30 सितंबर पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय जी की जयंती के अवसर पर विशेष लेख : मुकुटधर पाण्डेय के काव्य की पृष्ठभूमि
डाँ० बलदेव
पंडित मुकुटधर पाण्डेय संक्रमण काल के सबसे अधिक सामथ्यर्वान कवि हैं। वे व्दिवेदी-युग और छायावाद के बीच की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी हैं, जिनकी काव्य यात्रा को समझे बिना खड़ी बोली काव्य के दूसरे-तीसरे दशक तक के विकास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता। उन्होंने व्दिवेदीयुग के शुष्क उद्यान में नूतन सुर भरा तथा नव बसन्त की अगवानी कर के युग-प्रवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया।
मुकुटधर पाण्डेय जी जीवन की समग्रता के कवि हैं। उनके काव्य में प्रसन्न और उदास दोनों पक्ष के छायाचित्र हैं। प्रकृति के सौन्दर्य में अलौकिक सत्ता का आभास मिलता है, उसके प्रति कौतूहल उनमें हर कहीं विद्ममान है। यदि एक ओर उनके काव्य में अंतस्सौंदय
की तीव्र एवं सूक्ष्मतम अनुभूति, समर्पण और एकान्त साधना की प्रगीतात्मक अभिव्यन्जना है, तो दूसरी ओर व्दिवेदीयुगीन प्रासादिकता और लोकहित का आर्दश। महाकवि निराला ने इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें मार्जित कवि कहा है। उनके शब्दों में इस जमाने और सनेही जी के जमाने के संधि – स्थल के मुकुटधर जी श्रेष्ठ कवि हैं।(“संज्ञा “, जनवरी 1967, पृ. 8) दरअसल वह चरित्र -निर्माण का युग था भाषा साहित्य, समाज सभी स्तरों पर यह कार्य हो रहा था। काव्य-भाषा के लिए खड़ी बोली अपना ली गई थी, फिर भी ब्रजभाषा का साम्राज्य एकदम ध्वस्त नहीं हुआ था।श्रीधर पाठक, प्रेमधन, महावीर प्रसाद व्दिवेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय, और मैथिलीशरण गुप्त की सशक्त अभिव्यक्ति वाली खड़ी बोली की कविताओं के बावजूद उन्हीं के टक्कर में रत्नाकर, पूर्ण और कविरत्न – जैसे महत्वपूर्ण कवि ब्रजभाषा में ही रचना कर रहे थे। रामचंद्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद ने लिखने की शुरूआत ही ब्रजभाषा में की थी। ब्रजभाषा के साथ आरंभ के दस वर्षों में रीतिकालीन प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय थीं। कहीं -कहीं भारतेंदु के भक्ति के पद और ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रेमपद भी प्रकट हो जाते थे। इनके बीच व्दिवेदी जी थे लौह लेखनी से खड़ी बोली का संस्कार और नये विषयों का विस्तार करते हुए। आचार्य व्दिवेदी नवीनता के पक्षपाती थे, लेकिन उच्छृंखलता पंसद नहीं थी। उस समय हिंदी में उनका एकछत्र राज्य था। इसके बाद भी एक और वर्ग बिल्कुल नए कवियों का था, जो श्रीधर पाठक का अनुगमन कर रहा था। नये नये कवियों में मुकुटधर पाण्डेय भी थे। शुरू से ही उनमें ये दो प्रवृत्तियां स्वच्छन्दता और आदर्श की रचना-जैसी कुछ विरोधी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती है। आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने इन्हीं किरणों