“पदुमावति” में छलकता महाकवि का भारत–राग
virendra sahu
भक्तिकाल के जिन दिग्गज कवियों ने हिंदी साहित्य को शिखर पर पहुंचाया उनमें सबसे कम चर्चा जायसी की होती है। पद्मावत महाकाव्य के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी का जन्मकाल पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में माना गया है। अर्थात् वे कबीरदास के परवर्ती और तुलसीदास के पूर्ववर्ती हैं। किंतु हिंदी के वर्तमान परिदृश्य में चर्चा तुलसी और कबीर की ही होती है, जायसी की नहीं।
ऐसा नहीं की जायसी कोई कम प्रतिभाशाली कवि थे। या कि उनकी कविता में भावसौंदर्य नहीं है, या कि उनकी कविता का शिल्प कमजोर है, या कि उनकी कविता लोकमन को छूती नहीं है, या कि उनकी कविता के संदर्भ कालबाह्य हो चुके। ऐसा कोई भी कारण नहीं रहा। इतना ही नहीं, भारतीय लोकचित्त और सांस्कृतिक रूपरेखाओं की जैसी रचना जायसी करते हैं, वैसा उदाहरण भक्तिकालीन कविता में दुर्लभ है।
हिंदी साहित्य के शलाकापुरुष आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जायसी के महत्व को पहचाना था। यह आकस्मिक नहीं है कि शुक्ल जी की दृष्टि में जायसी कबीर से बड़े कवि थे। काव्यकर्म के विविध पक्षों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कबीर की अपेक्षा जायसी को ही अधिक महत्व दिया। शुक्ल जी ने जायसी को अधिक महत्व क्यों दिया इसका एक कारण तो यही था कि वे सर्जनात्मक प्रतिभा की दृष्टि से जायसी को कबीर से श्रेष्ठ मानते हैं। रामचरित मानस के परम प्रशंसक होते हुए भी ‘सर्वोत्तम प्रबन्ध काव्य’ उन्होंने पद्मावत के लिए ही कहा। यह जायसी के उत्कृष्ट रचनाविधान का ऐसा संकेतक है जिसे परवर्ती सभी आलोचकों ने स्वीकार किया है। शुक्ल जी कहते हैं कि “पद्मावत को पढ़ने से यह प्रकट हो जाएगा कि जायसी का ह्रदय कैसा कोमल और प्रेम की पीर से भरा हुआ था। क्या लोक पक्ष में और क्या भगवत् पक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढता और गंभीरता विलक्षण दिखाई देती है।”
जायसी की महत्ता का एक अन्य कारण भी है, जिसे हम एक कवि का सांस्कृतिक उत्तरदायित्व कह सकते हैं। इस दृष्टि से दोनों कवियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए शुक्ल जी कहते हैं :-
“कबीरदास की और उन (जायसी) की प्रवृत्ति में बहुत भेद था। कबीर विधि विरोधी थे और वे (जायसी) विधि पर आस्था रखने वाले। कबीर लोकव्यवस्था का तिरस्कार करने वाले थे और वे (जायसी) सम्मान करने वाले।”..… “कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्ध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ।”…. “इन्होंने (–जायसी ने) मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानी हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।”
सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका की दृष्टि से देखें तो यहां दो भिन्न प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं। एक हिंदू-मुस्लिम सामरस्य की, दूसरी धार्मिक रीतियों-कुरीतियों के प्रतिषेध की। जायसी का काव्य पहली प्रवृत्ति का पोषण करता है तो कबीर का काव्य दूसरी का। ऐसा प्रतीत होता है कि शुक्ल जी ऐसे प्रबोधन को अधिक महत्व देते हैं जो हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच की खाई को पाटकर परस्पर समरसता का वातावरण निर्मित करता हो। कबीर ने सामाजिक धर्म निभाते हुए दोनों समुदायों की निन्दा करके अपना सुधारक स्वरूप प्रकट किया। जबकि जायसी ने प्रेम का ऐसा बैकुंठी मार्ग दिखाया कि पारस्परिक भेद तिरोहित हो जाए। बात सही है कि लोगों के दिलों पर राज उनकी खिल्ली उड़ा कर, चोट पहुँचाकर नहीं, उनकी सहज अनुभूतियों को समझकर कर, उन्हें स्पर्श करके ही किया जा सकता है। लोगों के संवेदनापूर्ण और प्रेमल मनोभावों को एक दूसरे के सामने रख कर ही लोगों के दिलों को जोड़ा जा सकता है।
शुक्ल जी के उपरांत वासुदेव शरण अग्रवाल, माताप्रसाद गुप्त, विजयदेव नारायण साही, डॉ. रघुवंश और डॉ. कन्हैया सिंह ने जायसी पर गंभीर कार्य किया। ये सभी आलोचक जायसी को भारत की माटी से गहरा प्रेम करने वाला कवि मानते हैं। विजयदेव नारायण साही ने भी कबीर और जायसी के अंतर को विश्लेषित किया है। वे लिखते हैं :- “कबीरदास और जायसी ये दो ही लेखक हैं जो इन मिलते टकराते (हिन्दु-मुस्लिम) समाजों के संधिस्थल पर खड़े हैं। कबीरदास की प्रमुख मुद्रा हिंदी-मुसलमान दोनों समाजों के सरगनाओं को चुनौती देने वाली हैं। उनका स्वर प्रतिरोधी है। लेकिन जायसी का स्वर प्रतिरोधी नहीं है। एक जबरदस्त करुणा उन्हें आप्लावित कर रही है। इस करुणा की व्यथा जायसी के लिए इतनी भारी है कि उनके पास चुनौती और प्रतिरोध के लिए फुर्सत नहीं है।”
यह सच है कि कबीर की प्रताड़ना ने अंधविश्वासों और कुरीतियों के विरुद्ध जागरण की भूमिका निभाई और परवर्ती सुधारकों का पथ प्रशस्त किया। किंतु प्रश्न तत्कालीन परिदृश्य में कवि की उस सामाजिक संपृक्ति का है जो परस्पर साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अपेक्षित थी। पारस्परिक सौहार्द्र के लिए एक भावात्मक पथ प्रशस्त करने की जरूरत बड़ी थी। अरब से आये इस्लाम का भारतीय संस्करण उत्पन्न कर इसे देशानुकूल बनाने का प्रयत्न एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी। जायसी और रसखान जैसे मुसलमान कवियों ने भारतीय लोकजीवन और परम्परा में पूरी तरह डूब कर “इस्लाम के भारतीयकरण” का जो प्रयास किया वह हिन्दू मुस्लिम ऐक्य का सबसे सुगम मार्ग था।
भारतीय परम्परा, यहां का लोकजीवन, यहां की भाषा-भूषा-भोजन, इस मिट्टी में खिले फूलों की खुशबू, इस धरती के हर्ष-विषाद के अवसर ही वह आधारभूमि थी (और आज भी है) जहां हिन्दू और मुसलमान परस्पर निकट आते हैं, उनके हृदय जुड़ते हैं। कोई बीज भले ही वह अरब, फारस या तुर्किस्तान से आया हो परन्तु जब वह इस मिट्टी के गर्भ से अंकुरित होकर फूटता है, यहां के हवा, पानी, ताप पाकर रेशा–रेशा खिलता है तो उसके फूल, फल और पत्तियां भारतीय ही कहलाती हैं। उसके रूप, रस, गन्ध पर मौलिक भारतीय निर्मिति का ठप्पा लग जाता है। जायसी ने अपनी कविता से जो भीनी गन्ध और मीठा रस बिखेरा वह भारतीय स्वाद ही था। इस्लाम के भारतीयकरण का यही तात्पर्य है।
