों से’ उन्हें सुनाई जो उन्हें बहुत पसंद आई।
एक दिन सुबह सुबह वे एक सज्जन को लेकर मेरे कमरे पर आ गए । मैं उन दिनों दुर्ग शहर के एक मोहल्ले केलाबाड़ी में एक किराए के कमरे में रहता था । मुकुंद भाई ने मुझसे उन सज्जन का परिचय करवाया “ यह महावीर अग्रवाल हैं , साहित्यकार हैं और इन्होने अभी-अभी ‘सापेक्ष’ नामकी पत्रिका निकालना प्रारंभ किया है । फिर तो महावीर भाई से भी दोस्ती हो गई और बस एक महीने के भीतर दुर्ग शहर के जाने कितने कवियों और लेखकों से उन्होंने मेरा परिचय करवा दिया ।
फिर एक दिन मुकुंद कौशल के यहां एक बैठक हुई जिसमें खैरागढ़ से कवि जीवन यदु , कथाकार डॉ रमाकांत श्रीवास्तव , बिलासपुर से डॉ. राजेश्वर सक्सेना और समीक्षक गोरेलाल चंदेल जी पधारे और प्रगतिशील लेखक संघ दुर्ग इकाई का गठन किया गया। मुकुंद भाई अध्यक्ष बने और महावीर अग्रवाल सचिव । फिर तो मुकुंद भाई के साथ जो दोस्ती हुई तो वह बिल्कुल घर परिवार के संबंधों में बदल गई । मेरा जब कभी कोई गुजराती डिश खाने का मन होता मैं मुकुंद भाई के घर पहुंच जाता, हीरा भाभी आग्रह पुर्वक मुझे ढोकला, ठेपला और भी बहुत सी चीज़ें खिलाती । मुकुंद भाई तो खैर खाने पीने के शौक़ीन थे ही।
फिर तो लगभग रोज़ ही उनकी दुकान पर पहुंचकर उनके साथ गप्प मारने का सिलसिला शुरू हो गया । हम लोग साथ साथ स्थानीय गोष्ठियों में भी जाने लगे । समय बीतता गया । एक दिन मुकुंद भाई बहुत उदास थे मैंने पूछा “ क्या हुआ ?” तो उन्होंने बताया कि “म्युज़िको बंद हो रही है। “ वह दुकान यहाँ के किसी लोक गायक की थी जिसने वहां पर अपना कुछ और कारोबार शुरू करना चाहा था या वह खानदानी बंटवारे में थी । मैं जानता था उस दूकान के अलावा मुकुंद भाई का और कोई आर्थिक स्त्रोत नहीं है । फिर मुकुंद भाई ने पद्मनाभपुर स्थित अपने घर पर ही दुकान खोल ली । वे अक्सर मुझसे अपने संघर्ष के दिनों की बाते बताते थे कि किस तरह उन्होंने कभी बैंक में नौकरी की थी और किस्मत आजमाने दुबई भी गए थे । मैं उनसे कहता “मुकुंद भाई अभी आपका संघर्ष समाप्त कहाँ हुआ है ।“
मुकुंद भाई तकलीफें झेलकर भी अपने परिवार , अपने दोनों बच्चों दिशांत और अक्षत को बड़ा कर रहे थे । उनकी माँ जिन्हें हम बा कहते मुझे कस्तूरबा की तरह ही लगती थीं । मुकुंद भाई लिखने में और अपनी कविताओं के मंचीय प्रदर्शन में ही प्रसन्न रहते थे । वाहवाही , तालियाँ और सहज लोकप्रियता उनमे उर्जा का संचार करती थी । उन्होंने यह सब परिश्रम से अर्जित किया था । फिर प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ सदस्यों डॉ कमला प्रसाद, भगवत रावत , रमाकांत श्रीवास्तव आदि के कहने पर उन्होंने गीतों के संकलन प्रकाशित करने की ओर ध्यान दिया ।
