हिंदी एवं भारतीय भाषा – साहित्य में अर्न्तसम्बन्ध
भारत विविध भाषा-भाषी राष्ट्र है। सांस्कृतिक विविधता भी है ! बोलचाल, वेशभूषा की विविधता के बावजूद, एक ऐसी समानता है राष्ट्र में- जिसके कारण पूरा राष्ट्र एक हो जाता है! भारतीय भाषा में व्यंजना, लक्षणा व प्रतीकात्मक शक्ति बहुत है- यह सब संस्कृत भाषा से आया है। साहित्य का माध्यम भाषा है- इन भाषाओं में एक आंतरिक समानता दिखाई देती है! साहित्य में समान विषय वस्तु होने के कारण यह समानता गहरी हो जाती है। भारतीय भाषाएं मूलतः आर्य व द्रविड़ परिवार की भाषाएं हैं।
भारतीय भाषाओं का साहित्य सात्विक, मंगलमय व नीतिमूलक भावों व बातों से भरा हुआ है, इसीलिए भाषाएँ उच्चारण में विभिन्नता के बावजूद समान भाव व विषय लेकर चलती हैं। सभी भाषाओं के साहित्य में कुछ सामान्य प्रवृत्ति मिलती है। कुछ सुखद समानता अर्थात पूरे भारत देश में एक ही विचारधारा, एक ही प्रकार का चिंतन, आस्था, एक ही आध्यात्मिक विश्वास चलता है, जिसके कारण यह विविध भाषी देश अन्तर्सम्बन्ध से जुड़ा है। हमारा लोकजीवन और नगरीय जीवन, सभी एक ही काल व नाम के साथ जुड़कर चल रहे हैं, इसलिए सभी भाषाओं के साहित्य में मौलिक समानता है और सभी का अन्तर्सम्बन्ध बना है।
पहले हम भारतीय भाषा-साहित्य के अन्तर्सम्बन्ध पर चर्चा करें। रामायण और महाभारत पर आश्रित काव्य, परस्पर आर्यभाषा परिवार व द्रविण परिवार दोनों में वर्णित है। लोक- जीवन व नगरीय जीवन-दोनों में रामायण व महाभारत का प्रभाव रहा। महाभारत के साथ भागवत कथा भी लोकमानस में समाई रही। भारतीय लोक मानस दो दिव्य महामानवों के व्यक्तित्व चरित्र, एवं दिव्य कर्म से प्रभावित रहा। अपनी अपनी भाषा में उन्हीं की गाथा गाता रहा ।
—तमिल में ‘कम्ब’ रामायण है।
—तेलुगु में ‘रंगनाथ रामायण’ व ‘भास रामायण’ है।
—कन्नड़ में ‘रामायण’ है।
—बंगला में ‘कलीबास’ रामायण है।
—उड़िया में सारलादास की ‘विलंका रामायण’ और बलरामदास की ‘रामायण’ है।
—हिंदी में तुलसीदास लिखित ‘रामचरित मानस’ है।
इसी प्रकार महाभारत काव्य-शृंखला पूरे भारत भाषा परिवार में फैली है-
1 – तेलुगु में तीन महाकवियों ने महाभारत की रचना की – ‘ नन्नय’, ‘तक्कन’, ‘एर्रन’ ने।
2- कन्नड़ में ‘पंप’ और ‘कुमार व्यास’ ने महाभारत की रचना की ।
3 – मलयालम में ‘एजुतच्चन’ का महाभारत उनके रामायण से भी अधिक मौलिक व पूर्ण है
4- मराठी में ‘श्रीधर’ ने ‘पांडव प्रताप’ लिखा है।
5- 17वीं व 18वीं सदी में बंगला में महाभारत के 30 से साधक रूपांतर हुए- जिनमें ‘काशीरामदास’ का महाभारत – सर्वश्रेष्ठ है।
6- असमिया में ‘राम सरस्वती’ ने महाभारत के आधार पर अनेक काव्यों की रचना की।
7- उड़िया में महाभारत के रचयिता हैं- ‘सारलादास’ – जो ‘उत्कल व्यास ‘ के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
8- पंजाबी में ‘कृष्णदास’ ने महाभारत का पद्यानुवाद प्रस्तुत किया।
9- हिन्दी में मध्ययुग में अनेक महाभारत लिखे गए, जिनमें ‘गोकुलनाथ आदि’ एवं ‘सबल सिंह चौहान’ प्रसिद्ध हैं।
इसी प्रकार ‘भागवत’ के रूपांतरण भी सभी भाषाओं में होते रहे हैं- जो भारतीय भाषा काव्यों के लिए दृढ़ सम्बन्ध सूत्र रहे।