से उनके काव्य को दो कोटियों में रखा है। मुकुटधर जी की रचना दो वर्गों में रखी जा सकती है। एक वह , जिसे पर उनके बड़े भाई की छाप है, दूसरा वर्ग, जो उनकी स्वतंत्र प्रेरणा से निर्मित है। वस्तुतः यह व्दितीय वर्ग ही मुकुटधर पाण्डेय की ख्याति का मुख्य आधार है( रविशंकर शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 100) पंडित लोचनप्रसाद पांडेय आचार्य व्दिवेदी से प्रभावित थे। उन्होंने मुकुटधर जी की प्रारंभिक रचनाओं का संशोधन किया था। बातचीत के सिलसिले में पांडेय जी ने बताया था- मेरी प्रारंभिक रचनाओं का संशोधन मेरे पूज्याग्रज साहित्य वाचस्पति पंडित लोचनप्रसाद पांडेय किया करते थे। एक बार मैंने शिशिर ऋतु पर कविता लिखी थी, जिसकी दो पंक्तियां याद आती हैं:-
लता चमेली की कहती
अंतिम फूूलों को धारे
चार दिनों के और पाहुने
हो तुम मेरे प्यारे
भाई साहब ने इस पर लिखा – वर्णनात्मक नहीं , अब भावात्मक कविता लिखो । उनकी प्रेरणा प्राप्त कर के मैंने जो कविताएं लिखीं , उन्हें आचार्य व्दिवेदी ने “सरस्वती” में प्रकाशित किया। आचार्य शुक्ल ने उनकी गणना स्वच्छन्दावादी कविताओं में की थी। दूसरे, व्दिवेदी जी “सरस्वती” में छपने वाली कविताओं में कुछ न कुछ अपनी छाप छोड़ देते थे। इन्हीं कारणों से उपयुर्क्त विरोधी प्रवृत्तियाँ उनमें पाई जाती हैं।
नवीन चेतना से सम्पन्न खड़ी बोली काव्य -आंदोलन की पृष्ठभूमि में अनेक तत्वों का हाथ है। पूर्व और पश्चिम के सम्पर्क से विज्ञान की उन्नति, डाक , छापेखाने का प्रचलन, रेल की शुरुआत और राजा राममोहनराय, स्वामी दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, तिलक और गांधी का उदय, सत्तावन के गदर और काँग्रेस की नीति में प्राचीनता और नवीनता का अद्भुत तालमेल, आदि। व्दिवेदी युग ने भारतेन्दु युग के जन जागरण की पृष्ठभूमि पर ही नवीन चेतना का सूत्रपात किया था। भारतेंदु और व्दिवेदी युग की राष्ट्रीय चेतना को स्थाई और कलात्मक बनाने का श्रेय छायावाद को है।
श्रीधर पाठक के अनुवाद (एकांत वास, योगी, उजड़ग्राम, विश्रांत पथिक) ने खड़ी बोली को भाव के स्तर पर कुछ नया ही रुप दिया। आगे चलकर आचार्य व्दिवेदी ने अनुवाद कार्य को महत्वपूर्ण ही नहीं समझा, स्वयं भी सक्रिय हुए और अपनी मंडली के कवि लेखकों को भी उत्प्रेरित किया।संस्कृत, अँग्रेजी, मराठी, बँगला और उड़िया आदि के अनुवाद से हिंदी की परम्परागत काव्य-धारा ने व्दिवेदी युग में ही श्रीधर पाठक व्दारा प्रवर्तित स्वच्छन्दावादी प्रवृत्ति को विकसित किया। व्दिवेदी जी कठोर अनुशासन प्रिय थे। उन्होंने प्रकृति-सौन्दर्य और मनुष्यता को वायवी होने से बचाना चाहा। उनमेँ सुधार की भावना और उपदेश की प्रधानता होने से कविता इतिवृत्तात्मक हो गई लेकिन भाषा मँज रही थी। इन कारणों से स्वच्छन्दावादी धारा अन्तस्सलिला हो गई जो कभी कभी मैथिलीशरण गुप्त, बद्रीनाथ भट्ट, जयशंकर प्रसाद, मुकुटधर पांडेय , और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में प्रकट हो जाती