महान भूमकाल की धरोहर — दक्षिण बस्तर का कुआकोंडा थाना ….!
1910 का महान भूमकाल आंदोलन बस्तर के इतिहास में सबसे प्रभावशाली आंदोलन था। इस विद्रोह ने बस्तर में अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी थी। पूर्ववती राजाओं के नीतियों के कारण बस्तर अंग्रेजों का औपनिवेशिक राज्य बन गया था। बस्तर की भोली भाली जनता पर अंग्रेजो का दमनकारी शासन चरम पर था। दो सौ साल से विद्रोह की चिंगारी भूमकाल के रूप में विस्फोटित हो गई थी।
इस विद्रोह से दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा भी अछूता नहीं था। कुआकोंडा के पास हल्बारास में स्थित रियासत कालीन पुलिस थाना महान भूमकाल विद्रोह का मूक गवाह है। भूमकाल आंदोलन की दक्षिण बस्तर की महत्वपूर्ण धरोहर हैं। इस पुलिस थाने की दीवारों पर आज भी भूमकाल विद्रोह की गाथा लिखी हुई है। थाने के कोने कोने में आज भी उस संघर्ष की हुंकार गूंजती है। विद्रोहियों को बंद करने के लिए बैरक में लगा क्विंटल भर का लौह द्वार ना जाने कितनी बार खुला और बंद हुआ होगा। थाना परिसर में हुए तांडव को आज भी नग्न आंखो से महसूस किया जा सकता है।
भूमकाल आंदोलन के पीछे बहुत से कारणों की लंबी श्रृंखला है। बस्तर के आदिवासियों के देवी दंतेश्वरी के प्रति आस्था में अंग्रेजी सरकार का अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ गया था। अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त दीवानों की मनमानी अपने चरम पर थी। वनों की अंधाधूंध कटाई कर आदिवासियों को उनके जल जंगल जमीन से वंचित किया जा रहा था। आदिवासियो और राजा रूद्रप्रताप में आपसी विश्वास एवं समन्वय की कमी और राजपरिवार के अन्य सदस्य लाल कालिन्दर सिंह और राजा की सौतेली मां सुवर्णकुंवर देवी के अंग्रेजो और राजा के प्रति शंका ने उन्होने विद्रोह का झंडा बुलंद करने के लिये विवश किया।
साहब लाल कालिन्दर सिंह जो राजा के चाचा थे, उन्होने आदिवासियों के अंदर विद्रोह की ज्वाला को पहचान कर उन्हे दिशा देने का कार्य किया। लाल साहब ने नेतानार के विद्रोही नेता गुंडाधुर को आदिवासियों का नेता बनाकर विद्रोह की रूपरेखा तय की। राजमाता सुवर्णकुंवर देवी ने भी लाल साहब और गुंडाधुर के साथ मिलकर विद्रोहियों को नेतृत्व प्रदान किया।
1908 के ताड़ोकी से भूमकाल आंदोलन की शुरूआत हो चुकी थी। योजनाबद्ध तरीके से 2 फरवरी 1910 को पुसपाल बाजार लूटा गया, 4 फरवरी को कुकानार बाजार और 5 फरवरी करंजी बाजार लूटा गया। इधर राजा ने अंग्रेजो को विद्रोह की सूचना दे दी गई। 6 एवं 7 फरवरी को गीदम में विद्रोहियों की गुप्त बैठक हुई। इस गुप्त बैठक में कई फैसले लिए गए।(संदर्भ बस्तर का मुक्ति संग्राम — हीरालाल शुक्ल)
