November 15, 2024

फ़िल्म ‘अर्थ’ : महेश भट्ट (1982)

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जीवन का अर्थ या उसकी सार्थकता का प्रश्न जीवन के सम्मान में निहित है। एक-दूसरे की स्वतंत्रता, अस्मिता, निजता का सम्मान किए बगैर एक समतावादी समाज की कल्पना नही की जा सकती। सम्बन्धों की सार्थकता उसमे निहित प्रेम में है।और यदि ये सम्बन्ध स्त्री-पुरुष के बीच हो तो जटिलता और बढ़ जाती है।आधुनिक समाजो में सम्बन्धों में लोकतंत्रात्मकता का विकास हुआ है मगर पूरी तरह नही।

समाज की निरंतरता के लिए स्त्री-पुरुष का यौन साहचर्य अनिवार्य और प्राकृतिक है। मगर यह सम्बन्ध केवल जैविक नही होता इसके विविध सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयाम हैं,इसलिए यदि यह सम्बन्ध समतावादी न हो तो “ताल्लुक़ बोझ” हो सकता है। किसी समुदाय का स्तर यदि सामंती जीवन मूल्य से आगे न बढ़ा हो तो बहुधा स्त्री पितृसत्ता को स्वाभाविक मान लेती है और द्वंद्व उभर नही पातें। ज़ाहिर है द्वंद्व का यह शमन अस्वाभाविक है।

आधुनिक पूंजीवादी समाजों में स्त्री एक हद तक अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हुई है,तदनरुप वह नौकरीपेशा-व्यवसायी होकर आत्मनिर्भर भी हुई है, और कई एकल जीवन भी व्यतीत कर रही हैं।यानी उनके पास चुनाव की स्वतंत्रता है।

बावजूद इसके दाम्पत्य, सन्तान की चाह मनुष्य की सहजवृत्ति है। मगर दाम्पत्य समानता पर आधारित होना चाहिए, चालाकियाँ इसमे ज़हर भर देती हैं।

फ़िल्म ‘अर्थ’ में ‘पूजा’ (शबाना आज़मी)और ‘इंदर'(कुलभूषण खरबंदा)का वैवाहिक जीवन अभाव के बावजूद ‘सुखमय’ है। कम से कम पूजा की तरफ से तो स्पष्ट है, भौतिक सुविधाओं की चाह के बाबजूद उसकी कमी पर इंदर से उसे कोई शिकायत नही है। यों प्रकटतः इंदर को भी पूजा से कोई शिकायत नही है,मगर उसका चरित्र ढुलमुल है। साथ काम करते-करते उसे ‘कविता'(स्मिता पाटिल) से ‘स्वाभाविक प्रेम’ हो जाता है।और इस ‘स्वाभाविक प्रेम’ की परिणति पूजा से अलग रहने और अंततः तलाक देने में होती है। यों इंदर को भी पूजा से कोई शिकायत नही है। वह कविता के ‘स्वाभाविक प्रेम’ के कारण उससे दूर होता जाता है। एक हद तक दोनो के साथ भी रहने की कोशिश करता है मगर कविता की बीमार हालत के कारण उसे पूजा से अलग होना पड़ता है।

फ़िल्म में कविता का चरित्र खुल नही पाया है। वह प्रसिद्ध अभिनेत्री है। इंदर से प्रेम करने लगती है, उसकी मदद करती है, यह जानते हुए भी की वह विवाहित है। शुरू में वह इंदर के ‘आधा’ समय से संतुष्ट है, मगर धीरे-धीरे वह वह उसे ‘पूरा’ चाहने लगती है और इंदर पर पूजा से अलग होने का दबाव डालती है। दरअसल वह एक मानसिक रोग से ग्रसित है जिसके कारण उसमे तीव्र असुरक्षाबोध है। बार-बार इसका ‘अटैक’ भी आता है। इसलिए उसका चरित्र अस्थिर है। पूजा के प्रति इसके मन में एक काल्पनिक भय है, जो उसके स्वयं मानसिक जनित है, इसलिए पूजा से मिलकर भी इसका ‘भय’ बरकरार रहता है। मगर इन सब के बीच उसका एक ‘जागृत मन’ भी है, जिसमे कहीं ‘अपराध बोध’ भी है,जिसे वह पहले स्वीकार नही रही थी। आखिर में इस द्वंद्व में उसे इस बात का अहसास होता है कि कुछ गलत हो रहा है। वह इंदर से कहती है कि “तुम मेरे लिए पूजा को छोड़ सकते हो किसी और के लिए मुझे भी छोड़ सकते हो।”इंदर ठगा सा रह जाता है।