थी। मैथिलीशरण गुप्त धीरे -धीरे आख्यान की ओर बढ़े। पूर्व में उपनिषदों के दर्शन के जागरण की आभा और पश्चिम की यन्त्र-सभ्यता के सौंदर्य-बोध से प्रभावित होकर कवीन्द्र रवीन्द्र ने सर्वप्रथम छायावाद की भावना को जन्म दिया, क्योंकि बंगाल ही सर्वप्रथम पश्चिमी संस्कृति के गहन सम्पर्क में आया था। हिन्दी के जागरण -काल में ही ये प्रयत्न नए युग के तकाजे के कारण अल्पमात्रा में मुकुटधर पाण्डेय आदि के समय स्वतः प्रारंभ हो गए थे (अवन्तिका कावयालोचनांक जनवरी 1951 पृ. 190) । मुकुटधर पाण्डेय का महत्व कुछ इसी तरह आचार्य हजारीप्रसाद व्दिवेदी ने इन शब्दों में प्रतिपादित किया है “वस्तुतः स्वच्छन्दावादी कविता बहुत पहले शुरू हो चुकी थी और कविवर मुकुटधर पाण्डेय उसके प्रमुख उन्नायक रहे। आधुनिक हिन्दी कविता के अध्ययन में इस महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन की उपेक्षा नहीं की जा सकती।”
सन् 1915 के बाद तो स्वच्छन्दावादी काव्य धारा चौड़ा पाठ बनाने लगी थी। व्दिवेदीयुगीन शुष्क तट-कछार उसमें ढहने लगे थे। इस धारा के सशक्त हस्ताक्षर थे मैथिलीशरण गुप्त , जयशंकर प्रसाद और मुकुटधर पाण्डेय। इसके समानांतर सन् 1920 तक व्दिवेदी युग भी संघर्षरत रहा और कहा जा सकता है, उसका प्रभाव सन् 1935 तक रहा। मुकुटधर पाण्डेय की रचनाओं में स्वच्छन्दावादी और व्दिवेदीयुगीन काव्य की गंगा-जमुनी धारा प्रवाहित होती दिखाई देती है। इस काव्यधारा का नाम देने के लिए इतना अधिक अध्ययन और परिश्रम करना पड़ा कि वे शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो गए और जो नवोन्मेषशालिनी काव्य-धारा फूट पड़ी थी, वह सदा के लिए भूमिगत हो गयी।
पाण्डेय जी स्वतः इस बात को स्वीकार करते हैं कि कविता -लेखन के साथ ही साथ गद्य – लेखन भी समान गति से चल रहा था। इसी बीच एक घटना घटी। उनके किसी मित्र ने ऐसे भंग खिलाई कि उसकी खुमारी आज भी दिलोदिमाग को बेचैन कर बैठती है। जन्म-कुंडली में किसी उत्कली ज्योतिषी ने चित-विभ्रम और हिन्दीभाषी ज्योतिषी ने “चित्तक्षत” लिखा था। यह घटना सन् 1918 की है, जो सन् 1923 में चरम सीमा में पहुंच गई। मानसिक अशांति से साहित्य – साधना एकदम छिन्न भिन्न हो गयी। शोध प्रबंधों ने गलत- सलत बातें लिखीं। कतिपय सज्जनों ने उन आलोचकों को मुँहतोड़ जवाब भी दिया, लेकिन कवि ने उन्हें क्षमा कर दिया। “बात यह थी कि सन् 1923 के लगभग मुझे मानसिक रोग हुआ था। मेरी साहित्यिक साधना छिन्न भिन्न हो गयी। तब किसी ने मुझे स्वर्गीय मान लिया हो , तो वह एक प्रकार से ठीक ही था। वह मुझ पर दैवी प्रकोप था, कौई देव-गुरु -श्राप या कोई अभिचार था। यह मेरे जीवन का अभी तक रहस्य ही बना हुआ है।” पांडेय जी ने मानसिक अशांति के इन्हीं क्षणों में “कविता”, और “छायावाद” जैसे युगांतकारी लेख और “कुररी के प्रति” जैसे अमर रचनाएँ लिखीं।
इतना यहाँ इसलिए कहना पड़ा कि कवि मुकुटधर पाण्डेय अपनी सहजात प्रवृत्तियों के साथ ही युगबोध से भी जुड़े रहे। इसलिए उनके रचना-संसार में व्दिवेदीयुगीन और स्वच्छन्दावादी काव्य संस्कार मौजूद हैं। इसी अर्थ में मैंने उन्हें संक्रमण-काल का कवि कहा है।