संस्कृत काव्य शास्त्र का सार्वभौम प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य की एकता का स्थायी आधार रहा है।
‘समय’ यानी काल – भारतीय साहित्य का एक ही स्रोत रहा, इसलिए इतनी अधिक समानता है। सभी का अन्तर्सम्बन्ध भी है।
साहित्य के माध्यम से भाषा में भी गहरी समानता है। अंग्रजों के आगमन के बाद सभी भाषाओं में अंग्रेजी भाषा की वाक्य रचना का गहरा प्रभाव पड़ा और विषय वस्तु की समानता के कारण अंतरसम्बन्ध बहुत मजबूत हुआ।
‘कृष्णभक्ति रस’ का आनन्द हिन्दी, बंगला, गुजराती, उड़िया, असमिया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम – इन सभी भाषाओं के साहित्य में मिलेगा। गुजराती कवि ‘मालण’ के आख्यानों में मिलेगा। 15वीं सदी के मलयालम कवि ने ‘कृष्णगाथा’ में, असमिया कवि ‘माधवदेव’ ने अपने ‘बड़गीतों’ में कृष्ण की बाललीला का वर्णन है।
सूफी काव्य को समझने के लिए फारसी काव्य, उत्तर पश्चिम की भाषा के अलावा कश्मीरी, सिंधी, पंजाबी और उर्दू भाषा साहित्य से सहायता मिलती है। इस अन्तर साहित्य सम्बध से ही भाषाओं के अन्तरसम्बन्ध को समझा जा सकता है। इससे भारतीय चिन्तन व रागात्मक चेतना की अखंड एकता का परिचय मिल सकता है। अब भाषा-व्याकरण कर चर्चा की जाए!
‘कोस कोस में पानी बदले,
चार कोस में बानी!’
पानी और शब्द बदलते रहते हैं। पानी के स्वाद की तरह बोली, वाणी का उच्चारण भी बदलता जाता है। बिहार में ‘भोजपुरी’ व मैथिली की मिठास, ‘हरियाणा’ तक जाते – जाते ‘रुक्ष’ यानी कठोर वाणी में बदल जाती है। यह अपने आप होता है – प्रकृति का स्वभाव है। जैसे पानी का स्वाद कहीं मिठास लिए हुए है, कहीं खारापन, कहीं कसैला, कहीं शीतल, कहीं तप्त, उसी तरह मनुष्य की वाणी भी थोड़ी-थोड़ी दूर में बदलती जाती है। छत्तीसगढ़ में ही मैदानी इलाके में रायपुर से पहाड़ी इलाके सरगुजा की ओर जाएं, तो रास्ते में बिलासपुर से ही बोली व उच्चारण में धीरे धीरे बदलाव देखते जाएंगे। जैसे- –
1- आपका की जगह- ‘आपन’
2- तब की जगह- ‘तहने’
3- नोकर की जगह ‘धंगरा ‘
रायपुर से बस्तर की ओर जाएं तो ऐसा बदलाव देखेंगे-बस्तरी / हल्बी भाषा-1- तूष्की जगह ‘तुमि’, 2-तुम जगह ‘तुमन’, 3- जितना की जगह ‘जितरो’
हिंदी में कई भारतीय भाषाओँ का प्रभाव है। इससे रूप थोड़ा बदल जाता है, पर अर्थ वही रहता है। जैसे :- 1- संथाली भाषा का शब्द- अलकर (संकट) – यह मराठी, छत्तीसगढ़ी में भी असकट (ऊब )- मराठी व छत्तीसगढ़ी में भी है झांझ (लू)-मराठी व छत्तीसगढ़ी में भी है।
2- तमिल भाषा का – कुण्टु (कुंड) हिंदी भाषी क्षेत्र में भी 3- गोंडी भाषा का – खुमरी ( पत्तों की छतरी)
4- तेलुगु का – माल (माला)
5- संस्कृत का – हस्त (हाथ) नासिका (नाक) मुख (मुंह)
हमारी हिंदी और हिंदी की सहयोगी भाषाओं के अंतर्गत विदेशी शब्द भी आ गए हैं। आज हमें पता ही नहीं चलता कि उन शब्दों का मूल उद्गम विदेशी भाषा है। जैसे संस्कृत का ‘कस्तूरी’ व यूनानी शब्द ‘कस्तोर’ – एक ही अर्थ का प्रतीक है।