विद्रोहियों ने गीदम पर आधिप्त्य के बाद बारसूर की ओर कूच किया। बारसूर में बैजनाथ हलबा ने विद्रोहियों का कड़ा मुकाबला किया। यहां विद्रोहियों का नेतृत्व केरिया मांझी और जकरा पेददा ने किया। बैजनाथ हल्बा को संघर्ष में हार स्वीकार करनी पड़ी। इसके बाद विद्रोहियो ने कुटरू की तरफ धावा बोला। कुटरू जमींदारी के जमींदार सरदार निजाम बहादुर शाह ने विद्रोहियों के सामने हथियार डाल दिए। इन विजयो से उत्साहित होकर दंतेवाडा की ओर प्रस्थान किया।
दंतेवाड़ा में माईजी के पूजारी बलराम जिया जमींदार थे। उन्होंने अपने सेना एकत्रित कर विद्रोहियों का सामना करने का निश्चय किया। दंतेवाड़ा में विद्रोहियों को पहली बार हार का सामना किया। बलराम जिया ने बहुत वीरता दिखाई। यहां से पराजित होने के उपरांत 09 फरवरी को विद्रोही कुआकोंडा की तरफ़ मुड़ गए। कुआकोंडा में विद्रोहियों को दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार ने मसेनार के कोपा पेद्दा और मटेनार के हुसेंडी पेद्दा को भेजा। इन दोनो ने कुआकोंडा में मोर्चा संभाला और विद्रोहियों को दो बार खदेड़ा। हालांकि इस दौरान कुआकोंडा के तीन पुलिस वाले मारे गए थे। विद्रोह के दमन उपरांत अंग्रेजी सरकार ने मसेनार के कोपा पेद्दा और मटेनार के हुसेंडी पेद्दा को प्रशस्ति पत्र और मुआफी जमीन भेट देकर सम्मानित किया। (संदर्भ भूमकाल : बस्तर का भूचाल — सुधीर सक्सेना)
16 फरवरी को खड़कघाट में अंग्रेजी सेना और विद्रोही में मुठभेड़ हुई जिसमें कई आदिवासी मारे गये। लाल कालिन्दर सिंह एवं अन्य नेता गिरप्तार कर लिये गये। 03 मार्च को नेतानार में गुंडाधुर और अंग्रेजी सेना में जबरदस्त मुठभेड़ हुई। सोनू माझी के विश्वास घात के कारण अंग्रेजो ने विद्रोहियों को घेर लिया। विद्रोहियों को हजारों की संख्या में मारा गया। गुंडाधुर भाग निकलने में कामयाब हो गया वहीं डेबरीधुर और अन्य सहयोगी पकड़े गये जिन्हे फांसी दी गई। 03 मई 1910 तक विद्रोह का दमन किया जा चुका था। (संदर्भ बस्तर का मुक्ति संग्राम — हीरालाल शुक्ल)
कुआकोंडा दंतेवाडा की एक छोटी सी तहसील है। दंतेवाड़ा से 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह थाना रियासत काल की बुलंद इमारत है जो विद्रोह की लपटों के बाद आज लगभग 112 साल बाद भी अच्छी अवस्था में है। वर्तमान में यह कुष्ठ निवारण का कार्यालय संचालित है। थाने में उस समय से लगे हुए लकड़ी के जालीदार दरवाजे और दीवारों की जगह लगी लकड़ी की जालियां यथावत है। लकड़ी की जालियां का प्रयोग निर्बाध रूप से शीतल हवा का आवागमन के लिए होता था जिससे भवन गर्मियों में भी बेहद ठंडा रहता था। बैरक में लगा लोहे का द्वार बेहद ही वजनी और मजबूत है। इसकी मजबूत सलाखों को पकड़ कर भूमकाल विद्रोह की ताकत को आंका जा सकता है।
भूमकाल आंदोलन की बहुत सी स्मृतियां आज भले ही धुंधली पड़ चुकी है। वहीं कुआकोंडा थाना आज भी भूमकाल की गौरवगाथा का बखान कर रहा है। आज जरूरत तो है इस थाने को संरक्षित करने की ताकि आने वाली पीढ़ियां इस धरोहर को देखकर महान विद्रोह की वीर गाथाओं का स्मरण कर सके, उन्हें नमन कर सके।
आलेख — ओम प्रकाश सोनी दंतेवाड़ा।