कवि मुकुटधर पाण्डेय खड़ी बोली कविता धारा में सन् 1909 से 1925 तक अत्यधिक सक्रिय रहे। हिन्दी प्रदेश के वे शायद अकेले निर्विवाद और लोकप्रिय कवि थे, जो उस समय की प्रायः सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान पाते थे। उस समय आचार्य व्दिवेदी का आतंक था। उनके सिध्दांतों और आदर्शों का अतिक्रमण करना दुस्साहस का ही कार्य था। एक बार मैथिलीशरण गुप्त की कविता व्दिवेदी जी ने अन्यत्र देख ली। आचार्य बहुत कुपित हुए और उनकी रचना लौटाते हुए कड़ी चेतावनी दी – आप इसे पेटी में बंद कर दीजिए और “सरस्वती” में लिखना हो तो कहीं न भेजा करें। वहीं मुकुटधर पाण्डेय की रचना “सरस्वती” में बेरोक टोक छपती थी। गुप्त जी, हरिऔध और प्रसाद जी जैसे समर्थ कवि और साहित्यिक उन्हें खूब चाहते थे। अपनी सद्यः प्रकाशित कृतियाँ वे उन्हें सस्नेह प्रेषित किया करते थे।।
जैसा कि पूर्व में कहा गया, पंडित मुकुटधर पाण्डेय का प्रथम काव्य-संग्रह “पूजाफूल” है, जिसका प्रकाशन मुरलीधर मुकुटधर शर्मा के नाम से 1916 में ब्रह्म प्रेस , इटावा से हुआ था। 1984 में उनका दूसरा काव्य-संग्रह हमारे सम्पादन में श्रीशारदा साहित्य सदन , रायगढ़ से प्रकाशित हुआ। “पूजाफूल” में 1909 से 1915 तक की कविताएं संकलित हैं। उनकी कविताएं सन् 1909 से 1983 तक फैली हुई हैं। उन्हें तीन खंड़ों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम चरण स्वच्छन्दावादी काव्य धारा (पूजाफूल” 1909 से1915 तक , व्दितीय चरण छायावादी काव्यधारा 1916 से 1937 तक, तृतीय चरण प्रगतिशील काव्य धारा 1937 से 1983 तक , जो अब “विश्वबोध” में संकलित हैं।
सन् 1925 से 60 के बीच पाण्डेय जी ने यदा कदा ही कविताएँ लिखीं और जो लिखीं , वे नष्ट हो चुकी हैं। सन् 37-38 में उन्होंने दो- चार कविताएं लिखीं। इस बीच उनकी वह वास्तविक दुनिया उजड़ चुकी थी, जिसके कारण हिंदी साहित्य में उनका नाम अमिट रुप से अंकित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भी उन्होंने कुछ कविताएं लिखी, फिर लम्बा डैश। 60 के बाद मित्रों और सम्पादकों के आग्रह पर फिर से लिखना शुरू किया। ये सौ से ऊपर रचनाएँ होंगी। उनके शब्दों में, ये स्वतस्फूर्त नहीं हैं, लेबर प्राँडक्ट हैं। अगर इस युग की कविता को उपयोगितावादी या सुसंस्कृत शब्दों में प्रगतिशील धारा की कविता कहें, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
“पूजाफूल” और “विश्वबोध” के अतिरिक्त हिन्दी काव्य-संग्रह , कविता कुसुम माला, रूपाम्बरा, कवि-भारती, कविता-कौमुदी आदि में यत्र -तत्र बिखरी पड़ी हैं, लेकिन इनमें पुनरावृत्ति हुई है। उनकी करीब 150 रचनाओं का संग्रह मैंने पुरानी पत्रिकाओं और कुछ एक पाण्डेय जी की स्मृतियों के सहारे किया है। ये रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
(लेखक:- डाँ० बलदेव- “छायावाद और मुकुटधर पांडेय” समीक्षा ग्रंथ से)