इस प्रसंग में शुक्ल जी एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर खेदपूर्वक संकेत करते हैं कि, “…इन भावुक और उदार मुसलमानों ने इसके द्वारा मानो हिन्दू जीवन के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट की। यदि मुसलमान हिंदी साहित्य से दूर न भागते, इनके अध्ययन का क्रम जारी रखते तो उनमें हिंदुओं के प्रति सद्भाव की वह कमी न रह जाती जो कभी कभी दिखाई पड़ती है। हिंदुओं ने फ़ारसी और उर्दू के अभ्यास द्वारा मुसलमानों की जीवन कथाओं के प्रति अपने हृदय का सामंजस्य पूर्णरूप से स्थापित किया, पर खेद है कि मुसलमानों ने इसका सिलसिला बन्द कर दिया।”
इन पंक्तियों को पढ़कर समझा जा सकता है कि शुक्ल जी के लिए जायसी क्यों इतने महत्वपूर्ण रहे? आधुनिक युग में भी हमारे सामाजिक-राजनैतिक व्यवहार में यदि इस ओर ध्यान दिया जाता तो यह साहित्य के माध्यम से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के वैमनस्य को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होता।
शुक्लोत्तर आलोचना के परिदृश्य में बड़ा बदलाव यह हुआ कि मार्क्सवाद और सेक्यूलरी छल–छद्म के प्रभाव में धार्मिक मान्यताओं पर चोट करने वाली प्रवृत्तियाँ सराहने योग्य मानी गयी। तथा आध्यात्मिकता से ओत–प्रोत सरस प्रेम की अनुभूतियाँ हेय समझी गईं। इसी का प्रतिफल था कि जायसी किनारे होते गए और कबीर केंद्रस्थ।
कबीर निस्संदेह बड़े कवि हैं। केंद्रीय महत्व के कवि हैं, पर विचित्र बात यह हुई कि बड़ी चालाकी से कबीर का वह स्वरूप ही प्रमुखता से स्थापित किया गया जो आक्रामक था और संघर्ष के वातावरण को उभरता था। धर्म, विशेषकर हिंदू मान्यताओं को ध्वस्त करने वाला था। आज के हिंदी अध्येता के सामने श्रद्धा, भक्ति और प्रेम में डूबे कबीर का चित्र खड़ा नहीं होता, विद्रोह की लुकाटी हाथ में लिए खड़े कबीर का प्रतिरूप ही सामने आता है। भले ही कबीर के समग्र काव्यकर्म में प्रतिरोधी चेतना वाला काव्य-अंश उनकी भक्ति, समर्पण और आध्यात्मिकता वाले अंश की तुलना में कितना ही कम क्यों न हो।
“पद्मावत” को एक नए आलोक में देखते हुए
डॉ. कन्हैया सिंह पद्मावत का केंद्रीय महत्व इसके राष्ट्रीय-सांस्कृतिक मूल्यों में देखते हैं। उनकी दृष्टि में– “पदुमावति का कवि “हिंदू – मुसलमान के बीच की नफ़रत की दीवार तोड़कर उनमें उस भूसंस्कृति की प्रतिष्ठा करना चाहता है जिसमें अपनी जन्मभूमि का स्वाभिमान और उसकी संस्कृति का प्यार ही प्रधान है।… जायसी ने हिन्दू घर की कहानी को अपनाया, हिंदू धर्म और दर्शन को अपने काव्य में स्थान दिया, सूफ़ी प्रेम साधना और भारतीय योग साधना का समन्वय किया। भारतीय सामाजिक जीवन का गहरा निरूपण किया, लोक संस्कृति को उजागर किया।……पदुमावति भारतीयता का महाकाव्य है।”
(उल्लेखनीय है कि डॉ. कन्हैया सिंह के मतानुसार “पद्मावत” का वास्तविक नाम “पदुमावति” है।)
तात्पर्य यह हैं कि जायसी का प्रधान अभिप्रेत भू-सांस्कृतिक प्रतिष्ठा होने के कारण ही उनके काव्य में “अपनी जन्मभूमि का स्वाभिमान” और अपनी “संस्कृति का प्यार” केंद्रीय महत्व का विषय बन गए। रत्नसेन पद्मावती की प्रेमकथा इस सांस्कृतिक प्रतिष्ठा का सरस माध्यम बनी। अस्तु, देखना होगा कि इस काव्य में व्यक्त हुई भू-सांस्कृतिक प्रतिष्ठा का स्वरूप क्या हैं?