कल्पना की जा सकती है कि इंदर और कविता का ‘प्रेम’ किन परिस्थितिओं में हुआ होगा। साथ काम करते, मिलते जुलते स्त्री-पुरूष का परस्पर आकर्षण अस्वाभाविक नही है। मगर व्यक्ति अपने लिए यदि ‘सामाजिक’ जीवन का चुनाव करता है तो उससे सम्बंधित कुछ जिम्मेदारी अवश्य होती है,उसको नज़रअंदाज़ करना ‘उच्छृंखलता’ है। यानी ग़लत यह है कि इंदर के सामने पूजा का पक्ष सिरे से गायब है, मानो उसकी सहमति-असहमति की कोई जरूरत ही नही।

पूजा के चरित्र विकासमान है। वह पहले इंदर के ‘बेवफाई’ से आहत होती है, उसे पाना चाहती है, जो उसका स्वाभाविक मानवीय रूप है, मगर धीरे-धीरे उसे अपनी अस्मिता का बोध होता है। उसे अहसास होने लगता है कि मेरी अपनी भी तो कोई राह , कोई मंज़िल हो सकती है जिसके लिए किसी और(पुरुष) की आवश्यकता नही है। यानी सम्मान बराबरी का न हो अपनी राह बेहतर है।

हालांकि पूजा स्त्री अस्मिता के प्रति जागरूक होती है, मगर वह पितृसत्ता के ‘मूल्यों’ से पूरी तरह मुक्त नही है। कविता को ‘रंडी’ कहना इसी मूल्य जनित शब्द है जिससे कम से कम प्रारम्भ में वह मुक्त नही है। पूरे फ़िल्म में पूजा, कविता, नौकरानी इस मूल्य से ग्रसित हैं। कविता की तो जैसे अपनी कोई अस्मिता ही नही है, उंसके लिए इंदर के अलावा बाकी दुनिया मानो शून्य है। इंदर का स्वीकार और अस्वीकार उंसके लिए महज मानसिक विक्षेप का मामला दिखाई पड़ता है।केवल पूजा को आखिरी में इससे मुक्त होता दिखाया गया है, इसलिए जब इंदर आखिरी में ‘लौटकर’ आता है तो वह उसे ठुकरा देती है। यहां तक कि ‘राज’ के प्रेम निवेदन को स्वीकार नहीं करती जो पितृसत्तात्मक मूल्यों से मुक्त दिखाई देता है।

इंदर का चरित्र ढुलमुल तो है मगर उसमे क्रूरता नही है। वह पूजा से अलग रहकर भी उसकी भलाई चाहता है। एक हद तक वह परिस्थितियों का ‘मारा’ जान पड़ता है। बहुत से काम वह कविता की जान बचाने करता दिखाई पड़ता है, मगर यह परिस्थियां उसने स्वयं निर्मित की है।फ़िल्म में संकेत नही मगर ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह सुविधाओं की चाह में कविता के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट नही कर पाया होगा और बहता चला गया होगा । अंततः उसे कहीं किनारा नही मिलता।

मनुष्य के सारे कार्य-व्यापार और सम्बन्ध किसी पूर्व निर्धारित सांचे में ढले नही होते। फिर स्त्री-पुरुष का परस्पर सहमति का यौन साहचर्य कोई ‘अनैतिक’ कार्य नही है मगर मूल्यों की केवल अपने ‘अनुकूल’ व्याख्या स्वीकार नही किया जा सकता। अपने दायित्वबोध से कटा केवल इन्द्रियबोध से संचालित जीवन पशुओं में हो सकता है, और मनुष्य पशुता की मंज़िल से आगे बढ़ चुका है।

अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728330

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