फिर मुकुंद भाई की किताबें छपनी शुरू हुई । ‘लालटेन जलने दो’ उनका प्रथम गीत संग्रह आया जिसकी शीर्षक कविता वर्गभेद के खिलाफ़ एक क्रांति का शंखनाद करती थी फिर तो किताबों का तांता लग गया । शब्दक्रांति , गीतों का चंदनवन, देश हमारा भारत, भिनसार , चिराग़ ग़ज़लों के , ज़मी कपड़े बदलना चाहती है , हमर भुइयाँ हमर अगास, मया के मुन्दरी,केवरस , सिर पर धूप आँख में सपने, जैसे गीत ग़ज़ल संकलनों के अलावा छत्तीसगढ़ी गीतों के छह संकलन उनकी रचना यात्रा में उनकी संतानों की तरह उनके साथ रहे ।
मुकुंद भाई के साथ जाने कितने कार्यक्रमों में जाने का अवसर प्राप्त हुआ । जब भी उनकी किसी किताब का विमोचन होता तो वे मुझे जरूर बुलाते थे एक आध बार उनके गीतों पर बोलने का अवसर भी मुझे मिला । वे मूलतः छंदबद्ध रचनाओं, गीत और ग़ज़लों के पैरोकार थे इसलिए उन्हें मुक्त छंद की रचनाएं बहुत अधिक पसंद नहीं थी । लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ के साथियों की संगत में उन्होंने समकालीन कविता भी पढ़नी प्रारंभ की । वे सार्वजनिक रूप से मुक्तछंद की फूहड़ रचनाओं की आलोचना भी करते थे लेकिन साथ ही कहते थे कि “मुझे शरद कोकास और रवि श्रीवास्तव इन दो लोगों की मुक्त छंद की कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि वास्तव में नई कविता या समकालीन कविता ऐसी ही होनी चाहिए ।“
मुकुंद भाई को संगीत का शौक तो था ही कभी-कभी संगीत पर भी उनसे चर्चा होती थी । उन्हें गुजराती हिंदी और छत्तीसगढ़ी तीनों भाषाओं में लिखने का अनुभव था साथ ही उर्दू में भी वे दखल रखते थे । वे लेखन में नए नए प्रयोग भी किया करते थे । एक दिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी में ग़ज़ल लिखने की ठानी और फिर तो उनकी छत्तीसगढ़ी गज़लें ऐसी मशहूर हुई कि मुंबई की पत्रिका ‘ शब्द सृष्टि ‘ के ग़ज़ल विशेषांक में संपादक डॉ. मनोहर ने उनकी ग़ज़लों को प्रमुखता से स्थान दिया । फिर उन्होंने गुजराती में भी ग़ज़लें लिखीं ।
मुकुंद कौशल जी के रचना संसार में उनकी सामाजिक साहित्यिक गतिविधियों के अलावा सांगठनिक गतिविधियाँ भी शामिल थीं । उसी समय ललित सुरजन जी तथा प्रभाकर चौबे जी ने अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन की दुर्ग इकाई का गठन किया । मुकुंद कौशल प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष तो थे ही साथ ही दुर्ग ज़िला हिन्दी साहित्य समिति से भी जुड़े थे इसलिए उसमें भी उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया । बाद में वे दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के भी पूर्णकालिक अध्यक्ष बने और मैंने उनके साथ सचिव का पदभार संभाला । हम लोगों की जोड़ी बहुत बढ़िया चली ।
