सरोज यादव की चुनी हुई कविताएं
(१)
सुनोगे कैसे मौत का क्रंदन
तुम तो उत्सवधर्मी हो
यथा देश के तथा वेशधर
वक्ती सेवाकर्मी हो
लोक अगर खुद नशा चुने तो
क्यों तुम्हे कहें अधर्मी हो
लोकतंत्र में लोक रहेगा
अब जब जन में नर्मी हो
समता जिसमे,कहलाये वो
तुम तो निरे विधर्मी हो
देश चले उन संकेतों पर
जिसमे दौलत की गर्मी हो
(२)
फूल देखो खिल रहे हैं भूल कांटों की चुभन
क्यों भला हम घूमते हैं , जख्म लेकर उम्रभर
सिर्फ खुशियां ही नहीं मिलता है दिल को दर्द भी
वक्त कहता , तुम पथिक हो , राह देकर उम्र भर
कौन है संतुष्ट , जग में , जिसको देखा रो रहा
अनछुए से सुख की मन मे चाह लेकर उम्र भर
जब चला जाता है हमसे , छीनकर खुशियां कोई
कब नजर आता है हमको , आह देकर उम्र भर.
(३)
एक वर्ष पूर्व कुछ हल्का फुल्का 😊
अक्सर गिरता दूध उबलता, या जल जाती सब्जी
बच्चों को कुछ काम कहो तो ,रहें खेलते पब्जी
मोबाइल के बिना हाथ में, होती रहती खुजली
चढ़े धूप में लगे कि जैसे ,आँख में छाई बदली
जब तक मैसेज भेज न दे कुछ, पीड़ित करने वाले
तब तक जो कुछ खाया हमने ,नहीं वो पचने वाले
जब भी आता दैवीय मैसेज, ग्यारह इक्कीस वाले
भेज के ग्रुप में आएं हमको , सपने दौलत वाले
खींचे पिक्चर लोग , तो उसकी सेटिंग में हुड़दंग
टपरे में हैं बैठेे , बोलें हम हैं स्विट्जरलैंड
बड़ा दुखद ,कुछ लोग पार्टी करते रहते ऐसे
दिखा दिखा पकवान, रुलाते जलन हो जैसे हमसे
बहुत बात थी अभी बतानी ,मगर करूँ क्या हाय
पति को ऐसे वक्त में अक्सर ,याद आती है चाय
मोबाइल पर कृपादृष्टि हो ,जपूं देव त्रिपुरारी
किचन संभालू जाकर अब ,मैं अबला बेचारी
(४)
खबरनवीसों
ख़बर
लिखते वक्त
ख़बर पढ़ते वक्त
ख़बर की एक्टिंग करते वक्त
क्या कभी भी
नजर नहीं आते तुम्हे
भूख से दम तोड़ते बच्चे
नहीं दिखते
बेरोजगार हो चुके
लाचार कदमों को खींचते
हतास निराश माँ बाप
नहीं दिखते जमापूंजी समेत
जलती झोपड़ियों से उठते शोले
नहीं दिखता तुम्हे नई बीमारी के कारण
तिरस्कार से आत्महत्या करता युवा
नहीं दिखते तुम्हे दवा के लिए
दर दर भटकते बीमार
नहीं दिखते दीवार से चिपक कर रोते बेरोजगार
तुम सबकी आवाज बन सकते थे
मगर बना डाला है तुमने
खुद को मूल्यहीन विदूषक
तुम नहीं जानते
शायद बहुत जल्द
तुम भी नजर आओगे
इसी काली कोलतारी सड़क पर
जनता से अपने रोजी के लिए चंदा मांगते
सुना है अब तुम्हारे
सुनहरे महल की दीवारें भी
सोने की नहीं रहीं
क्या करोगे तुम आखिर
खबर के बाजार चुक जाने के बाद
तुम तो बिकने लायक पेंटिंग भी नहीं
(५)
अपने घर में आग लगाकर पहरा रख दो चीखों पर
हया मिटाकर आंखों की तुम दुनिया भर की बात करो
अस्थि जला ईंधन करते जो रोटी के दो टुकड़ों को
मेहनतकश का रक्त चूस तुम सपनों पर आघात करो
साझा है जब सबकुछ सबका कैसी पर्दादारी है
खिड़की पर पर्दा लटका तुम चढ़ते दिन को रात करो
ईद दिवाली आदत सबकी,चाँद सितारे साझे हैं
एक एक मिल ग्यारह बनते तुम तो बस उत्पात करो
(६)
दुनिया करे सितम सितमगर ही रही है ,
तुमसे तो मगर ऐसी उम्मीद नहीं थी.
अब कर लिया सितम तो कोई बात ही नहीं
फिर बन गए मासूम ये उम्मीद नहीं थी.
कोई सबूत जब नहीं किस बात की सजा
इतने हो तुम चालाक ये उम्मीद नहीं थी
तुमसे जो रूठ जाएं भी क्या फर्क पड़ेगा
इतने भी गैर होंगे ये उम्मीद नहीं थी.
अपनी वफ़ाएँ छोड़के जाएंगे हम कहां
इसका नहीं है मोल ये उम्मीद नहीं थी.
(७)
सभ्यताओं को बचाना होगा हमें,
नफरत के जहर से
नहीं देख सकते अपने आप को,
अपने लोगों को ,
जागती आंखों से दफन होते
नहीं बनना चाहते अवशेष,
“”सिंधु घाटी”” या “”मिश्र की सभ्यता”” की तरह
हमें छुडाना ही होगा,
आखिरी हिचकी लेने से पहले
हर इंसान को ,
नफरत के जानलेवा कैद से
ताकि बता सकें हम
आने वाली नस्लों को
अपनी नादानियां अपनी गलतियां
औऱ बच जाएं वो
हमारे उदय और अस्त होने के
दैवीय अनुमान से
न खोजते फिरें वो
हमारी सभ्यता के अवशेषों को
हमारी तरह
-सरोज यादव ‘सरु’