जायसी के द्वारा हिन्दू लोकजीवन के कथानक और प्रतीकों पर आधारित प्रेमकथा कहने को लेकर प्राय: सभी आलोचक, समीक्षकों ने इस परिघटना में हिन्दू-मुस्लिम मेल और दो संस्कृतियों का समागम देखा है। यह उचित ही हैं। विशेषकर जब भारतीय संस्कृति को एक राजनैतिक अभिप्राय के तहत एक “मिलीजुली संस्कृति” या “गंगा–जमुनी तहज़ीब” या “कम्पोज़िट कल्चर” कहा जाता हो, वहाँ ऐसा सोचना स्वाभाविक ही है। किंतु प्रश्न है की जब भी कोई मुसलमान भारतीय संस्कृति की बात करता है, तो हमें तत्काल सांस्कृतिक समन्वय की बात याद आती है। सांस्कृतिक आलोक फैलाने की बात क्यों याद नहीं आती? यह कहीं गहरे में मुस्लिमों के प्रति एक अन्यत्व का भाव तो नहीं? यह उनके बाहरी होने की भावना को मन में दबाए बैठे रहने का परिणाम तो नहीं जो इस रूप में प्रकट होती है?
अन्यथा किसी मुस्लिम कवि द्वारा भारतीय संस्कृति की गौरवगाथा गाने पर उसे हिन्दु– मुस्लिम संस्कृति का समन्वयक बताना और किसी हिन्दु कवि द्वारा ऐसा करने पर उसे भारतीय संस्कृति का संवाहक कहने का क्या औचित्य है?
इन दोनों स्थितियों में निहित अन्तर को समझना आवश्यक है। जायसी ने जो कि इस्लाम मतावलंबी थे, न तो अपने मज़हब के मानने वालों का पुष्टीकरण किया और न हिंदुओं का तुष्टीकरण। वे आज की तरह के राजनैतिक छद्म सेकुलरिज्म के भी पक्षधर नहीं थे कि एक को गाली दी जाए तो दूसरे को भी कोसा जाए। एक की प्रशंसा की जाए तो दूसरे की पीठ पर भी हाथ फेरा जाए। वे ऐसा बिल्कुल नहीं करते। वे दोनों की उन मान्यताओं और तत्त्वों को उभारते हैं जो दोनों में समान रूप से ग्राह्य है, अधिकतम रूप में स्वीकृत हैं। अत: जायसी के भारत के प्रति लगाव को अपनी जन्मभूमि का स्वाभिमान और अपनी संस्कृति से प्रेम के रूप में देखना चाहिए न कि केवल दो भिन्न–भिन्न भावनाओं के समन्वय के रूप में। और इसीलिए जायसी को केवल सांस्कृतिक समन्वय करने वाला कवि कहना अधूरा कथन है। जायसी भारतीय संस्कृति का प्रकाशन करने वाले कवि हैं।
वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को सांप्रदायिक चश्मे से देखने की प्रवृति ने ही इस्लाम के भारतीयकरण में अवरोध पैदा किया है। भारत में इस्लाम के भारतीयकरण का अर्थ मिश्रित संस्कृति की दुहाई देने वाले विचारकों को भले ही अरुचिकर लगता हो किंतु जायसी इसके महान आदर्श हैं।
जायसी भारतीय लोकजीवन में रची बसी आस्था से कितने अनुप्राणित हैं, इसके अनेक दृष्टांत पद्मावत में बिखरे पड़े हैं। रामचरित मानस में कौशल्या माता गंगा और यमुना को साक्षी करके सीता को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देती है। बहुत प्रसिद्ध चौपाई है यह–
“जब लगि गंग जमुन जल धारा। अचल होहु अहिवात तुम्हारा।” पढ़ कर हमारा रोम–रोम भीग जाता है। जायसी तुलसीदास से भी पूर्व इसी तरह गंगा–यमुना को स्मरण कर चुके हैं। पद्मावत के आरम्भ में शेरशाह की प्रशस्ति में वे लिखते हैं, “सारी पृथ्वी दोनों हाथों को जोड़–जोड़ कर तुम्हें आशीष देती है कि गंगा और यमुना में जब तक जल रहे तब तक तुम्हारा माथा अमर रहे।”