मुकुंद भाई बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे । आयोजन में तो वे सिद्धहस्त थे ही कोई जुलुस हो , सांगठनिक आन्दोलन हो, हिन्दी भवन की मांग हो , मुकुंद भाई झंडा लेकर सबसे आगे चलते थे । बैनर बांधने और पोस्टर लगाने और हाल सजाने के लिए उनके बैग में कैंची, टेप, गोंद, फेविकोल, कागज, रंगीन स्केच पेन सुतली हमेशा रहते थे । उनकी राइटिंग भी खुबसूरत थी । मुकुंद भाई के साथ मैंने साक्षरता अभियान में कई लेखन कार्यशालाओं में भी भाग लिया । डॉ परदेशी राम वर्मा , विमल पाठक, आशा दुबे, इंदु शंकर मनु , और भी कई लोग हमारे साथ थे । हम लोगों ने प्रो. डी एन शर्मा के साथ दुर्ग ज़िले के जाने कितने गाँवों में यात्राएँ भी कीं और नव साक्षरों के लिए अनेक गीत, कहानियां आदि भी लिखीं ।
उनके साहित्यिक संसार में उनके साहित्यिक मित्रों के अलावा उनके प्रशंसक भी बहुत रहे । वरिष्ठ साहित्यकार मलय जी, कमला प्रसाद जी, भगवत रावत, पवन दीवान, जमुना प्रसाद कसार, नंदुलाल चोटिया, वी यादव राव नायडू, सुरेश चन्द्र सिंह , सुरेश चन्द्र शर्मा, त्रिभुवन पाण्डेय, दानेश्वर शर्मा, विमलेन्दु सिंह , अशोक शर्मा, कनक तिवारी , पुष्पा तिवारी, रवि श्रीवास्तव गुलबीर सिंह भाटिया, गया प्रसाद खुदी, मुकीम भारती , शेख निज़ाम , राम कैलाश तिवारी, सरला शर्मा, नलिनी श्रीवास्तव, डॉ निर्वाण तिवारी, बलदाऊ प्रसाद शर्मा , सुरजीत नवदीप , बसंत देशमुख, डॉ सुरेन्द्र दुबे, अशोक सिंघई, प्रभा सरस, संतोष झांजी, विद्या गुप्ता, प्रदीप वर्मा, डॉ. प्रकाश नवीन तिवारी, आदि उनकी उर्जा और रचनात्मकता के प्रशंसक रहे ।
युवाओं से तो उनकी खूब जमती थी । उनके प्रारंभिक दौर से ही अरुण कुमार निगम, विजय वर्तमान, , राजकुमार सोनी, कैलाश बनवासी, मनोज रूपड़ा, नासिर अहमद सिकंदर, विनोद मिश्र, विनोद साव, प्रदीप भट्टाचार्य, लोकबाबू, परमेश्वर वैष्णव मुमताज़, सियाराम शर्मा , बुद्धिलाल पाल, राजेश श्रीवास्तव , हरी सेन , अनिल कामड़े, मीना शर्मा, मिता दास , अनीता करड़ेकर,शशि दुबे, डॉ. संजय दानी, आशा झा , नीता काम्बोज, लक्ष्मीनारायण कुम्भकार,अरुण कसार, संजीव तिवारी ,सूर्यकांत गुप्ता, विजय गुप्ता,कलाकार मित्र संतोष जैन , विनायक अग्रवाल और उर्दू अदब के तमाम मित्र शाद बिलासपुरी ,सुलतान जावेद , निज़ाम राही , रौनक जमाल आदि उनकी मित्र मंडली में शामिल रहे जो उनसे प्यार भी करते थे और बहस भी करते थे । लोककला और कला मंच के तो उनके कितने ही साथी थे लक्ष्मी कंवर, डॉ दीनदयाल साहू , रजनी रजक,डी पी देशमुख ,सीमा साहू, गोविंद साव, शैलेष साव , बलराम चंद्राकर,किशोर तिवारी , नरेंद्र देवांगन आदि।
मुझे इस वक्त रायपुर के गिरीश पंकज , आलोक वर्मा, जीवेश चौबे, नन्द कंसारी, संजय शाम , जगदलपुर के विजय सिंह , त्रिजुगी कौशिक , राजनांदगांव के थानसिंह वर्मा, पथिक तारक , जयप्रकाश, बेमेतरा के दिनेश गौतम , धमतरी के माझी अनंत, भी ऐसे बहुत से मित्रों के नाम याद आ रहे हैं जिनसे वे बेतकल्लुफ़ी से मिला करते थे और अक्सर चर्चा किया करते थे । रजनीश उमरे, अज़हर कुरैशी,शुचि भवि जैसे युवतर मित्रों को वे लेखन संबंधी सलाह भी दिया करते थे । मेरे पास तमाम तस्वीरें उनकी साहित्यिक मित्रों के साथ हैं जिन्हें समय समय पर प्रस्तुत करता रहूँगा । मुकुंद भाई की आवाज़ भी मेरे आर्काइव में है ।
