फ़िल्म ‘सूत्रधार’ : चंद्रकांत जोशी (1987)
सामंतवाद ने ग्रामीण लोकजीवन को अभी हाल तक इस कदर जकड़ा था कि छोटे-छोटे ज़मीदार ही वहां के ‘भाग्य-विधाता’ हुआ करते थे।उनके क्षेत्र की तमाम गतिविधियां जैसे उनकी मर्जी से चलती थीं। आम जन का कदम-कदम पर अपमान सामान्य बात थी।उस पर भी वे ‘प्रजा हितैषी’ होने का दम भरते थे।
दूसरी तरफ पूंजीवादी लोकतंत्र के विस्तार से इनका पतन होना शुरू हुआ।इस अवस्था मे एक ओर जहां ये अपने क्षेत्र के जनता के मालिक हुआ करते थे वहीं अपने अस्तित्त्व के लिए ‘ऊपर की राजनीति’ पर आश्रित थे। कहना न होगा यह स्थिति भिन्न रूप में आज भी कई क्षेत्रों में बनी हुई है।
यह मानी हुई बात है कि समस्याओं के हल के लिए ‘सत्ता’ की प्राप्ति जरूरी है। यदि सत्ता नहीं है तो सदिच्छाएँ बहुत दूर तक प्रभावी नहीं हो पातीं। इसलिए लोकतंत्र में अपनी योजना कार्यान्वित करने के लिए सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है जिसका माध्यम चुनाव और उसकी राजनीति है।मगर विडम्बना कि जो लोग ‘व्यापक सामाजिक बदलाव’ के उद्देश्य का दावा करके राजनीति में आते रहे हैं, उनका चरित्र भी एक समय के बाद ‘डिप्लोमेटिक’ होता गया है और वे भी ‘सत्ता के भोग’ की राजनीति करते रहे हैं।
फ़िल्म ‘सूत्रधार’ का ‘कुमार’ एक विद्रोही युवा है जिसके मन में गांव ज़मीदार के अत्याचार की गहरी पीड़ा और उसके प्रति प्रतिशोध की चेतना है। उसके मन में बचपन में ज़मीदार द्वारा उसके पिता के अपमान का दृश्य अंकित है।वह अब एक शिक्षक है और जल्दी समझ जाता है कि बिना सत्ता प्राप्त किये ज़मीदार को पछाड़ा नहीं जा सकता। इसलिए वह स्थानीय राजनीति से सफर शुरू करता है और अपनी मेहनत से लोगों को संगठित कर सफलता भी प्राप्त करता जाता है। मगर यहीं से कहानी में नाटकीय मोड़ आता है। वह ज़मीदार से प्रतिस्पर्धा और उसे नीचा दिखाते-दिखाते स्वयं उसी दलदल में घुस जाता है।
इस तरह धीरे-धीरे कुमार के लिए भी सत्ता साधन न होकर साध्य होते जाता है। वह भी साम-दाम-दंड-भेद की राजनीति करते अपने सम्भावित प्रतिस्पर्धियों और विरोधियों को रास्ते से हटाते जाता है। यानी जिन मूल्यों को ख़त्म करने की चाह में वह राजनीति की शुरुआत किया रहता है अब उन्ही मूल्यों में जीने लगता है।कमाल यह है कि इस रूपांतरण में वह कभी द्वंद्वग्रस्त नहीं रहता।
उसकी पत्नी ‘प्रेरणा’ जो उसके सत्यनिष्ठता और जुनून से प्रभावित होकर उसके करीब आयी थी। उसके इस बदलाव से हतभ्रत हो जाती है।मगर वह अपनी राह नहीं छोड़ती और कुमार को समझाने में असफलता के बाद उससे अलग हो जाती है। कुमार के ‘सत्ता की चाह’ का उस पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
फ़िल्म के आख़िर में कुमार अपनी कूटनीति से ‘बंसी’ को मरवा देता है और उसके बेटे की परवरिश की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने का अभिनय करता है तो इससे वाकिफ़ बंसी का बेटा हतभ्रत तो होता है मगर उसके चेहरे के भाव बताते हैं कि आगे वह भी वही कहानी दुहरायेगा जिसका ‘सूत्रधार’ कुमार है।
इस तरह फ़िल्म ‘सूत्रधार’ में राजनीति की इस विडम्बना को बेहतर ढंग से दिखाया है जहां ‘मुक्ति का संघर्ष’ बहुधा ‘सत्ता की युक्ति’ का संघर्ष बनाता रहा है।कहना न होगा राह इस युक्ति से मुक्ति में ही है।
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[2021]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320