“सब पिरथिमी असिसइ जोरि जोरि के हाथ।
गाँग जउँन जौ लहि जल तौ लहि अम्मर माथ।।15।।
यह दोनों हाथों को जोड़ कर गंगा और जमुना को साक्षी करना भारतीय मन से ही सम्भव है।
जायसी इस्लाम मतावलम्बी थे। अपनी पांथिक श्रद्धा वे यत्र तत्र प्रकट करते चलते हैं। किंतु वे इस्लाम को भारतीय आस्था के प्रकाश में देखते हैं न कि अरब या फारस की रोशनी में। यह इस्लाम का भारतीयकरण है।
भारत में वेदों के उपरांत सर्वाधिक पूजनीय धर्मग्रन्थ पुराण माने गए हैं। जायसी कुरान को पुराण कह कर सम्बोधित करते हैं।
“पुनि उस्मान पँडित बड़ गुनी। लिखा पुरान जो आयत सुनी।”
फिर पण्डित और गुणवान उस्मान आये जिन्होंने सुनी हुई आयतों को पुराण ( कुरान ) रूप में लिपिबद्ध किया।
“जो पुरान बिधि पठवा सोई पढ़त गिरन्थ।
अउर जो भूले आवत ते सुनि लागत तेहि पंथ।।12।।”
जिस पुराण को विधाता ने भेजा था ये उसी ग्रंथ को पढ़ते थे, और जो भूले भटके आते थे, वे सुनकर उस के मार्ग में आ लगते थे।
प्रेम की महिमा और अध्यात्म के सार को प्रकट करती जायसी की एक पंक्ति साहित्य में कालजयी हो गई। “मानुस पेम भएउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूॅंठी।।”
प्रेम मनुष्य को दिव्यता प्रदान करता है उसके बिना उसके स्थिति एक मुट्ठी धूल के समान है। इस दिव्यता को जायसी “बैकुंठी” शब्द में अनुभूत करते हैं। यही उनका भारतीय मिट्टी में रमा हुआ चित्त है। बहिश्त या जन्नत से उनका काम नहीं चलता।
पद्मावत में मुख्य संघर्ष हिन्दू और तुर्क राजाओं के बीच था। यह एक इतिहासप्रसिद्ध घटना थी।
“सुना साहि गढ़ छेंका आई। हिन्दू तुरकहिं भई लराई।”
जायसी स्वयं भी तुर्कों की तरह मुस्लिम मतावलम्बी थे। प्रश्न यह है कि वे इस संग्राम में किसका पक्ष लेते हैं? एक इतिहास लेखक की तरह युद्ध का तटस्थ वर्णन करते हैं या अपनी कविजनित सम्वेदनाओं को किसी एक दल के पक्ष में रखते हैं? एक सच्चा कवि अपनी सम्वेदनाओं को प्रकट होने से रोक नहीं सकता। तो जानना चाहिए कि जायसी का मन किसके साथ है? अपने उन मुसलमान बांधवों के साथ जो देश के विशाल साम्राज्य के मालिक भी थे; अथवा अपनी मातृभूमि के उन सपूतों के साथ जो देश की महान् परम्परा के वाहक थे और मुस्लिम शासकों से आक्रांत भी?
पद्मावत की आखिरी पंक्ति है :-
“जौहर भई सब इस्तरी पुरुष भये संग्राम।
पातसाहिं गढ चूरा चितउर भा इसलाम।।”
पद्मावत की महागाथा का अंतिम निचोड़ जायसी ने इस दोहे में व्यक्त किया है कि, चितौड़ अब इसलाम (-धर्मावलम्बी बादशाह) के अधीन हो गया।
काव्यप्रबंध की समाप्ति के इस अंतिम दोहे को परत दर परत खोलें तो वेदना का सोता बहता दिखाई पड़ता है। केवल एक अतिसंक्षिप्त समाचार “चितउर भा इसलाम”।….वही चितौड़ जिसे जायसी पूर्व में “चितउर कर हिंदुन कर माता” कह चुके हैं।…कितने ध्वंस, कितनी हत्या, कितने हाहाकार के बाद यह हुआ…”चितउर भा इसलाम”। और इसे व्यक्त करने के लिए हृदय को बेधते शब्द कि, “सारी स्त्रियाँ जौहर में जल मरीं, सारे पुरुष युद्ध में काम आगये”। तथा “पातसाहिं गढ़ चूरा” में सब कुछ तहस-नहस हो जाने की हृदय विदारक सूचना!