लिखने पढ़ने के अलावा मुकुंद भाई को अच्छा पहनने और अच्छा खाने या कहें कि चटपटा खाने का भी बहुत शौक था । उन शुरुआती दिनों में जब वे और महावीर अग्रवाल जी किसी चाट या गुपचुप के छोटे-मोटे ठेले पर खड़े हो जाते थे तो अन्य लोगों के लिए बहुत मुश्किल से कुछ बचता था । मुकुंद भाई यद्यपि गोल मटोल थे लेकिन इस उम्र में भी उनमे गज़ब की फुर्ती थी । वे एक से एक फैशनेबल कपड़े पहनते थे । शो मैन राजकपूर की तर्ज पर हम लोग उन्हें साहित्य का शो मैन कहते थे । लेकिन धीरे धीरे उनके शरीर पर बीमारियों ने आक्रमण करना शुरू किया और पिछले कुछ वर्षों से वे काफी बीमार रहने लगे थे । उसके बाद भी उनका उत्साह कम नहीं होता था, वे थोड़े से ठीक होते और फिर सक्रिय हो जाते , कार्यक्रमों में उनका आना-जाना शुरू हो जाता । लिखना तो उन्होंने कभी बंद ही नहीं किया और अभी उनकी अंतिम सांस तक वे इसी तरह लिखते रहे । उन्होंने अनुवाद का कार्य भी प्रारंभ किया था और मेरी चर्चित कविता ‘अनकही’ , या ‘वह कहता था वह सुनती थी’ का गुजराती अनुवाद भी उन्होंने किया था । अनुवाद के अनेक प्रोजेक्ट वे शुरू करना चाहते थे ।
मुझे मुकुंद भाई की साहित्यिक यात्रा देखकर लगता है कि वे अपने जीवन से बहुत संतुष्ट थे । उनके झोले में अनेक उपलब्धियां थीं । सृजन श्री अलंकरण, समाज़ गौरव सम्मान साक्षरता सम्मान, अहिन्दी भाषी हिंदी सम्मान, लोककला सम्मान, मुश्फिक पुरस्कार, मुकीम भारती पुरस्कार, साहित्य गौरव, भारत गौरव, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य अलंकरण, भुइयां सम्मान,परिधि सम्मान,कथाकार सम्मान सहित लगभग तीस से भी अधिक सम्मानों,अलंकरणों एवं पुरस्कारों के वे हकदार रहे । अभी एक सप्ताह पहले ही साहित्यकार सुधीर शर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव के महती आयोजन में उनका सार्वजनिक सम्मान भी किया । वे लगातार आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी जाते रहे । अभी दस रोज पहले किताब मेले में उन्होंने काव्य पाठ भी किया ।
फिर भी मुझे लगता है कि मुकुंद भाई को अभी और लम्बी साहित्यिक यात्रा संपन्न करनी थी । उनका होना साहित्यिक समाज में एक जीवन्तता की तरह लगता था । साहित्य, विचारधारा, मंच, संगठन आदि अनेक मुद्दों को लेकर उनसे चर्चा होती थी । कार्यक्रमों की शोभा बढ़ना , आयोजन में चार चाँद लगना जैसे संप्रत्ययों को उनकी उपस्थिति एक अर्थ प्रदान करती थी । लेकिन क्या करें.. नियति के आगे सब बेबस हैं यह मानकर संतोष कर लेते हैं कि हम लोगों के साथ उनकी यात्रा यही तक थी । मुकुंद भाई एक शेर कहा करते थे जिसका आशय था कि वो मुसाफ़िर जंज़ीर खेंचकर रास्ते में ही उतर गया जो कहता था अभी बहुत दूर का सफ़र है । मुकुंद भाई भी ऐसे ही बीच सफ़र में हमें छोड़कर चले गए । उन्हें हम सब कलमकारों , कलाकारों , रंगकर्मियों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।