शीला महार की अच्छी कविता
वो चिड़िया सी है
हाँ वो स्त्री है
वो नींदों में तवा परात
तमाम चुल्हा चौका,
हजारों फिक्र साथ लिऐ सोती है ।
सुबह सवेरे जाग जाती है,
संभाल लेती है मोर्चा,
चाय नाश्ता, अपराह्न का भोजन
बच्चों बड़ों का इंतजाम,
फिर निकल पड़ती है
आसमान छूने,
साँझ ढले लौट आती है,
क्लांत चेहरा लिऐ,
पूरे दिन का कार्यकलाप निपटा,
रास्ते का गुबार लिऐ ।
हाँ वो स्त्री है,
चिड़िया सी है
अपने घर आँगन की
साज सज्जा करती है,
विभिन्न अक्षरों में बँटी हुई,
रिश्तों की थाती समेटती
सहेजती है,
फिर टूट कर बिखर जाती है,
सिलवटों से सिकुड़े बेतरतीब बिस्तर पर,
सुबह की फिक्र लिऐ दिमाग में,
बगल में लेटे प्रेम की प्यास लिऐ,
साथी की चाहत से घुटी घुटी,
बेजान, बेरौनक जिस्म ढोती हुई,
अपने ही साऐ में करवट लिऐ
सिमट जाती है,
पुरुष जो ले आता है उसे
गाज़े बाजे और धन,
तमाम लाव लश्कर के साथ,
नहीं जानता
उसको क्या दरकार है ।
हाँ , वो स्त्री है,
घर के कामकाज से फ़ारिग हो,
ऊहापोह लिऐ घर से निकलती है,
शाम को रोज़ाना,
दिन भर की थकान लिऐ,
झटपट घर पहुँचने की मारामारी में,
रोज़ मरती है,
रोज़ जीती है ,
घर लौट आती है ।
मेहनत से अर्जित करती है
पदोन्नति,
शिखर छूना जानती है,
पीठ पीछे इसके भी तंज सुनती है,
जरूर बॉस को रिझाया होगा,
तभी तो प्रोमोशन पाया होगा,
छिः कितने घिनौने विचारों से
दो चार होती है,
हाँ वो कर्मठ स्त्री है,
भला बाधाओं से कब डरती है ।
हाँ वो स्त्री है ,
पढ़ी लिखी, अपने अधिकारों से
अभिज्ञ(जानकर), साहसी है,
तभी तो मैली नज़रों से मुकाबला करती है,
हाँ वो चिड़िया है,
हाँ है वो सम्मान की पात्रा,
मगर वो कब पाती है,
सहती है प्रताड़ना, तिरस्कार भी,
दोयम् दर्जे की कहाती है,
माँगती नहीं स्व अधिकार भी ।
हाँ !
लौट आती है अपने घौंसले में,
घौंसला उस पर ही तो निर्भर है,
वो जिसका मान है
अभिमान है, सुख है, शांति है,
वो घर की जीवन आधार है,
यूँ ही झूठे उपालम्भों से खुश हो जाती है,
हाँ वो चिड़िया ही तो है,
हांँ, वो स्त्री है,
लौटना होता है उसे हर साँझ ढले,
यही तो उसका घर संसार है,
प्रेमपूरित, प्रेमपगा,
कयी जोड़ी आँखों से उसकी राह जोहता हुआ …!!!!
शीला माहार
११/०४/२०२१