तुर्की से आया – शब्द-कुर्ता, कैंची, चम्मच, चाकू, दरोगा प्रचलित है । पश्तो से आया शब्द-पठान, मटर गश्ती, डंगर (पशु), गन्डरी (गन्ने का टुकड़ा), फारसी-से आया शब्द- अंगूर, जमीन, आखिर, कागज, जलेबी, दरजी, देहात, पाजामा, मेवा, मुख्तार, लकवा, हलवा, साफ, जबरदस्ती, तहसीलदार । पुर्तगाली-से आया शब्द- अन्नानास, इस्त्री, बोतल, माखुर, मिस्त्री, बिस्कुट । डच से आया शब्द-रबर। फ्रांसीसी से आया शब्द- अंग्रेज, लैम्प, टेबिल, कप। अंग्रेजी से आया शब्द- मास्टर, वैसलीन, इंस्पेक्टर, ट्रक, कोट, गजट, कम्पाउंडर, स्कूल, ऑफिस, आदि ।
छत्तीसगढ़ – एक ओर महाराष्ट्र तो दूसरी ओर उड़ीसा से जुड़ा है। कुछ किलोमीटर तक चलने के बाद जिस तरह पानी का स्वाद बदलता जाता है, उसी तरह उच्चारण यानी बोली का स्वाद भी बदलता जाता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह प्रकृति के नियम के अंतर्गत चलता है। यहां भाषा वैज्ञानिक का बनाया नियम नहीं चलता। जैसे- पर्वत, नदी, सागर, जंगल, झरना, गर्म पानी का स्रोत- यह सब प्राकृतिक है, वैसे ही मनुष्य की बोली भाषा भी प्राकृतिक रूप से-जल, जमीन, जंगल से उपजी होती है। जलवायु की तासीर के अनुसार मनुष्य के होंठ हिलते हैं, जीभ हरकत करती है, उच्चारण होते हैं, तब बोली बनती जाती है। हम इसका व्याकरण रचकर लिपिबद्ध करते हैं। तब यह भाषा बन जाती है। संसार में पहले बोली व भाषा बनी, बाद में लिपि। बोली प्राकृतिक है, लिपि मनुष्य ने प्रयास करके बनाया।
हम छत्तीसगढ़ से सटे या जुड़े हुए दो प्रान्तों उड़ीसा व महाराष्ट्र की चर्चा कर रहे हैं। मराठी भाषा में -आमचा, तुमचा, मला शब्द आता है। उसके प्रभाव से छत्तीसगढ़ी में- हमरेच, तुंहरेच, मोला, शब्द बना है।
उड़िया, बंगला, असमिया की तरह – जाबो, खाबो, पोढ़बो की तर्ज पर छत्तीसगढ़ी में भी यही क्रियापद बनता है। यानी बो उच्चारण उड़िया का प्रभाव है और च/चा उच्चारण मराठी का प्रभाव है।
यह बात स्पष्ट हो गई कि सीमावर्ती गांवों व शहरों की भाषा में अन्तर्सम्बन्ध हो ही जाता है। वहां भाषा मिश्रित या मिंझरा हो जाती है। भाषा वैज्ञानिकों ने अध्ययन करके दिशा के अनुसार भाषा समूह बनाये हैं। जैसे- 1- पूर्वी भाषा समूह – बंगला, असमिया, उड़िया, बिहार की भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, बघेली, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, नेपाली व पहाड़ी हिन्दी ।
2 – पश्चिमी भाषा समूह – पंजाबी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, हरियाणवी
3- दक्षिण में द्रविड़ भाषा समूह- तमिल तेलुगु, मलयालम,
कन्नड़ ।
हिन्दी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में अर्न्तसम्बन्ध – भ्रमण, पर्यटन, चार धामों की तीर्थ यात्राओं से अधिक पुष्ट और प्रबल हुआ।
भारतीय साहित्य दो दिव्य चरित्रों से भरा हुआ है – राम व कृष्ण। मन की आस्था के साथ-साथ, भाषा के शब्दों की यात्रा प्राकृतिक रूप से चल रही है। मनुष्य के पर्यटन के साथ शब्द भी यात्रा करते हुए कहीं रुक जाते हैं, कहीं रम जाते हैं और हम भारतीय एकता के सूत्र में बंध जाते हैं। छत्तीसगढ़ तो भारत का हृदय स्थल है-यहां सम्पूर्ण भारत की भाषाएं विश्राम करती हैं। यह लघु भारत है। भाषाएं गले मिलती हैं। हमें अनेकता में एकता का अनुभव कराती हैं। इसलिए हम भारतीय साहित्य व भाषाओं में अन्तर्सम्बन्ध का अवलोकन करते हैं। यह राष्ट्रीय एकता के लिये दृढ़ स्तम्भ की तरह है।
—डॉ, सत्यभामा आडिल