इससे पूर्व की चौपाइयों में वे लिखते हैं–
“तब लगि सो औसर होइ बीता। भये अलोप राम औ सीता।।
छार उठाइ लीन्ह इक मूठी। दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी।।”
जायसी, रत्नसेन और पद्मिनी को जब राम और सीता कह कर उनके प्रति अपनी भावना प्रकट करते हैं तो अलाउद्दीन स्वत: रावण के रूप में लांछित होता है। और अन्तत: उसके हाथ क्या लगा? वही एक मुट्ठी राख; जिसके लिए जायसी आरम्भ में ही कह चुके– “मानुस पेम भएउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूठी।”
यह प्रेम तो मिला रत्नसेन और पद्मिनी को जो स्वर्गीय विभूति बनकर विद्यमान हैं। और दुष्ट अलाउद्दीन के हाथ लगी केवल मुट्ठीभर धूल।
विचार किया जाए तो लगेगा कि “चितउर भा इसलाम” के साथ निकलती जायसी की आह, अलाउद्दीन की आक्रामक संस्कृति पर व्यंग्य करती है कि ऐसे इस्लाम प्रचार से क्या लाभ जहां प्रेम के स्थान पर राख मिले?
स्पष्ट है कि जायसी तलवार के बल पर अपनी सत्ता स्थापित करने वाले इस्लाम के पक्ष में नहीं अपितु प्रेम से गले लगाने वाले इस्लाम के पक्ष में खड़े हैं। यह उनका भारत–राग ही है जो काव्य के रूप में इस्लाम को इस देश के अनुकूल ढालने का रचनात्मक माध्यम बनता है। यही इस्लाम के भारतीयकरण की प्रक्रिया थी जो जायसी जैसे देशप्रेमी कवियों के द्वारा चल पड़ी थी।
जबकि इस्लामी सत्ता और बादशाहों का व्यवहार इसके विपरीत था। एक ओर गौरी से लेकर औरंगजेब तक, गुलामों, खिलजियों, लोदियों, मुगलों की रक्त–रंजित हिंसक परंपरा थी तो दूसरी ओर खुसरो, जायसी, रसखान, दारा शिकोह, चांद बीबी की राग–रंजित प्रेमल परम्परा थी। और यह शनै: शनै:, विशेषकर औरंगजेब के अवसान के बाद भारत में फलने–फूलने लगी थी। उन्नीसवीं सदी के उर्दू के मशहूर शायर हाली की एक नज़्म है–
“वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्शा-ए-आलम में पहुँचा,
मजाहिम हुआ कोई खतरा न जिसको
न अम्मान में ठिठका न कुलजम में झिझका
किये पास्सेपार जिसने सातों समंदर
वो डूबे दहाने में गंगा में आकर।।”
अर्थात् “अरब देश का वह निडर बेड़ा, जिसकी ध्वजा विश्वभर में फहर चुकी थी, जिसका मार्ग कोई नहीं रोक सका था, जो न अम्मान की खाड़ी रुका और न लालसागर में झिझका, जिसने सातों समंदर अपनी ढ़ाल के नीचे कर लिये थे, वह गंगा के दहाने में आकर डूब गया था।”
इस्लाम के भारतीयकरण की प्रक्रिया को व्यक्त करने के लिए मौलाना हाली के इस कथन से बड़ा और क्या साक्ष्य होगा? भारत में यह प्रक्रिया चल पड़ी थी। भारत की सांस्कृतिक गंगा के प्रवाह में विश्वजयी इस्लाम के जहाज की चाल–ढाल और दिशा–दृष्टि में बहुत से बदलाव परिलक्षित होने लगे थे। किंतु चालाक ब्रिटिश राज ने इस प्रक्रिया को रोकने के लिए फिर से अलगावों के अलाव सुलगाने चालू कर दिए। अंग्रेजों की कुटिल चालों के कारण देश में इस्लाम के भारतीयकरण की प्रवृति मंद पड़ गई और पृथक्करण की प्रवृति बलवती होती चली गई।
इस्लाम के जयाकांक्षी हाली ने यह बात अवश्य किंचिद् खेद के साथ कही होगी, परन्तु हम भरतीय मानते हैं कि गंगा किसी को डुबोती नहीं, तार देती है। जो डूब जाता है वह भी दिव्यपद को प्राप्त कर तर जाता है।
जैसे महाकवि जायसी इस भारतीय लोक–गंगा की आत्मा में उतरकर अमर होगए।
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इंदुशेखर तत्पुरुष, 38, आनंद नगर,
सिरसी रोड, खातीपुरा, जयपुर– 30 2015
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