दुविधा के दुर्गम जंगल में
दुविधा के दुर्गम जंगल में हम राही पथ भटक गये हैं ,
जाने हम किन -किन की आंखों में बरसों से खटक गये हैं।
कहते हैं कि ऊपर फेंकी हुई
वस्तु ना ऊपर रहती ,
चुम्बकत्व की शक्ति ही तो
उसको नीचे खींचा करती ।
क्या अपना भी हश्र वही है ,जैसा सबके साथ हुआ है ,
आसमान से गिरते -गिरते हम ख़जूर में लटक गये हैं।
समझ नहीं हो तब समझायें
बुद्धिमान हो हम क्या कह लें ,
त्याग नहीं है फिर भी सोचा ,
अधिक नहीं तब कुछ तो सह लें।
चुप रहने की हद भी है कुछ ,चिल्लाएं इच्छा होती है ,
लेकिन आवाजों के काफ़िले किसी द्वार पर अटक गये हैं।
अपने हँसने के दिन थे जब
रोने में ही लगे हुए थे ,
जब चोरी की आशा न थी ,
जगने में ही लगे हुए थे ।
हम मशीन -सा करते रहते हँसना और बिलखना भी ,
लगा परन्तु किसी यन्त्र के कुछ कल -पुर्जे छटक गये हैं।
– मधु धान्धी